फिर दूसरा रोहित न हो!


रोहित वेमुला सरीखे समाज के निम्म वर्ग के तरुणों को गलत राह दिखाने का काम जिन लोगों ने किया वे ही वास्तव में उसकी आत्महत्या के लिए जिम्मेदार हैं। तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी एवं सेक्यूलर लोग अब उसकी आत्महत्या पर राजनीति की रोटी सेंक रहे हैं। ….वास्तव में किसी भी विद्यार्थी को विश्वविद्यालय में आत्महत्या करनी पड़े यह राष्ट्रीय पाप समझना चाहिए। हमें बच्चों को पुरुषार्थी बनाना है और उस तरह के परिवर्तन हमारी शिक्षा व्यवस्था में करने पड़ेंगे ताकि और कोई रोहित न बने।

समाचारपत्रों में आजकल रोहित वेमुला की खूब चर्चा है। चर्चा है कहने की अपेक्षा चर्चा कराई जा रही है। वैसे तो वह एक सामान्य विद्यार्थी था। देश में उच्च शिक्षा लेने वाले लाखों विद्यार्थी हैं। इन लाखों में वह एक था। परंतु उसने आत्महत्या की, अतः वह लाखों में एक हो गया। उसे आत्महत्या करनी पड़ी, कारण हैदराबाद विश्वविद्यालय ने उसके सहित पांच विद्यार्थियों को छः माह के लिए निलंबित कर दिया, उसकी स्कॉलरशिप बंद हो गई। उसको उकसाने वाले एवं उसके दिमाग में विद्रोह भरने वाले गायब हो गए। इनमें से किसी ने भी उसकी चिंता नहीं की। स्कॉलरशिप बंद होने के कारण उसे आर्थिक तंगी निर्माण हुई। उसे दूर करने के लिए कोई भी आगे नहीं आया। अंत में जीवन से निराश होकर उसने आत्महत्या की। अपनी आत्महत्या की जिम्मेदारी उसने किसी पर नहीं डाली। उसकी इस ईमानदारी को प्रणाम करना चाहिए।

रोहित वेमुला आंबेड़कर एसोसिएशन का सदस्य था। यह आंबेड़कर स्टूडेन्ट एसोसिएशन चलाने वाले सभी वामपंथी विचारों के हैं, हिंदुत्व विरोधी हैं। हिंदुत्ववादियों से लड़ने हेतु उन्हें पिछड़ा वर्ग एवं दलित जाति के लोग पैदल सेना के रूप में उपयोग हेतु चाहिए होते हैं। 18 से 25 साल की उम्र यह अत्यंत भावनात्मक होती है, रोमांटिक होती है। यह रोमांटिज्म जैसे प्रेम के रूप में प्रकट होता है वैसे विचार प्रधानता की ओर भी प्रकट होता है। रोहित वेमुला की उम्र को देखते हुए वह वैचारिक रोमांटिज्म की बलि चढ़ गया ऐसा प्रतीत होता है।

उसे आत्महत्या करनी पड़ी। मुनष्य जीवन में आत्महत्या यह सबसे खराब काम समझा जाता है और उसी समय वह पौरुषहीन कृत्य भी समझा जाता है। जीवन हमेशा संघर्षमय होता है। उंगलियों पर गिनने लायक लोगों को छोड़ दें तो हरेक को जीवन में संघर्ष करना पड़ता है। उसमें यशस्वी होना पड़ता है। जिस आंबेड़कर स्टुडेंट एसोसिएशन का वेमुला सदस्य था उसे एसोसिएशन के नेताओं ने रोहित को कभी आंबेड़कर समझाया ही नहीं। जिस कारण से रोहित ने आत्महत्या की वैसे कारण अनेक बार बाबासाहब के जीवन में आए थे। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ते समय पास में पैसे न होने के कारण डबलरोटी के दो टुकड़े, एक पापड़ और एक कप दूध पीकर बाबासाहेब ने जीवन निर्वाह किया था, क्योंकि उन्हें अपने देश के लिए जीना था। अपने समाज के जो प्रश्न थे उनके उत्तर ढूंढ़ने हेतु जीना था।

शिक्षा पूरी करने के बाद जब बाबासाहब समझौते के अनुसार बड़ौदा रियासत में नौकरी हेतु गए तो वहां भी उन्हें मरणप्राय यातनाएं झेलनी पड़ीं। रहने के लिए कमरा नहीं मिल रहा था एवं कार्यालय में तो रोज ही अपमान होता था। बाबासाहब को इसका दुःख हुआ। एक पेड़ के नीचे बैठ कर बाबासाहब बहुत रोए एवं अपना दुःख हल्का किया। उन्होंने मन में संकल्प किया कि ऐसी परिस्थिति मेरे बंधुगणों पर नहीं आनी चाहिए। उसके लिए मैं अंतिम दम तक प्रयत्न करूंगा। रोहित वेमुला को शायद ये प्रसंग मालूम नहीं थे। यदि मालूम होते तो बाबासाहब को अपमानित करने वाला आत्महत्या का मार्ग उसने न चुना होता। उसने भी समाज बदलने का संकल्प किया होता, पुरूषार्थ का आवाहन किया होता।

रोहित वेमुला सरीखे समाज के निम्म वर्ग के तरुणों को गलत राह दिखाने का काम जिन लोगों ने किया वे ही वास्तव में उसकी आत्महत्या के लिए जिम्मेदार हैं। इसाप नीति क्या है? यह कथा देखिए- “युद्ध चालू है। युद्ध में ढोल एवं युद्ध वाद्य जोर-जोर से बजाए जा रहे हैं। शत्रु के सैनिक आते हैं एवं इस बैंड पथक को पकड़ते हैं। सेनापति कहता है, इन सब को तुरंत मार दो। तब वे वादक कहते हैं कि महाराज हम तो लड़ाई नहीं कर रहे हैं, हमारे हाथ में तो शस्त्र भी नहीं है, फिर हमें क्यों मार रहें है? सेनापति कहता है, तुम लड़ नहीं रहे हो यह सत्य है, परंतु सैनिकों को लड़ने की प्रेरणा दे रहे हो, उनमें जोश भर रहे हो इसलिए पहले तुम्हें ही मारना चाहिए।” रोहित वेमुला सरीखे भावनाप्रधान विद्यार्थी का दिमाग जिन लोगों ने भ्रष्ट किया वे इसाप की इस कथा के वादक हैं। इसाप उन्हें मृत्युदंड देता है। लोकतंत्र में यह संभव नहीं है; परंतु समाज को उन्हें दंड देना चाहिए।

आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन यह नाम लेकर डॉ.आंबेडकर के विचारों की हत्या करने का काम यह संस्था करती है। पू.बाबासाहब के विषय में जिन लोगों के मन में श्रद्धा है, भक्ति है उन्हें यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। महाराष्ट्र में हम सामाजिक समानता के नाम पर कार्य करते हैं। बाबासाहब के नाम एवं विचारों का खयाल रखते हैं, परंतु हम पर भी शंकित नजर रखने वाले आंबेडकरवादी विचारक हैं, आंदोलन करने वाले हैं, राजनीतिक नेता हैं। आंबेडकर नाम कौन लगाता है, उसके पीछे कौन सी मशीनरी है, कौन से मुस्लिम संगठन हैं, कौन से वामपंथी संगठन हैं यह सावधानपूर्वक ढूंढ़ना पड़ेगा। इस विषय में यदि सावधानी नहीं बरती गई तो बाबासाहब के अनुयाइयों के नक्सली होने में देर नहीं लगेगी, अज्ञानवश आईएसआई के हाथ का खिलौना बनने की संमावना भी नहीं नकारी जा सकती। इन लोगों द्वारा इतनी कुशलता से जाल बुना जाता है कि उसमें हम फंसे हैं यह भी पता नहीं चलता।

रोहित का ही विचार करें। मुंबई हमलों के दोषी याकूब मेमन को फांसी हुई। उसे श्रद्धांजलि देने हेतु सभा हुई। आंबेडकर स्टुडेंट एसोसिएशन के विद्यार्थी उसमें सम्मिलित हुए। पूज्य बाबासाहब अंतर्बाह्य राष्ट्रभक्त थे। देशद्रोहियों का उन्होंने अत्यंत तीव्र शब्दों में निषेध किया था। जिन्ना उनके समकालीन थे। दोनों गांधी विरोधी थे। परंतु बाबासाहब ने कभी भी जिन्ना से मुलाकात नहीं की एवं न उनसे हाथ मिलाया। पाकिस्तान बन गया यह अच्छा हुआ यह उनका कहना था। वहां के मुसलमान यदि भारत में रहते तो हिंदू स्वतंत्र तो गए होते परंतु मुक्त नहीं होते। यह वाक्य उनके ‘थॉट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट’ में है। मुसलमानों के संबंध में बाबासाहब के विचार अत्यंत स्पष्ट एवं देशहित में थे। यदि रोहित को यह बताया गया होता तो मुझे नहीं लगता वह ऐसे कार्यक्रम में शामिल होता।

हैदराबाद विश्वविद्यालय में इस प्रकार की देशविघातक कई बातें होती रहती हैं। उसमें एक ‘बीफ फेस्टिवल’ का कार्यक्रम था। डॉ.बाबासाहब ने ‘प्राचीन भारत का व्यापार’ विषय पर एक निबंध लिखा है। उसमें वे कहते हैं कि भारत में खेती अत्यंत समृद्ध थी। गाय और बैल खेती के लिए अत्यंत उपयुक्त थे। उनकी उपयुक्तता को ध्यान में रख कर गो हत्या बंदी की गई। लोग केवल गोहत्या बंदी से गाय मारना बंद नहीं करेंगे इसलिए उसके पीछे धर्म का अधिष्ठान खड़ा किया। बाबासाहब के नाम से प्रारंभ संस्था का ‘बीफ फेस्टिवल’ आयोजित करना यह बाबासाहब का अपमान है।

पूज्य बाबासाहेब ने भगवान गौतम बुद्ध को अपना महान गुरु माना। हम सब जानते हैं कि सन 1956 में नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ उन्होंने बुद्ध धर्म स्वीकार किया था। भगवान गौतम बुद्ध अहिंसा के पुजारी थे। गोहत्या का उन्होंने अत्यंत तीक्र शब्दों में निषेध किया था। गाय के संबंध में उनके विचार उन्हीं के अपने शब्दों में “गाय अपने माता-पिता, बंधु के समान है। वह हमारी परम मित्र हैं। उनसे उत्तम औबधियों का निर्माण होता है। परंतु धीरे-धीरे राजा का वैभव, उनकी सुंदर स्त्रियां, सुंदर रथ देखकर ब्राह्मणों में परिवर्तन हुआ। उन्हें भी स्त्री, गोधन का मोह निर्माण हुआ। तब उन्होंने कुछ मंत्रों की रचना की। ईश्वाकू राजा के पास जाकर उससे कहा कि तुम्हारे पास अपार धन है, तुम यज्ञ करो। राजा ने उनके कहे अनुसार यज्ञ किया और ब्राह्मणों को सुंदर स्त्रियों, रथों, घोड़ों,गायों का दान किया। ब्राह्मणों ने इसके बाद ऐसे संपत्ति लोभ हेतु कई यज्ञ करवाए और उसमें लाखों गायों का वध किया।

गायों का वध देखकर देवता, पितर एवं इंद्र ने कहा कि यह अधर्म है। गायों की हत्या होने के पूर्व केवल तीन ही रोग थे। इच्छा, भूख एंव बुढ़ापा। पशुहत्या के कारण उनकी संख्या अंठानबे हुई। इस नीच कर्म के कारण क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों में फूट पड़ गई एवं उनकी अवनति हुई।”

रोहित वेमुला एक विद्यार्थी था। विद्यार्थी यही उसकी पहचान और यही उसकी जाति। परंतु आज देश के सब प्रगतिशील वामपंथी एवं सेक्यूलर लोग उसकी जाति ढूंढ रहे हैं। वह दलित था, वह वडार था, वह ओबीसी था ऐसी अलग अलग खोज की गई है। इन खोजों पर गंदी जातीय राजनीति चल रही है। जो इस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं। वे देश को उपदेश देते हैं कि हमें जातिमुक्त होना चाहिए। जाति सामाजिक एकता की मारक है। दूसरी ओर यही लोग जिसन आत्महत्या की है उस पर अपनी जातिवादी, राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं। इस पूरे प्रकरण को जातीय रंग देने की कािेशश हो रही है। उनके पीछे कोई पागलपन न होकर राजनीतिक धूर्तता एवं राजनीतिक दुष्टता है। परंतु यह राजनीतिक दुष्टता देश का नुकसान करने वाली है। इसलिए इसकी जितनी निंदा की जाए उतना कम है।

रोहित की आत्महत्या को लेकर अनेक सकारात्मक बातें की जा सकती थीं। हमारे विश्वविद्यालय विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय होने चाहिए। नालंदा एवं तक्षशिला विश्वविद्यालयों की दिव्य एवं भव्य परम्परा पुनर्जीवित करनी चाहिए। उसके लिए प्रत्येक विश्वविद्यालय में ज्ञान देने वाले ज्ञानमहर्षि चाहिए। विद्यार्थियों में जानने की ललक होनी चाहिए। वे ज्ञान की साधना करने वाले होने चाहिए। इस हेतु जो साधन व धन आवश्यक है उसकी पूर्ति शासन एवं समाज को करनी चाहिए। विश्वविद्यालयों में विद्याध्ययन के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। विश्वविद्यालयों के छात्र संगठन राजनीतिक न हो। प्रत्येक विद्यार्थी के जीवन निर्वाह की चिंता विश्वविद्यालय को करनी चाहिए। विद्यार्थीयों की गुणवत्ता उनकी ज्ञानजिज्ञासा से परखनी चाहिए। वहां जाति वर्ग का कोई काम नहीं। विश्वविद्यालय का सारा वातावरण समता एवं भातृभाव का होना चाहिए। क्योंकि जो संस्कार यहां होंगे वे संस्कार लेकर ही विद्यार्थी समाज जीवन में प्रवेश करेगा। वह उसकी पोटली है। देश के कुछ विश्वविद्यालय अनुशासन की अपेक्षा समाज में आग लगाने वाली शिक्षा देने वाले बनना चाह रहे हैं। यह प्रवृत्ति घातक है।

इसके लिए अपने देश की सांस्कृतिक, सामाजिक, एवं आर्थिक आवश्यकता को ध्यान में रख कर यदि आवश्यक हो तो विश्वविद्यालय कानून में बदलाव करने चाहिए। किसी भी विद्यार्थी को विश्वविद्यालय में आत्महत्या करनी पड़े यह राष्ट्रीय पाप समझना चाहिए। हमें बच्चों को पुरुषार्थी बनाना है। उनमें आत्मसम्मान की भावना निर्माण करनी है। कठिन चुनौतियों को झेलने का मनोबल निर्माण करना है। यदि आज हम कम पड़ रहे हैं तो यह कमी कहां है, यह खोजना पड़ेगा। अब दूसरा रोहित नहीं हो, यह संकल्प लेना चाहिए।

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