स्वतंत्रता के बाद भी नेहरू के मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण हैदराबाद में हिंदुओं पर रजाकार सेना द्वारा बर्बर अत्याचार किया गया। इसी दिल दहला देनेवाली घटना को फिल्म रजाकार में जीवंतता के साथ दिखाया गया है।
हिंदुस्थान में इतिहासकारों ने इतिहास को एक खास दृष्टि से लिखने का काम किया है। अंग्रेजों से स्वतंत्रता मिलने को उन्होंने इस तरह से स्थापित किया कि जैसे भारतीय जनता को स्वतंत्रता सिर्फ अंग्रेजों से ही चाहिए थी। अंग्रेजों से पहले भारत की जनता मुस्लिम आक्रांताओं से अपने अधिकार और स्वतंत्रता के लिए लड़ रही थी। अंग्रेजों से स्वतंत्रता की आड़ में उस लड़ाई को भुलाकर धर्म के नाम पर इस देश का विभाजन किया और उपहार स्वरुप 1947 में मुसलमानों को एक अलग मुल्क पाकिस्तान दे दिया गया।
अंग्रेजी शासन से पहले मुसलमान शासकों द्वारा भारत के मूल निवासियों पर किए अत्याचारों को ना केवल इतिहासकारों ने बल्कि फिल्मकारों ने भी अपनी फिल्मों का विषय नहीं बनाया। फिल्मकारों ने अनेक काल्पनिक पात्रों, घटनाओं के माध्यम से मुगल साम्राज्य का महिमामंडन करना और उन्हें स्थापित करने का काम बखूबी किया। मामला यहीं थम जाता तो भी ठीक होता, सत्ता की लालच में देश के नेताओं ने विभाजन का जो दंश देश की जनता को दिया, उसने लाखों लोगों की बलि ले ली और हमारे चतुर नेताओं ने गंगा-जमुनी तहजीब की आड़ में इस देश में मुस्लिम तुष्टिकरण का जो बीज बोया, उसका दंश आज भी देश का बहुसंख्यक समाज झेल रहा है। इतिहास के पन्नों को अपने हिसाब से रंगने वाले लोगों ने बहुत कुछ छिपा लिया, जिसे आज की पीढ़ी नहीं जानती। ऐसे ही अनेक पन्नों में से एक स्याह सच को सामने लाने का काम किया है फिल्म ‘रजाकार’ ने।
सब जानते हैं कि जब देश स्वतंत्र हुआ तो तमाम राजे-रजवाड़ों को हिंदुस्थान या पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प दिया गया। वह तय कर सकते थे कि उन्हें किसके साथ रहना है। हैदराबाद के निजाम मीर अली उस्मान ने इन दोनों विकल्पों को नकारते हुए स्वतंत्र रहने का निर्णय किया। उसकी ख्वाहिश थी कि हैदराबाद एक अलग मुल्क तुर्किस्तान बने। हालांकि हैदराबाद की 85 प्रतिशत जनसंख्या हिंदुओं की थी। उसने हिंदुस्थान की सरकार के साथ यथास्थिति बनाए रखने के लिए 29 नवम्बर 1947 को एक साल के लिए समझौता किया। इस समय के दौरान उसने हर सम्भव प्रयास हैदराबाद पर अपनी स्वतंत्र सत्ता और उसे तुर्किस्तान बनाने के लिए किया और इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मामले को उठाने के साथ रजाकार (एक स्वयंसेवी सेना) की सहायता भी ली। जिसके प्रमुख कासिम रिज़वी ने हिंदू समुदाय पर असंख्य जुल्म किए। उसकी कोशिश थी कि हिंदू डर जाएं और इस्लाम स्वीकार कर लें या फिर अपनी जान दे दें।
रजाकार में हैदराबाद के हिंदुओं पर हुए उन अत्याचारों (जिनका फिल्मांकन फिल्म में देखकर आपकी रुह कांप जाएगी) के साथ ही तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु के उस ढुलमुल रवैये को, जिसने हैदराबाद की बहुसंख्यक जनता की जान दांव पर लगा दी, दर्शाया गया है। ये एक साल हैदराबाद रियासत की 85 प्रतिशत हिंदू जनसंख्या पर बहुत भारी पड़ा।
कोहिनूर जैसे विश्व प्रसिद्ध हीरों को निकालने वाली गोलकुंडा खानों की काकतीय राजाओं की दौलत के चलते हैदराबाद रियासत काफी अमीर था। स्वतंत्र देश स्थापित करने के लिए एक बंदरगाह की आवश्यकता थी, तो निजाम ने गोवा को पुर्तगालियों से खरीदने की तैयारी कर ली। हिंदुस्थान से लड़ाई की स्थिति में पाकिस्तान से सैन्य सहायता के लिए 20 करोड़ रुपए भिजवा दिए गए। कहा जा सकता है उसकी पूरी तैयारी हिंदुस्थान से अलग होने और आवश्यकता पड़ने पर युद्ध करने की थी।
सरदार पटेल को हैदराबाद में हो रहे अत्याचारों की खबरें मिल रही थीं, लेकिन नेहरू के चलते वो और के. एन. मुंशी मन मसोस कर रह जाते थे। इधर कासिम रिजवी ने हैदराबादी हिंदुओं पर जुल्मों-सितम की हद पार कर दी। कासिम रिजवी के अत्याचार जब हद से ज्यादा बढ़ गए तो सरदार पटेल ने कठोर निर्णय लेते हुए ऑपरेशन पोलो की रचना की और हैदराबाद का विलय हिंदुस्थान में करवाया।
रजाकार फिल्म को शिल्प की दृष्टि से विवेचना करे तो उसमें इतिहास के उस भुलाए या यूं कहे छिपाए काल को जीवंतता के साथ दिखाया गया है। निर्देशक यता सत्यनारायण ने एक-एक दृश्य को वास्तविक बनाने का प्रयास किया है। स्पेशल इफैक्ट्स, सेट डिजाइनिंग, सिनमेटोग्राफी, एडीटिंग, म्यूजिक और शानदार डायरेक्शन इस फिल्म को एक अलग स्तर पर ले जाते हैं। इसके लिए प्रोडयूसर गुदूर नारायणा रेड्डी की प्रशंसा करनी होगी, जिन्होंने खुली छूट निर्देशक को दी है। ऑपरेशन पोलो होने तक एक-एक घटना को इस फिल्म में पिरोया गया है।
हिंदुओं पर अत्याचार की प्रत्येक घटना को रिसर्च के साथ इस फिल्म में दिखाया किया गया है, चाहे वो मुस्लिम पत्रकार के हाथ काटकर हत्या करना हो या फिर गड़्ढे में छुपे बच्चों को पत्थरों से मारने की घटना हो, नग्न महिलाओं को फूस के घेरे में जलाकर मार देने की घटना हो या फिर ब्राह्मण परिवार को जलाकर मार देने की, फिल्म उस काल को जीवंत कर देती है। फिल्म के कलाकारों ने अपने अभिनय से सम्पूर्ण घटनाओं को वास्तविक बनाने का काम किया है।
दुर्भाग्य है कि हिंदुओं पर इतने अत्याचार करने वाले कासिम रिजवी को कुछ समय जेल में रखकर छोड़ दिया जाता है और वो पाकिस्तान चला जाता है। साथ ही अपनी सोच, अपनी पार्टी को पाकिस्तान जाने से पहले ओवैसी साहब के दादा को दे जाता है जो आज AIMIM के नाम से जानी जाती है।
दुर्भाग्य ये भी है कि भारत के इतिहास को विकृत करने वाली गैंग इस फिल्म के प्रदर्शन के साथ ही एक बार फिर से सक्रिय हो गई है। AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी इस फिल्म को मुसलमानों के विरुद्ध प्रोपेगंडा बता रहे हैं। उनका कहना है कि इस फिल्म के पीछे नफरत फैलाने वाली ताकतें काम कर रही हैं। समझ में नहीं आता उन्हें सच को स्वीरकारने में क्या दिक्कत है? क्यों नहीं आज की वर्तमान पीढ़ी को पता चलना चाहिए कि गंगा-जमुनी तहजीब की आड़ में क्या खेल इस देश में खेला गया है?
अब जब समय बदल रहा है और द कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी, वीर सावरकर, बंगाल 1947 और रज़ाकार जैसी फिल्में इतिहास के पन्नों से धूल हटाकर सच को सामने लाने का काम कर रही हैं। इनके आने से झूठा प्रोपेगंडा फैलाने वाले इतिहासकार, फिल्मकार घबराए हुए हैं। ये फिल्में बहुसंख्यक समाज को सचेत करने का काम कर रही हैं, जिससे देश की वर्तमान और भावी पीढ़ी समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों की सोच से अवगत हो सके और ऐसी घटनाओं को वर्तमान और भविष्य में दोबारा ना होने दें। गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर कश्मीर हिंदुओं से खाली हो गया है। केरल, बंगाल में उनकी स्थिति खराब है। कई राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हो गया है। यदि आज वर्तमान पीढ़ी नहीं जागी तो आने वाला समय अंधकार में बदल सकता है। आसमानी किताब में काफिर के लिए ना तो कल जगह थी, ना आज और ना ही कल होगी। इस सच को जितना जल्दी हम समझ ले तो अच्छा होगा।