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कमजोर होतीमहिला आंदोलन की धार

कमजोर होतीमहिला आंदोलन की धार

by अमोल पेडणेकर
in महिला, मार्च २०१६, सामाजिक
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स्वतंत्रता आंदोलन की तरह ही अपने अधिकारों के लिए महिलाओं ने बड़े पैमाने पर आंदोलन किए हैं। ‘इंसान’ के रूप में जीने का अधिकार पाने के लिए शुरू हुई यह ल़ड़ाई घर की दहलीज पार गई थी। अस्तित्व के संघर्ष ने आगे अस्मिता का रूप ले लिया। साक्षर होने के बाद महिलाओं ने समान हक प्राप्त करने की ल़ड़ाई भी जीती। सावित्रीबाई ङ्गुले, रमाबाई रानड़े आदि ने महिला आंदोलन के बीज बोए। इसके बाद कई महिलाओं के द्वारा उस बीज को वटवृक्ष के रूप में ख़ड़ा करने का काम किया जाने लगा। विविध आंदोलनों के माध्यम से भी महिलाएं अपने अधिकार के लिए ल़ड़ने लगीं थीं। स्वतंत्रता आंदोलन की तरह ही सन १९७० से १९८० का दशक भारत में आंदोलनों, ह़ड़तालों और संघर्षों से भरा रहा। शिक्षा के माध्यम से प्रगति के शिखर तक पहुंचने वाली महिलाओं ने आपातकाल से लेकर आरक्षण तक, दहेज प्रथा से लेकर महिला अत्याचार तक, महिला अधिकार से लेकर महिलाओं को उन्नति का मार्ग दिखाने के लिए स्त्री आंदोलनों का जन्म हुआ। १९८० से १९९० का दशक भी उथल-पुथल और बदलावों से भरा रहा। इसी दशक में तकनीकों में हुई क्रांति और वैश्वीकरण की जगमगाहट मानव जीवन पर छा गई। इन बदलावों के दौर में भी महिला आंदोलनों की आवाज गूंजती रही। परंतु पुरानी पारम्परिक समस्याओं के समाधान हेतु ल़ड़ते समय नई चुनौतियों से ये आंदोलन अनभिज्ञ रहे या ङ्गिर किसी विशेष वर्ग तक ही मर्यादित रहे। ङ्गिर भी दैनंदिन जीवन की समस्याओं से सम्बंधित प्रश्नों के लिए आंदोलन चलते ही रहे।

समाज में महिलाओं पर होने वाले अन्याय ध्यान में आने पर उनके निवारण हेतु और उनमें सकारात्मक परिवर्तन हेतु महिलाओं के संगठन बनने लगे। कुछ परंपराओं, प्रवृत्तियों एवं रीतिरिवाजों को बदलने हेतु महिला संगठन यांत्रिक रूप से आंदोलन करने लगे। बीसवीं सदी के १९७० से १९९० इन दो दशकों में ऐसे विविध पारिणामकारक महिला आंदोलनों का जन्म हुआ और महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के निवारणार्थ इन आंदोलनों ने महत्वपूर्ण कार्य किया। ‘‘महिलाएं भी इन्सान हैं और पुरुषों की तरह समाज की एक महत्वपूर्ण घटक है’’ यह बात स्त्री-पुरुष दोनों को प्रबल रूप से समझाने का काम इन दो दशकों के स्त्री आंदोलनों ने किया है।

परंतु लगता है कि ९० के दशक से ही महिला आंदोलन धीमा होता गया। इस कालखंड़ में एक तरङ्ग महिलाएं आंदोलन से दूर जाती हुई दिखती हैं तो दूसरी ओर असंगठित क्षेत्र की महिलाएं बड़े पैमाने पर आंदोलन से जुड़ती हुई जान पड़ती हैं। महिला सुरक्षा के प्रश्न पर युवतियां आगे आ रही हैं। कचरा बटोरने वाली महिलाएं, बर्तन-झाडू पोंछा करने वाली महिलाएं, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, महिला मजदूर इ. एवं इस प्रकार के क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएं इस आंदोलन में आ रही हैं। इससे इस आंदोलन को थोड़ा बहुत बल मिल रहा है। पहले महिला आंदोलन में एक उत्स्ङ्गूर्तता थी। अपना घरबार संभालकर समाज कार्य की इच्छा रखने वाली महिलाएं, अन्याय पीड़ित महिलाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझने वाली महिलाएं, स्त्रियों पर होने वाले अन्याय से व्यथित होने वाली महिलाएं आंदोलनों हेतु आर्थिक सहायता करने वाली महिलाएं ऐसी अलग-अलग प्रकार की महिलाएं एकत्र हुईं एवं उनके अलग-अलग गुट निर्माण हुए। इस विविधतापूर्ण महिला आंदोलन की जैसी शक्ति थी वैसी ही उसकी मर्यादाएं भी थीं। इस कारण गत १५-२० वर्षों में इस आंदोलन की धार में कमी महसूस की जा ही है। आंदोलन प्रभावहीन होता दिखाई दे रहा है। इसके पीछे के कारणों का यदि विचार करें तो ध्यान में आता है कि इन आंदोलनों का स्थान राजनीतिक दलों की महिला शाखाएं, एन.जी.ओ, अल्पबचत चलाने वाली संस्थाओं (स्व-सहायता समूह) ने ले लिया है। महिला संगठनों में सक्रिय रूप से वही कार्यकर्ता रहीं जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं। समाज कार्य जिनके कार्यक्षेत्र का एक भाग है ऐसे एन.जी.ओ इसमें कार्यरत हुए। महिलाओं की समस्याओं की ओर केवल आर्थिक दृष्टि से विचार करने वाले इन एन.जी.ओ. की सीमा केवल उस निर्धारित प्रोजेक्ट को पूर्ण करने तक सीमित रही। ये संगठन महिलाओं की किसी एक समस्या के लिए इकट्ठे होते तथा विरोध दर्शाते। परंतु बाद में उन समस्याओं के निवारण हेतु सतत कार्य करने में यह संगठन पीछे रह गए। महिलाओं की समस्या की ओर आजकल टुकड़ों-टुकड़ों में देखा जा रहा है, समस्त स्त्री वर्ग के विकास का विचार उनमें नहीं है। अधिकतर स्त्री संगठनों ने अपनी नीति के एक भाग के रूप में स्वयं को राजनीति से दूर रखा। अपनी मांगें पूरी करवाने, उसके लिए निरंतर लगे रहने हेतु सक्रिय महिलाओं का बड़ा सहभाग होना महत्वपूर्ण था, परंतु ऐसा दिखाई नहीं देता। विविध राजनैतिक प्रश्नों पर स्त्री संगठनों के नेतृत्व ने कभी गहराई से विचार नहीं किया इसलिए चुनाव में चुन कर आई हुई महिलाओं व महिला आंदोलन की कार्यकर्ता महिलाओं में कभी सुसंवाद नहीं हुआ। कुछ महिला संगठनों की अत्यधिक पराकाष्ठा की भूमिका के कारण ऐसी प्रतिमा निर्माण हुई कि वे पुरुषों के विरोध में हैं। महिला आंदोलन की कार्यकर्ता याने परिवार को तोड़ने वाली महिला, यह टिप्पणी भी की जाने लगी।

एक गणित सभी जगह लागू होता है कि जब तक हम इतिहास में नहीं जाएंगे तब तक वर्तमान जांचा नहीं जा सकता और जब तक वर्तमान के गुणदोष ध्यान में नहीं आते तब तक भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। महिला संगठन इससे अछूते नहीं हैं। सन १९७५ संपूर्ण विश्व में महिला आंदोलन के वर्ष के रूप में जाना जाता है। महिलाओं कीविविध समस्याओं पर ङ्ग्रांन्स, जर्मनी, अमेरिका, चीन सरीखे देशों में आंदोलन होकर समाज व्यवस्था में बदलाव हो रहे थे। इस कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ के ध्यान में आया कि महिलाओं की समस्याएं विश्वव्यापी हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने १९७५ को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में घोषित किया एवं ८ मार्च महिला दिन निश्चित किया गया। इस घटना के ५० वर्ष बीत जाने पर भी महिलाओं की कई समस्याएं अब भी अनसुलझी हैं। ८ मार्च १९७५ का दिन भारत में भी प्रथम महिला मुक्ति दिवस के रूप में मनाया गया। तब से पिछले ५० वर्षों के महिला मुक्ति आंदोलन का लेखाजोखा देखना महत्वपूर्ण है।

मुख्यत: महिलाओं पर होने वाले अत्याचार का स्वरूप बदल रहा है। उसका स्वरुप अत्यंत जटिल हो गया है। कोई भी प्रश्न अलग नहीं रहा। सभी प्रश्न आपस में गूंथे हुए दिखते हैं। उनको अलग-अलग करने के लिए भी किसी के पास समय नहीं है। जीवन इतना जटिल एवं भागमभाग हो गया है कि किसी को भी एकाध प्रश्न के लिए रुकने के लिए समय नहीं है। किसी प्रश्न का तत्कालीन हल निकालने या उस प्रश्न के साथ आगे बढ़ने की भूमिका आजकल महिला आंदोलनों की हो गई है। जब बलात्कार सरीखे घृणास्पद अपराध का विरोध केवल मोमबत्ती जलाकर व्यक्त होता है तब ग्लैमर के प्रकाश में महिला आंदोलन गुम होने की बैचेनी निर्माण होती है। १९७५ से १९८० का कालखंड़ स्त्री आंदोलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। उस काल में देश की राजनीति भले ही अस्थिर हो परंतु सामाजिक आंदोलनों में स्वत: होकर उस्ङ्गूर्त रूप से भाग लेने वाले नौजवान स्त्री-पुरुषों की संख्या उल्लेखनीय थी। किसी भी आंदोलन को यशस्वी बनाने हेतु स्वयंप्रेरणा से काम करने वाले युवा कार्यकर्ता चाहिए। वे अंतरात्मा से आंदोलन से जुड़े रहते हैं। आजकल महिला आंदोलन में ठहराव आ गया है। कारण इस आंदोलन में तरुण-तरुणियों का अभाव बड़े पैमाने पर देखा जा सकता है। नए विचार एवं नए आंदोलनों का प्रवाह थम सा गया है। परंतु १९७० से ये दो दशक महिला संगठनों के कार्य एवं आंदोलनों से गुंजायमान रहे। वह करिश्मा वर्तमान महिला आंदोलनों में भी नहीं दिखता। काल के प्रवाह में महिला संगठन भविष्य में शायद बदले भी; परंतु वर्तमान में तो उनकी धार मंद हो गई प्रतीत होती है।

मो. 9869206106

Tags: empowering womenhindi vivekhindi vivek magazineinspirationwomanwomen in business

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