वक्त के साथ दुनिया बदलती ही है क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसीलिए विकास के साथ जीवन के प्रति हमारी प्राथमिकताएं, सोच, रहन-सहन और आदतें भी बदल जाती हैं। लेकिन; इन बदली हुई प्राथमिकताओं में कई बार हम उन आदतों व चीजों से अनजाने ही दूर होते जाते हैं जो कभी हमारी ज़िंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थीं। मसलन वे खेल जिनके साथ हम बड़े हुए हैं। पुराने समय के खेल-खिलौनों की जगह अब मोबाइल, वीडियो गेम, कम्प्यूटर ने ले ली है। कहना गलत न होगा कि आज के बच्चों का बचपन और उनके खेल-खिलौने वक्त के साथ पूरी तरह बदल चुके हैं।
वे खेल जिन्हें खेलकर हम और हमारी कई पीढ़ियां बड़ी हुई हैं; अब गुजरे जमाने की बात प्रतीत होती है। जरा याद कीजिये! हमारे बचपन के वो भी क्या दिन थे जब स्कूल से घर आते ही बस्ता पटक कर हम सीधे खेलने के लिए भाग जाते थे। मां चिल्लाती रहती थी कि पहले खाना तो खा लो लेकिन तब खेल के आगे हमें न भूख लगती थी न प्यास। दिन-दिन भर की धमाचौकड़ी, तरह-तरह के खेलों में छोटी-छोटी तकरारें, रूठना-मनाना अब यह सब गायब सा हो चुका है। खेद का विषय है कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने आज के बच्चों से सतरंगी बचपन छीन सा लिया है। आज के ये बच्चे बारिश के पानी में कागज की नाव चलाने और कागज के हेलीकाप्टर उड़ाने का मजा भला क्या जानें! आधुनिक डिजिटल युग के इन बच्चों से गिल्ली-डंडा, पिठ्ठू गरम, पोशम्पा, लंगड़ी टांग, सिकड़ी तथा कंचा, कौड़ी और गुट्टक खेलने जैसे पुरानी पीढ़ी के तमाम खेलों के बारे में पूछना और बात करना ही बेमानी है। आइए चर्चा करते हैं बीती पीढ़ी के कुछ उन चुनिंदा ‘आउटडोर’ और ‘इनडोर’ खेलों की; जिनके बारे में आज की पीढ़ी के अधिकांश बच्चे जानते ही नहीं हैं।
छुपन-छुपाई
अब से दो तीन दशक पूर्व तक ‘छुपन-छुपाई’ बच्चों का एक अत्यंत प्रिय खेल होता था। इसे ‘आइसपाइस’ के नाम से भी जाना जाता है। इस खेल में एक प्रतिभागी दीवार की ओर मुंह करके आंखे बंदकर 100 तक गिनती गिनता है तब तक बाकी सभी साथी आस-पास छिप जाते हैं। फिर गिनती गिनने वाले साथी को एक-एक करके सभी साथियों को खोजना होता है, अगर इस दौरान जो खिलाड़ी खोज रहा है उसे छुपा हुआ कोई भी साथी पीछे से उसके सिर को छू ले तो उसे दोबारा पूरे साथियों को खोजना होता है। इस खेल को चार-छह से लेकर 10-15 बच्चे तक खेल सकते हैं। यह खेल लड़के व लड़कियों द्वारा एक साथ भी खेला जा सकता है और अलग अलग भी।
आंख-मिचौली
‘आइसपाइस’ से मिलता-जुलता एक अन्य मजेदार खेल ‘आंख-मिचौली’ भी बीते दिनों खूब लोकप्रिय था। इस खेल में टोली के किसी एक खिलाड़ी की आंख में एक कपड़े की पट्टी बांधी जाती है और वह खिलाड़ी पट्टी बांधे-बांधे अपने आसपास के खिलाड़ियों को पकड़ने की कोशिश करता है। जिसे वह पकड़ लेता है पट्टी उसकी आंख पर बांधी जाती थी। कहीं-कहीं इस खेल को दूसरे तरीकों से भी से खेला जाता है। जैसे जिसकी आंख में पट्टी बंधी होती है उसके सिर पर बाकी सब एक-एक कर थप्पी देते हैं और आंखों पर पट्टी बांधने वाले खिलाड़ी को थप्पी देने वाले का नाम बताना होता है। यदि उसने सबके नाम सही बता दिये तो दूसरे की आंखों पर पट्टी बांध कर फिर इसी तरह खेल शुरू किया जाता है लेकिन यदि उसने नाम सही नहीं बताया तो उसे फिर से पट्टी बांधनी पड़ती है।
लंगड़ी टांग
इस खेल में एक खिलाड़ी को एक टांग से दौड़कर टोली के दूसरे साथियों को पकड़ना होता है। जो सबसे पहले पकड़ा जाता है फिर वह इसी तरह एक टांग से दौड़कर दूसरों को पकड़ता है और इस तरह खेल आगे बढ़ता जाता है।
ऊंच-नीच
‘ऊंच-नीच’ के खेल में एक खिलाड़ी बाकी साथियों को पकड़ने दौड़ता है और बाकी खिलाड़ी भूमि से किसी ऊंचे स्थान पर चढ़ने के लिए दौड़ लगाते हैं, इस दौरान इन्हें पकड़ने वाला खिलाड़ी ऊंचे स्थान पर चढ़ने से वंचित रह जाने वाले खिलाड़ी को पकड़ लेता है, फिर पकड़ा गया खिलाड़ी इसी तरह दूसरों को पकड़ने के लिए दौड़ता है।
पोशम्पा
पोशम्पा का खेल हमारे बचपन में ज्यादातर लड़कियां खेलती थीं। इस खेल में दो लड़कियां एक दूसरे की उंगलियां पकड़कर हाथों को ऊंचा उठाकर पिरामिड जैसी आकृति बनाती थीं और बाकी सब एक दूसरे का हाथ पकड़कर एक लाइन में उस घेरे से निकलती थीं। इस दौरान एक गीत गाया जाता था- ‘पोशम्पा भई पोशम्पा, लाल किले में क्या हुआ, सौ रुपए की घड़ी चुराई, अब तो जेल में जाना पड़ेगा, जेल की रोटी खाना पड़ेगा…इस दौरान जिसका हाथ छूट जाता वो आउट माना जाता था।
कोड़ा जा मार खाई
इसी तरह कोड़ा जा मार खाई का खेल भी बीती पीढ़ी का लोकप्रिय खेल था। इसमें कई सारे बच्चे जमीन पर एक गोल घेरे में पालथी मारकर बैठते हैं और एक प्रतिभागी एक छोटा सा रुमाल हाथों में छिपा कर इस घेरे के चारों ओर “कोड़ा जा मार खाई पीछे देखे मार खाई” बोलता हुआ चक्कर लगाता है। इस दौरान सभी की आंखों से छिपाकर चुपके से वह रुमाल किसी एक खिलाड़ी की पीठ के पीछे रख देता है। यदि वह खिलाड़ी हाथों से टटोल कर उस रुमाल को उठा लेता है तो उसके स्थान पर रुमाल रखने वाला खिलाड़ी बैठता है और रुमाल लेकर चक्कर लगाता है। मगर यदि वह रुमाल उठा नहीं पाता तो उसे उस रुमाल से प्रतीकात्मक रूप से कोड़े लगाकर आउट कर दिया जाता है।
पिट्ठू
पिट्ठू खेल भी बीते समय का बहुत लोकप्रिय खेल है। इस खेल में दो टीमें होती हैं। एक बॉल और सात चपटे पत्थर, जिन्हें एक के ऊपर एक रख दिया जाता है। एक खिलाड़ी बॉल से पत्थरों को गिराता है। एक टीम का टास्क होता है इन पत्थरों को फिर से एक दूसरे के ऊपर रखना और दूसरी टीम को बॉल मारकर इन्हें गिराना होता है।
विष-अमृत
इसी कड़ी में विष-अमृत का खेल विदेशी खेल लॉक एंड की का भारतीय रूप माना जा सकता है। इस खेल में एक खिलाड़ी के पास विष देने का अधिकार होता है। ये खिलाड़ी जिस भी खिलाड़ी को छू दे, वो अपनी जगह पर फ्रीज़ हो जाता है, जब तक कि उसके साथी खिलाड़ी आकर उसे छू ना दे, यानि अमृत ना दे दे। खेल तब ख़त्म होता है, जब सारे खिलाड़ी पकड़े जाते हैं, और उन्हें अमृत देने के लिए कोई खिलाड़ी नहीं बचता।
सिकड़ी
हमारे समय में यह खेल लड़कियों का प्रिय खेल होता था। इस खेल को खेलने के लिए कहीं भी किसी खुली जगह में जमीन पर खड़िया, कोयले या गेरू मिट्टी के टुकड़े से नौ खानों की आयताकार आकृति बनायी जाती है। पहने तीन-तीन खानों के बाद चौथे खाने को बीच से एक की लाइन बनाकर दो खानों में बांट देते हैं। फिर पहले तीन खानों की तरह छठा खाना होता है। फिर अगले खाने को बीच की लाइन से बांटकर सातवां और आठवां खाना बनाया जाता है। इस खेल को मिट्टी या पत्थर के चपटे टुकड़े को बारी-बारी हर खाने में डाल कर इस गुटके को एक पैर से कूद कूद कर अगले खाने में डालना होता है। अगर इस दौरान यह गुटका या खिलाड़ी का पैर किसी भी लाइन में छू गया तो उसे आउट माना जाता है और दूसरे खिलाड़ी को मौका मिलता है। इस खेल को दो या उससे अधिक खिलाड़ी खेल सकते हैं।
गुट्टक या कौड़ी खेलना
गुट्टक या कौड़ी का खेल बीती पीढ़ी की ग्रामीण युवतियों का पसंदीदा खेल होता था। यह खेल पत्थर या ईंटों के पांच गोल छोटे छोटे टुकड़ों या कौड़ियों से खेला जाता है। इस खेल में एक टुकड़े को हवा में उछालना होता है, उसके नीचे आने तक दूसरे टुकड़े को हाथ में उठाना होता है। इस खेल में बहुत फुर्ती चाहिए होती है क्योंकि हवा में उछलने वाले गुट्टे के नीचे गिरते ही दूसरे गुट्टे को उठाना होता। इस खेल की अलग-अलग प्रक्रियाएं होती हैं। इसे अलग-अलग जगह कई तरीकों से खेला जाता है इससे हाथों की कसरत अच्छी हो जाती है।
गिल्ली-डंडा
क्रिकेट और बेसबॉल से मिलता जुलता ये खेल एक वक्त में हमारे सामाजिक जीवन में क्रिकेट से भी ज़्यादा लोकप्रिय हुआ करता था। यह खेल गिल्ली (लकड़ी के दोनों कोनों पर नुकीले एक छोटे से बेलनाकार टुकड़े) और एक और एक डंडे से खेला जाता है। खिलाड़ियों को गिल्ली में इस तरह हिट करना होता है कि वो जितनी दूर हो सके, उतनी दूर जाकर गिरे।
कंचे खेलना
बचपन में एक कंचे से दूसरे कंचे को निशाना लगाना करीब हर लड़के का पसंदीदा खेल हुआ करता था। गांव के गलियारों में, स्मॉल टाउन के मुहल्लों में, स्कूल के अहाते में, एक वक्त था जब बच्चे अक्सर कंचे खेलते दिख जाते थे। हालांकि कंचे पूरी तरह से बच्चों की ज़िंदगी से गुम नहीं हुए हैं, लेकिन पहले जितने लोकप्रिय नहीं रहे।
लूडो व सांप सीढ़ी और कैरम
हालांकि अन्य खेलों की अपेक्षा ये खेल अभी भी प्रचलन में है लेकिन आज के अत्याधुनिक तकनीकी परिवेश में जीने वाले बच्चों का रुझान इन खेलों के प्रति कम ही दिखायी देता है। हां लूडो व सांप सीढ़ी हार्डबोर्ड की जगह अब मोबाइल पर जरूर खेलता देखा जा सकता है।