धागों से जुड़ता भारत

भारतीय कला विविध रूपों में प्रतिबिम्बित होती है। कभी चित्रों के रूप में कैनवास पर, कभी शिल्पों के रूप में दीवारों पर तो कभी कढ़ाई के रूप में कपड़ों पर। जितने राज्य उससे भी अधिक कढ़ाई के तरीके। परंतु इतनी विविधता में एकता यह झलकती है कि कश्मीर की कशीदाकारी दक्षिण के लोग पसंद करते हैं और उत्तर प्रदेश की बनारसी महाराष्ट्र की दुल्हनों को लुभाती है। ये धागे भारत को जोड़ते हैं।

भारत विविधताओं में एकता का देश है। इन्हीं विविधताओं को एकता में बदलने का सामर्थ्य रखने वाली विभिन्न कलाओं जैसे पाक कला, कढ़ाई, बुनाई, कशीदाकारी, खेल, नृत्य और लोकगीत, लोक पर्व के कारण उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भारतीयता के दर्शन होते हैं।

बात विविधताओं की हो तो भारत के विभिन्न राज्यों के परिचय में उन राज्यों की कढ़ाई कला को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

विभिन्नता के धागों से गुंथी कढ़ाई कला इस भारत को एकरूप बनाती है। कशीदाकारी या कहें कढ़ाई कला कपड़ों पर कपड़े, सुई और धागा या सूत के साथ अन्य सामग्री की हस्तकला है। कढ़ाई में धातु की पट्टियां, मोती, पंख, सीपियां, सितारे एवं विभिन्न अन्य सामग्री को शामिल कर सकते हैं। इसके माध्यम से कपड़े के सौंदर्य में अभिवृद्धि की जाती है।

कशीदाकारी की एक विशेषता यह है कि बुनियादी तकनीकों से ही आज भी काम कर सकते हैं। इसमें टांके, फंदा या कंबल टांका, साटन टांका, उल्टे हाथ सिलाई आदि बहुत से तरीके होते हैं। वैसे धागों का मूल मंत्र भी जोड़ने के लिए योजक के रूप में होता है, वैसे ही भारत के विभिन्न प्रान्तों से बने धागे भारत को अखण्ड बनाने की दिशा में अपने स्वभाव मूलक ही काम करते हैं।

इतिहास इस बात की गवाही भी देता है कि आज़ादी के आंदोलन में म.गांधी ने भी अपने चरखे से काते गए सूत को बहुत महत्त्व देते हुए अंग्रेज़ों के बनाए विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया था। तब भी म. गांधी अपने चरखे से सूत कातकर कपड़ा बनाते थे और वही पहनते थे। उन्होंने विदेशियों के कपड़े को नकारात्मक बताया था और विदेशी कपड़ों की भारत में होली भी जलवाई। उस समय ज़्यादातर सूरत, चेन्नई, मैसूर, इलाकों से विदेशी कपड़े आते थे और भारत से मसाले और कुछ अन्य चीज़ें विदेशों में जाती थीं। जहाज के द्वारा तब मैसूर और सूरत एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक शहर बन गए थे। भारत में पारंपरिक रूप से बलाई व कोरी जाति की महिलाएं कपास से चरखे, तकली पर सूत कात कर धागा बनाने का काम करती थीं। लेकिन आजकल धागा मशीनों से बनाया जाने लगा है।

भारत में कढ़ाई में दर्जनों कढ़ाई शैलियां शामिल हैं, जो राज्य और कपड़ों की शैलियों के अनुसार अलग-अलग होती हैं। उन कढ़ाई कलाओं में गुजरात की हीर भारत या बन्नी और काठी के साथ-साथ कच्छ या अरिभारत, कच्छी भारत, सिंधी सिलाई। हिमाचल प्रदेश से चम्बा रुमाल कला, उत्तर प्रदेश से चिकनकारी तो राजस्थान की गोटा और करचोबी कढ़ाई प्रसिद्ध हैं।

आंध्र प्रदेश की कमल कढ़ाई, बंगाल की कांथा, कर्नाटक की कसुति या कसुथी और कौडी प्रचलित हैं। मेघालय से खनेंग तो कश्मीर से कश्मीरी कढ़ाई और आरी लोगों को आकर्षित करती हैं। जब लखनऊ या उत्तर प्रदेश में और घूमा जाए तो मुकैश वर्क (कनकारी के समान) और फूल-पत्ती का काम बहुधा देखने को मिलेगा। पंजाब और हरियाणा की ओर बढ़ेंगे तो फुलकारी कढ़ाई बहुत मिलेगी, वैसे ही राजस्थान में पिछवाई, रबारी और ओडिशा में पिपली प्रसिद्ध है। मणिपुर में शमिलामी व अन्य राज्यों में टोडा कढ़ाई, ज़रदोज़ी या ज़री या कलाबट्टू भी बहुत होती हैं। मध्य प्रदेश में महेश्वर सिल्क, बाघ प्रिंट, चन्देरी वर्क बहुत अधिक प्रचलित हैं। शीशा या मिररवर्क भी इसी भारत का अंग है। बिहार की सूजनी, महाराष्ट्र की पारसी कढ़ाई, डंका कढ़ाई, जरदोरी कढ़ाई, लम्बाड़ी, कसूती जैसी कढ़ाई अभूतपूर्व होती हैं।

भारत की प्रत्येक राज्य की अपनी एक कढ़ाई कला है जो उस राज्य का न केवल प्रतिनिधित्व करती है बल्कि उस राज्य के प्रचार और व्यापार में सहभागी भी है, जैसे-

पंजाब की फुलकारी

‘फुल’ का अर्थ है फूल और ‘कारी’ का अर्थ है कार्य। यह धागे की कढ़ाई है और इसमें लाल, नारंगी, पीले, हरे, सुनहरे जैसे चमकीले रंग शामिल किए जाते हैं। परंपरागत रूप से, यह पंजाब में विवाह परिधान का एक हिस्सा है। उपयोग किए जाने वाले सभी रूपांकन रोज़मर्रा की उपयोग की वस्तुओं जैसे बेलन, फूल, सब्ज़ी, पक्षी, पशु इत्यादि से प्रेरित होते हैं।

उत्तर प्रदेश की चिकनकारी

मूलतः लखनऊ क्षेत्र में इस कढ़ाई का बहुत प्रचलन है, विक्रय और निर्माण में लखनऊ क्षेत्र अग्रणी है। यह धागे की कढ़ाई है जिसमें स़फेद कपड़े पर मोटे स़फेद रंग के धागे से कढ़ाई की जाती है। स़फेद धागे को हल्के रंग के कपड़ों के ऊपर भी उपयोग किया जाता है। रूपांकनों में प्रायः फूल, बेल और लेस जैसे पैटर्न होते हैं।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की ज़रदोज़ी

बंजारों द्वारा मध्य प्रदेश की कढ़ाई कपड़े की बुनाई को ध्यान में रखकर की जाती है। कढ़ाई की गई वस्तुएं हैं घाघरा (एक प्रकार की लंबी सजावटी स्कर्ट), ब्लाउज़ के बॉर्डर, रूमाल, छोटे पर्स और दुपट्टे (सिर ढकने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्टोल)। इस समुदाय के कारीगर स्टेम सिलाई-कढ़ाई के साथ ही रुमाल पर डिज़ाइन बनाते हैं जो लंबवत के बजाय क्षैतिज रूप से किया जाता है। यह कढ़ाई वाली वस्तुओं को एक विशिष्ट गुणवत्ता प्रदान करता है।

डिज़ाइन मूलतः ज्यामितीय पैटर्न के होते हैं। डिज़ाइन को आम तौर पर कढ़ाई की क्रॉस-सिलाई शैली द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। मध्य प्रदेश की कढ़ाई में शामिल कारीगर परम्परागत पैटर्न का पालन किए बिना हैंकी के किनारों को सिलते हैं। परम्परागत पैटर्न का पालन करने के बजाय कारीगर धागों की गिनती अलग-अलग करके डिज़ाइन बनाते हैं और ऊर्ध्वाधर टांके द्वारा कोणीय डिज़ाइन बनाई जाती है।

ज़रदोज़ी, मखमल, सैटन और रेशमी कपड़ों पर, एक प्रकार की भारी धातु की कढ़ाई है। सोने और चांदी के धागों को मोतियों, मनकों, कीमती पत्थरों, इत्यादि, के साथ डिज़ाइन बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।

राजघरानों की आरी कढ़ाई

आरी कढ़ाई, विशेष रूप से तने हुए कपड़े पर की जाती है। जिस सुई के सिरे पर कुंदा होता है, उसे आरी कहते हैं। सोने या चांदी के धागे, जिन्हें ज़री कहते हैं, की मदद से सिलाई की जाती है। इस सिलाई को फिर मोतियों और मणियों से अलंकृत किया जाता है।

आरी कढ़ाई के काम की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के बाराबंकी से होते हुए कच्छ और गुजरात के अन्य हिस्सों तक होती है। कढ़ाई ने क्षेत्र के मोची या मोची समुदाय के माध्यम से अपनी प्रसिद्धि और लोकप्रियता देखी और जल्द ही गुजरात के राजघरानों के बीच लोकप्रिय हो गई।

गुजरात व राजस्थान की हीर भरत

बन्नी नाम से भी प्रसिद्ध इस कढ़ाई की शैली में, डिज़ाइन को धागे की कढ़ाई से भरा जाता है। इसे सूती या ऊनी धागों की मदद से, बटनहोल या दोहरे साटन टांके की तकनीक से किया जाता है। इस कढ़ाई में, शीशे के अलग-अलग आकार के, छोटे-छोटे टुकड़ों का उपयोग किया जाता है।

राजस्थान की गोटा पट्टी

गोटा पट्टी में, सबसे पहले पैटर्न से युक्त एक स्टेंसिल को कपड़े पर रखते हुए, उस पर डिज़ाइन को छापा जाता है। कपास और धातु से बनी कपड़े की पट्टियां, जिन्हें गोटा कहा जाता है, की बुनाई अलग से की जाती है और उन्हें छोटी-छोटी आकृतियों में काटा जाता है। फिर उन्हें अपनी पसंद के अनुसार डिज़ाइन बनाने के लिए कपड़ों पर सिला जाता है।

आंध्र प्रदेश की लम्बाडी

यह कढ़ाई कला मूल रूप से लाल या नीले रंग के बेस कपड़े पर की जाने वाली धागे की कढ़ाई है। इसमें और अधिक आकर्षण के लिए शीशे के टुकड़ों, कौड़ी, शंख, चांदी के छोटे आभूषण, मनकों और सिक्कों का उपयोग किया जाता है। यह कढ़ाई प्रायः महिलाओं द्वारा की जाती है।

कश्मीर की कशीदाकारी

कशीदाकारी कला कपड़ों पर कपड़े सुई और धागे या सूत के साथ अन्य सामग्री की हस्तकला है। कढ़ाई में धातु स्ट्रिप्स, मोती, मोती, पंख, सीपियां, सितारे एवं विभिन्न अन्य सामग्री को शामिल कर सकते हैं। काशिदा को कसीदा के नाम से भी जाना जाता है, यह कढ़ाई के सबसे पुराने रूपों में से एक है जिसकी उत्पत्ति जम्मू और कश्मीर में हुई थी। यह अलग-अलग पैटर्न बनाने के लिए मोटे रंग के धागे और साथ ही मोतियों का उपयोग करके बनाया गया है।

इन विविध कढ़ाई कलाओं से तैयार कपड़े की देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी ख़ूब अधिक मांग है। इसी मांग की पूर्ति के लिए लाखों लोग निरंतर काम करते हैं। रोज़गार भी प्राप्त कर रहे हैं और सम्मानजनक आय का भी स्त्रोत बन रही हैं ये कलाएं।

इन कलाओं के संरक्षण के लिए भारत सरकार भी प्रतिबद्ध है। यदि कोई उद्योग इन कढ़ाई कलाओं के साथ लगाया जाता है तो उसे सरकार आर्थिक सहायता भी प्रदान करती है।

इन्हीं कढ़ाई से निर्मित वस्त्रों को भारत से निर्यात भी किया जाता है। देश में तो ख़रीददार बहुत हैं पर विदेशों में मांग अधिकाधिक है। यदि इन कलाओं को उपयुक्त वातावरण, सहयोग और साथ मिलना शुरू हो जाए तो राष्ट्र की आय में बढ़ोत्तरी होगी।

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