कर्तृत्व, नेतृत्व व मातृत्व का आदर्श

नारी विमर्श से ही सनातन संस्कृति की भारतीय परम्परा को मजबूत करना है। नारी ही समाज, परिवार व राष्ट्र की आधारशिला है। जिसका एक उदाहरण जीजाबाई के मातृत्व, अहिल्याबाई के कर्तृत्व तथा लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में मिलता है।

आदौ संघट्येद् राष्ट्रं, ततः कांक्षेत् समुन्नतिम्

संघशक्तिविना राष्ट्रं, कुतो वा कुत उन्नतिम्॥

राष्ट्र सेविका समिति- राष्ट्र के लिए स्वयंप्रेरणा से कटिबद्ध बहनों का अर्थात सेविकाओं का एक सांस्कृतिक संगठन अर्थात 1936 से यह कार्य निरंतर चलता आ रहा है। दिन-प्रतिदिन नई-नई योजनाओं के साथ राष्ट्रहित के अनेकानेक कामों में अग्रसर है। वर्धा में वंदनीय मौसीजी यथा लक्ष्मीबाई केलकर द्वारा 1936 में प्रारंभ किया गया कार्य आज सम्पूर्ण विश्व में फैल रहा है। इस कार्य से जुड़ी बहनों का जीवन नई प्रेरणा, उमंग, आशा, विश्वास, हिंदुत्व के भाव से सुगंधित हो रहा है।

जीवन में हमें हमेशा कोई व्यक्ति आदर्श के रूप में सामने चाहिए होता है। समिति ने भी सभी सेविकाओं के सम्मुख तीन आदर्श रखे हैं।

  1. मातृत्व का आदर्श – राजमाता जीजाबाई

सूर्य से पहले अभिवादन करें पूर्व दिशा को, शिवबा से पहले अभिवादन जीजामाता को ऐसा कहा गया हैं, सूर्य प्रत्यक्ष प्रकाश देता है, परंतु कुछ प्रकाश ऊर्जा हमें अपनी मां देती है। जिजाऊ साहब के पुत्र शिवबा ने स्वयं के पराक्रम से हिंदवी साम्राज्य निर्माण किया परंतु जिसकी कोख से इस तेजस्वी वीर ने जन्म लिया और प्रेरणा ली उसको प्रणाम करना अत्यंत आवश्यक है हमें जिजाऊ साहेब जैसी मां बनना है इसलिए उन्हें मातृत्व के आदर्श के रूप में रखा है। शिवाजी महाराज के जन्म से पूर्व आठ शतक तक, मुस्लिमों के सतत आक्रमणों के कारण हिंदू समाज दुर्बल और सत्वहीन बन गया था। उसकी प्रतिकार शक्ति लुप्त हो गई थी। गुलामी की चुभन भी मिटती जा रही थी। यही हमारी नियति है, भगवान रखेगा वैसे रहना है ऐसी मानसिकता बन गई थी। हम स्वामी हैं, यह भावना समाप्त होकर किसी न किसी मुस्लिम राजा की नौकरी करना और उसका पक्ष लेकर दूसरे राजाओं से लड़ना अर्थात हिंदुओं से ही लड़ना, उनको काटना मारना, मुस्लिम राजा की विजय में अपनी विजय मानना, यही मानसिकता बन गई थी। हम हिंदू हैं यह कहलाने में भी हीनता का भाव होता था। राजा मुसलमान ही होगा, हम राजा नहीं बन सकते, ऐसा शुद्र भाव हिंदू समाज में भरा था। हिंदुओं की उदासीनता के कारण विस्मृति में खोई अस्मिता को जगाने वाली, हिंदू राष्ट्र का चाणक्य नीति के अनुसार पुनर्निर्माण करने वाली, हिंदुस्तान को यवन भूमि बनने से रोकने वाली एक दृढ़ संकल्पित महिला 17वीं शताब्दी में जन्मीं, जिनका नाम था जीजाबाई। बाल्यकाल से ही हिंदू देवालयों, श्रद्धा स्थानों का मुसलमानों द्वारा अपमान, महिलाओं का अपहरण यह घटनाएं वह नित्य देखती थी। यह देखकर उनका मन व्याकुल हो उठता। किसकी विजय के लिए हिंदू मर रहे और मार रहे हैं? यह शौर्य वे अपनी स्वतंत्रता के लिए क्यों नहीं दिखा सकते? उनको कौन प्रेरित करेगा? उसके इन प्रश्नों का उत्तर देने में कोई भी समर्थ नहीं था। विवाह के पश्चात जीजाबाई जब शाहजी राजे भोसले की धर्मपत्नी बनीं तब उन्होंने संकल्प लिया कि मुझे स्थिति बदलने वाला पुत्र निर्माण करना है। यह ध्यान में रखते हुए जीजाबाई ने दादोजी कोंडदेव की सहायता से शिवबा को युद्ध कला के साथ-साथ रामायण-महाभारत के माध्यम से जीवन दृष्टि भी प्रदान की। दृढ़ धर्मनिष्ठा महापुरुषों के प्रति श्रद्धा, शुद्ध चारित्र्य, स्वाभिमान आदि गुणों का बीजारोपण शिवबा के मन में जिजाऊ साहब ने किया। पराई स्त्री मां के समान होती है। उसका अपमान राष्ट्र का अपमान है। यह संस्कार जीजाबाई ने शिवबा को दिए। हिंदू समाज के गौरव और स्वाभिमान के लिए अपने पुत्र को योग्य बनाने वाली और हिंदवी साम्राज्य की प्रेरणा स्रोत राजमाता जीजाबाई को समिति ने मातृत्व के आदर्श के रूप में स्वीकार किया।

  1. कर्तव्य का महामेरु- देवी अहिल्याबाई होलकर

राष्ट्र सेविका समिति ने प्रारंभ काल से ही देवी अहिल्याबाई को कर्तृत्व के आदर्श के रूप में माना है। गंगाजल के समान शुद्ध, पुण्य श्लोक देवी, मातोश्री आदि श्रेष्ठ उपाधियों से गौरवान्वित देवी अहिल्याबाई अपने इतिहास का एक स्वर्ण पृष्ठ है। देवी अहिल्याबाई के प्रति जन सामान्य की श्रद्धा आदर तथा अपनेपन की भावनाएं प्रतिबिंबित होती है। एक श्रेष्ठ प्रशासक के रूप में देवी अहिल्याबाई ने अपने संस्थान का कार्यकाल अच्छे से संभाला। अनेक संकटों का सामना किया। अहिल्याबाई ने अपनी सेना में महिला पथक को तैयार किया। वे जानती थीं की अपने पुरखों ने बहुत परिश्रम और पराक्रम से यह राज्य प्राप्त किया है। इसीलिए आक्रमण करने वालों को मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए, यह बात वे अपनी सेना के मन में भरती थीं। अहिल्याबाई के संस्थान में न्याय व्यवस्था का कड़ाई से पालन किया जाता था। समाज के किसी भी व्यक्ति को न्याय मिलना बहुत सरल था एवं राज्य में समानता थी। उनकी न्याय पद्धति पर नागरिकों को इतना विश्वास था कि उनकी आज्ञा ना मानना वे पाप समझते थे। उन दिनों भील लोगों का उपद्रव बड़ा था। उनको कुछ सामंतो का भी आश्रय था। अहिल्याबाई ने उनके मुखिया को दरबार में बुलाया और लूट-मार करके यात्रियों को परेशान करने का कारण पूछा। उनका उत्तर था, सीधे रास्ते से जीने का कोई साधन न होने के कारण वे यात्रियों को लूटते हैं। यह उत्तर सुनकर उन्हें शस्त्र, वेतन और आदर देने की इच्छा देवी अहिल्याबाई ने प्रकट की और इन्हीं भीलों को यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी। इस तरह से लुटेरे भील सैनिक बनें। तीर्थ यात्रा करते समय देवी अहिल्याबाई ने जब भग्न मंदिरों को देखा तब उनके मन को बहुत पीड़ा हुई। इसलिए इन मंदिरों के पुनर्निर्माण एवं मंदिरों में फिर से पूजन, धार्मिक ग्रंथों का पठन इत्यादि योजना अहिल्याबाई ने बनाईं। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से बद्रीनारायण से लेकर रामेश्वर तक, द्वारका से लेकर भुवनेश्वर तक अनेक मंदिरों का पुनर्निर्माण किया। धर्मस्थल शासनावलंबी ना हो, अपितु स्वावलंबी हो, इसलिए मंदिरों को भूखंड दान दिया। इस तरह धार्मिक कार्य का संपूर्ण व्यय देवी अहिल्याबाई ने अपने व्यक्तिगत संपत्ति से ही किया। जगह-जगह पर बांध बनाना, पानी के लिए कुओं की व्यवस्था करना और हस्तकला, हस्त उद्योग को प्रोत्साहन देना ऐसे अनेक समाज उत्थान के काम देवी अहिल्याबाई ने किए। देवी अहिल्याबाई ने अपनी राजधानी को सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बनाने के प्रयास किया। उनका बेजोड़ जीवन और उनकी कर्मठता सभी सेविकाओं को प्रेरणा देगी।

  1. नेतृत्व का आदर्श तेजस्वी ज्योति – रानी लक्ष्मी बाई

 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को अपने नेतृत्व से नया आयाम देने वाली साहसी सूर्यव्रती का चरित्र नित्य प्रेरणा देने वाला है। उनकी तेजस्विता स्वदेशाभिमान, स्वातंत्र्य प्रेम अभूतपूर्व था। मनु का जन्म वाराणसी में हुआ। परंतु विवाह के पश्चात मनु रानी लक्ष्मीबाई बनकर झांसी में आईं। पेशवाओं के सान्निध्य से उसके मन में स्वतंत्रता का स्फूलिंग सुलग उठा। उसकी प्रलयंकारी ज्वाला ही 1857 के स्वातंत्र्य समर में प्रकट हुई। विवाह के पश्चात झांसी को ही अपनी मां मानकर लक्ष्मीबाई उसकी सेवा करने लगी। उनके पति महाराज गंगाधर राव के राज्य में शासन तथा न्याय की उत्तम व्यवस्था थी। कलाकारों को आश्रय मिलता था। उनके पास कई हाथी, घोड़े घुड़सवार थे। स्थान स्थान पर बगीचे एवं तालाब थे। पति के निधन के बाद लक्ष्मीबाई पर कुठाराघात हुआ। परंतु उन्होंने खुद को संभालते हुए लॉर्ड डलहौजी का दत्तक विधान ना मंजूर करने के खिलाफ जोरदार हल्ला बोला। उन्होंने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। अंग्रेज सेना जब झांसी पर चढाई करने आई  तब उन्होंने कहा ‘मेरी झांसी कभी न दूंगी’। रानी लक्ष्मीबाई अत्यंत तेजस्वी थी। उनके कुशल नेतृत्व, नीति से न्याय करना, गुणवंत का सम्मान करना, कर्मचारियों से भी सम्मानपूर्वक व्यवहार करना, निर्भयता, साहस  इत्यादि गुणों के कारण 1857 के स्वतंत्र समर का नेतृत्व सहज ही उनके पास आया। सैनिकों के मन में उनके प्रति आदर, श्रद्धा थी और सभी लोग उन्हें मान सम्मान से देखते थे। क्रांति युद्ध में सतत अग्रेसर रहकर हजारों वीरों को प्रेरणा देने वाली रानी लक्ष्मीबाई की युद्ध कुशलता किसी पुरुष से कई गुना श्रेष्ठ थी। उनकी तेजस्विता का प्रभाव शत्रु पर भी पड़ा था। इसलिए अंग्रेज उनसे बहुत डरते थे। सामान्य लोगों से वह घुलमिल कर बातचीत करती थी। उनके सुख-दुख की चिंता करती थी। अपनों के लिए वह ममतामयी मूर्ति थीं। वे राष्ट्रीय भावना से प्रेरित थीं। जब वे हाथ में तलवार लेकर रण रागिनी बनकर बिजली जैसी चमकती थी, तब शत्रु थर्रा जाते थे। इसीलिए राष्ट्र सेविका समिति ने नेतृत्व के आदर्श के रूप में रानी लक्ष्मीबाई को माना।

हम सब सभी बहनें इन तीनों आदर्शों से प्रेरणा लेकर उनके जैसे बनने का प्रयास करें। उनके गुण हममें आएं। हम अपने व्यवहार में उनको लाएं और अपनी भारत माता को विश्व गुरु बनाएं। इसीलिए ऐसी श्रेष्ठ महिलाओं का चरित्र कथन एवं अनुसरण समिति की सेविकाएं करें यह अपेक्षा है।

                                                                                                                                                                                     डॉ. लीना गहाने

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