हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
घातक अफवाहों का खूनी खेल

घातक अफवाहों का खूनी खेल

by अमोल पेडणेकर
in अगस्त २०१८, राजनीति, विशेष, सामाजिक
1

 अफवाहें क्यों और कैसे फैलती हैं? क्या इन्हें हास्यास्पद और कोरी बकवास कहकर छोड़ देना ठीक होगा? क्या ऐसा कोई तंत्र है, जो इसे चुपके से फैला रहा है? क्या इसे अज्ञात संकट कहा जाए? क्या हमारा समाजमन अंधश्रद्धाओं और अफवाहों के मानसिक विकार से पीड़ित है? इन प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किए बिना विकास का हमारा रथ तेजी से दौड़ नहीं पाएगा।

विलियम शेक्सपीयर के एक नाटक में एक किरदार है। वह व्यक्ति की नहीं, अफवाह की व्यक्तिरेखा है। इस किरदार का नाम ‘रूमर’ (याने अफवाह) है। लपलपाती लम्बी-लम्बी असंख्य जिव्हाओं से सना वस्त्र पहनकर जब किरदार रंगमंच पर आता है तो पहला सवाल यह पूछता है- है कोई ऐसा महामानव जो मुझसे प्रभावित नहीं है? अब जरा सोचिए- यह शेक्सपीयर के काल की अफवाह है। उसकी कितनी जुबानें होंगी और हो भी तो कितनी लम्बी होंगी? लेकिन आज की अफवाह उससे भी बड़ी हो गई है। उसकी जुबान को अब न तो अंतर बांध सकता है, और न रफ्तार ही। विषयों की तो कोई सीमा नहीं है। आज वह पहले की अपेक्षा और बेहद तेजी से सफ़र करती ही है और अभावों तथा अंदेशों से त्रस्त समाज को अंदर तक भयाक्रांत कर देती है। उसके अनेक रूप हैं। कभी वह भूत, कभी भानमति (जादूगरनी), कभी देवी-देवताओं के बहाने, तो कभी जातीय विद्वेष के रूप धारण करती है। इस तरह वह समाजमन को रौंद डालती है। यही क्यों, लोगों में मौजूद खौफ़ को और हवा देकर समाजमन को तबाह कर देती है।

वर्तमान में ऐसी ही तबाह कर देनेवाली एक अफवाह ने देश के आधे से अधिक हिस्से को अपने चंगुल में लिया है। यह अफवाह है- ‘बच्चे अगवा करनेवाला गिरोह सक्रिय है, अपने बच्चों को संभालें।’ सारा देश इस अफवाह से त्रस्त है। भारत जैसे देश में अफवाह फैलना कोई नई बात नहीं है, नई बात यह है कि इसका दावानल  इस बार कल्पना से अधिक हिंसक बन गया है। महाराष्ट्र के धुले जिले की साक्री तहसील के राईनपाड़ा गांव में ग्राम पंचायत कार्यालय में गांववालों की भीड़ ने घुमंतू जाति की भिक्षा पर जीनेवाली नाथपंथी डवरी जमात के पांच निर्दोषों की केवल संदेह के आधार पर अत्यंत क्रूरता से हत्या कर दी। त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से 25 कि.मी. दूर मोहनपुर में एक 11 वर्षीय बच्चे की लाश मिली और फौरन यह अफवाह सर्वत्र फैली कि उसकी किडनी निकाल ली गई है। राज्य के शिक्षा व विधि मंत्री ने घटनास्थल को भेंट दी। वहां भाषण करते हुए उन्होंने कहा कि किडनी निकाले जाने का गोल  जख्म लाश पर दिखाई देता है। यह काम किडनी का अवैध धंधा करनेवाले गिरोह का लगता है। इस भाषण का वीडियो कुछ घंटों में ही राज्य और देश में हवा की भांति फैला। मीडिया ने भी उसे बहुत प्रसिद्धि दी। बाद में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री विप्लव देब स्वयं घटनास्थल पर पहुंचे। विधान सभा में प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि, ‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार लाश की दोनों किडनियां मौजूद हैं। किडनी के लिए हत्या की जाने की बात महज अफवाह है।’ लेकिन, अफवाह इतनी तेजी से फैलती है कि उसकी बाढ़ में मुख्यमंत्री का जवाब भी कहीं का कहीं बह गया। लोगों के मन तक वह नहीं पहुंच पाया। उसी दिन सुकांत चक्रवर्ती और ज़हीरखान नामक विमुक्त जनजाति के दो कलाकार अफवाह की चपेट में आ गए और लोगों ने केवल और केवल संदेह के आधार पर पत्थरों से कुचलकर उन्हें मार डाला। त्रिपुरा में पैदा हुई यह अफवाह  मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र में हवा के वेग से फैली। महाराष्ट्र के औरंगाबाद, राईनपाड़ा, नंदुरबार, जलगांव, नाशिक, बीड़, परभणी, नांदेड़, लातूर, गोंदिया, चंद्रपुर आदि विभिन्न स्थानों पर अफवाह और संदेह के आधार पर हत्याएं और अत्याचार-अन्याय की घटनाएं हुई हैं। पुलिस की सूचना के अनुसार लगभग दो दर्जन ऐसी हत्याएं हुई हैं और लगभग डेढ़ दर्जन लोग घायल किए जा चुके हैं। देश के अनेक राज्यों में फैले इस तूफान की चपेट में आया है मेहनतकश और भिक्षा पर जीनेवाला घुमंतू समाज। वे गुस्से में केवल अपनी ही छाती पीट रहे हैं। देश का विवेकी व्यक्ति भी इन घटनाओं से हैरत में है।

भारतीय समाज एक ऐसा विचित्र मिश्रण है जो सर्वगामी गप, फूहड़, भौंड़ी और निर्बोध बातों पर अनायास भरोसा कर लेता है। ऐसे समाज में अफवाह फैलना कोई नई या दुर्लभ बात नहीं है। अपने यहां अंधश्रद्धा, अति श्रद्धावान मन, चमत्कार के प्रति मन में छिपे सुप्त आकर्षण और सामूहिकता से गूंथी तथा घिरी भारतीय समाज व्यवस्था के कारण अफवाहों को अधिक बल मिलता है। इसी कारण अपने यहां गणेशजी के दूध पीने से लेकर भूचाल तक और मंकी मैन से लेकर समुद्र का पानी मीठा हो जाने तक बेसिरपैर की बातें फैलती हैं। उत्तरी इलाकों में मुंह नोचवा से लेकर बाल कटवा तक के अफवाहों का भूत लोगों के मन में डर पैदा कर रहा था। ऐसी अनेक अफवाहें अपने भारत में फैलती रहती हैं और समय के साथ दफन भी हो जाती हैं। चमत्कार और संकटों की सूचना देनेवाली अफवाहें तो पूरे समाज को कुछ समय के लिए अपने आगोश में ले लेती हैं, कुछ मनोरंजन भी करती हैं। किंतु, वे समाज के एक बड़े वर्ग को कुंठित भी कर देती हैं। परंतु, ऐसी अफवाहें जानकारी के अभाव में हुई किसी दुर्घटना की तरह होती हैं, उलझनों की गुत्थी होती हैं। यह विकास के सपने जोह रहे भारत के लिए खतरे की घंटी है।

पिछले कुछ दिनों में फैली अफवाहों को जहरीली कहना होगा। आधे से अधिक भारत उसके शिकंजे में आ गया और समाज मन में एक-दूसरे के प्रति संदेहों का माहौल पैदा हो गया। आम मेहनतकश समाज उसमें फंस गया। मुख्यमंत्री के स्पष्टीकरण को भी कोई नहीं मान रहा था और डर का काला साया फैलता गया। इन अफवाहों के पीछे एक निश्चित स्रोत था। अफवाह फैलानेवाला एक तंत्र काम कर रहा था, तंत्रज्ञान के साथ। विकास की राह पर चल रहे भारतीय कदमों में अडंगा डालने की यह छद्म कोशिश है। अतः हिंसा की ओर ले जाती इन अफवाहों को गंभीरता से लेने की जरूरत है।  इस संदर्भ में कुछ साल पहले पूरे भारत में फैली ऐसी ही जहरीली घटना की याद ताजा हो जाती है। माना कि, सोशल मीडिया और मोबाइल पर अति संवाद की सुविधा के कारण इस तरह की विषैली और हानिकारक अफवाहें फैलने की घटनाएं बढ़ रही हैं; लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है। सामाजिक अफवाहों के बारे में अनेक निरीक्षणों से कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। अफवाह के विषय और घटनाएं ऐसी होनी चाहिए कि लोगों को लगे कि वास्तव में ऐसा हो सकता है।  समाज तभी उस ओर ध्यान देता है और अफवाह जन्म पा जाती हैै। मिसाल ही देना हो तो पूर्वोत्तर भारत के जातीय दंगों को लें। असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में जब दंगे शुरू हुए तब मुंबई, पुणे, बेंगलुुरू जैसे शहरों में यह धुप्पल सर्वत्र फैल गई कि मुसलमान पूर्वोत्तर भारत के आम नागरिकों पर हमले करनेवाले हैं। पूर्वोत्तर भारत के देश के अन्य शहरों में रहनेवाले युवाओं में इससे हड़कम्प मच गया और वे मिले उस साधन से अपने इलाकों में पहुंच गए। पूर्वोत्तर के लोगों को यह अफवाह सच लगी और अफवाह का काम हो गया। इसमें भारतीय के रूप में हमारी मानसिक और सामाजिक विफलता भी दोषी है। हमारे यहां दंगों का इतिहास ही ऐसा है। 1992 का दंगा भी गली-कूचे तक पहुंचाने में इन्हीं अफवाहों ने काम दिखाया था। वे आए, वे घुसे, वहां उन्होंने फलां समुदाय के लोगों को मारा ऐसी अफवाहों ने लोगों को हिंसक बना दिया था। अधकचरी जानकारी से गढ़ी इन कथाओं से दंगे जैसे अस्थिर माहौल में बेचैनी व तनाव और बढ़ने लगता है। समाज का भयदग्ध मन ऐसी बातों को मान लेता है और फिर अफवाह तेजी से फैलने लगती है।  मुंबई दंगों के दौरान ऐसी विषैली और द्वेषभरी अफवाहों का अनुभव सभी लोगों को है। यही क्यों, कभी शिवाजी महाराज तो कभी आंबेडकर की प्रतिमा का अपमान किए जाने की अफवाहें ज्यादातर सोशल मीडिया के जरिए समाज में बोई जाती हैं और समाज में मनमुटाव फैलाने की कोशिश होती है।

भारत वाकई एक अज़ीब रसायन है। यहां अफवाहों को काले पत्थर की लकीर माना जाता है। उस पर भरोसा किया जाता है। तीन-चार वर्ष पूर्व लखनऊ में रात लगभग दो बजे अफवाह फैली कि इस समय जो सो रहे हैं वे पत्थर बन जाएंगे और घर-घर में देर रात मोबाइल बजने लगे। आनन-फानन में सारा शहर घर के बाहर सड़कों पर आ गया। एक शिक्षित-सुसंस्कृत शहर इस तरह रात दो बजे एक अफवाह को सच मानकर सड़कों पर आ जाए क्या यह आश्चर्य नहीं है? अफवाह की खासियत तो यही है। वह क्षण में वह आपके मन और बुद्धि पर हावी हो जाती है। चमत्कारों की बनिस्बत भय से जुड़ी अफवाहें और तेजी से फैलती हैं। इससे तो यही लगता है कि भारतीय मन डरपोक है।

जब-जब अफवाह के साथ यह भय जुड़ा होता है कि अपने पर या अपने परिवार पर कोई संकट आनेवाला है, हम मरनेवाले हैं  तब-तब अफवाह को बिना सोचे-समझे माननेवाला भारतीय मन अधिक सक्रिय हो जाता है। ‘डर’ व्यक्ति के मन पर तुरंत हावी हो जाता है। उसे लगता है कि अन्य लोग भी इस विपत्ति में न फंसे इसलिए इस खतरे को वह अन्य लोगों तक तत्परता से पहुंचा देता है। ‘रातभर न सोयें, पत्थर बन जाएंगे’, ‘बच्चों को सम्हालिए, बच्चे अगवा करनेवाला गिरोह आपके शहर में सक्रिय है’ यह बताने में समाजसेवा की ईमानदार भावना ही होती है। हम अफवाह फैला रहे हैं, समाज को हम डरा रहे हैं यह विचार भी अफवा फैलानेवाले के मन में नहीं आता, न वैसा उद्देश्य ही होता है। लेकिन, समाज उसको अफवाह नहीं, सच मानने लगता है। इसके प्रभाव में आम आदमी अति संवेदनशील बन जाता है। अफवाहों में जो विचार है वह समूह की विचारधारा बन जाती है कि, ‘वे अपने बच्चों की जान लेनेवाले हैं इसके पहले ही उन्हें खत्म करो’ और फिर आम आदमी घर जलाने, लोगों की जान लेने पर उतारू हो जाता है। कभी चींटी को भी न रौंदनेवाला आम आदमी फिर अपनी और अपने परिवार की जान बचाने के चक्कर में अन्यों की जान लेने पर उतारू हो जाता है।  इतिहास में हुए दंगों अथवा अराजकता की घटनाओं में यह हम देखते आए हैं।

अफवाहों के अनेक नमूने हैं। जैसे ही बच्चे अगवा करनेवाली टोली आई है, यह संदेश व्हॉट्सएप पर दौड़ता है, वैसे ही कुछ लोगों की जान पर बन आती है। ‘बाल कटुआ’, ‘मुंह नोचवा’ आया है, मंकी मैन बच्चों को खा जाता है’ ऐसे संदेश आते ही भारतीय समाज रात-रात भर पहरा देता है। ‘नमक खत्म हुआ है, बिना नमक के भोजन करना होगा’ ऐसी अफवाहें जब फैलती हैं तब देशभर के दुकानों के सामने कतारें लग जाती हैं। इस पर गौर करें तो लगता है कि यह एक अज्ञात संकट है औरउसकी काली साया ने पूरे भारत पर चुपके से पैर जमा लिए हैं। उसकी भीषणता सर्वदूर है। समाज में  अंधश्रद्धाओं के प्रति झुकाव, सामुदायिक मनोविकारों के प्रति अज्ञानता और अफवाओं के द्वारा निर्माण हो रहे संकट को अनदेखा किया तो किसी खतरे के क्षण में सम्पूर्ण समाज की विवेक बुद्धि विलुप्त होकर पूरा समाज ही विध्वंसक होने का चित्र पूरे देश में दिखाई दें तो आश्चर्य नहीं होगा!

फिर भारत की पहचान का क्या होगा? हमारी एक पहचान है मंगल पर यान भेजनेवाला देश और उसी समय दूसरी पहचान है एक डरपोक, अंधश्रद्धा में फंसा समाज। लगातार होनेवाली अफवाहों की घटनाओं से तो यही साबित होता है।

इसे मानना होगा कि, अफवाहें और झूठी बातें फैलाने का आज यदि कोई प्रभावी माध्यम है तो वह है सस्ते में आसानी से उपलब्ध, करोड़ों लोगों के हाथ में मौजूद सोशल मीडिया। यह सत्य है कि यह एक उपयोगी साधन है, लेकिन इसे पूरा नहीं, अर्धसत्य ही मानना होगा। क्योंकि, उपयोगिता के साथ प्रभावी उपद्रव क्षमता भी उसमें छिपी है। हां, दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में व्हाट्सएप या फेसबुक से परिचय न होने पर भी अफवाहें अपना काम प्रभावी रूप से करती दिखाई देती हैं। वहां भी अफवाहों का आकार बढ़ते दिखाई देता है। अफवाहें उड़ती हैं और फैलती ही जाती हैं। पता ही नहीं चलता कि अफवाह किस गांव से उड़ी और कब बड़े शहरों तक पहुंच गई, कौनसा तंत्र, कौन लोग- कौन गिरोह इन अफवाहों के पीछे हैं। कभी-कभी ऐसा अवश्य लगता है कि हम भारतीय अफवाहों के गट्ठड पर बैठे हैं और जब चाहा तब कोई अफवाह गढ़ ली और छोड़ दी। इस अफवाह को सुननेवाले कान मिलते हैं, हजारों जिव्हाएं भी मिलती हैं। वे अपना काम करती हैं और फिर कभी मंकी मैन, कभी बच्चे अगवा करनेवाला गिरोह, तथा कभी जातीय विद्वेष से समाज अपने गांव में, गलियों में सड़कों पर विचरण करते दिखाई देता है। कोई भी अपरिचित, मनोरुग्ण, घुमंतू लोगों के हाथ लगा कि उसकी खैर नहीं होती। यह अनेक उदाहरणों में हमें देखने मिलता है।

हमें सोचना चाहिए कि क्या अपने पूरे समाज पर डर ने वाकई कब्जा कर लिया है? इसमें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव भी कारण होंगे, परंतु क्या पुलिस से हमारा भरोसा उठ गया है? समाज में होनेवाली डकैतियों, चोरियों, हत्याओं से भी क्या समाजमन में असुरक्षा की भावना फैली है? किसी कठिण प्रसंग में अपनी सुरक्षा हमें ही करनी होगी इस भावना से रातभर पहरा देनेवाला समाज, फ्लड लाइट से प्रकाशमान गलियों में भी डर से ठिठुरा नींद उड़ा गांव- इस तरह का विचित्र भय से आक्रांत चित्र क्यों समाज में सर्वत्र दिखाई दे रहा है? अफवाहों को केवल बाजारू धुप्पल कहने का साहस कोई नहीं कर सकेगा? अफवाहों पर भरोसा न करने का आवाहन प्रशासन करता है, लेकिन उसका कोई विशेष उपयोग होते दिखाई नहीं दे रहा है। अफवाहें फैलती ही हैं, लोग सड़कों पर उतरते ही हैं, अपरिचित लोग कभी मरते भी हैं। तिसपर पुलिस जांच के फेरे में समाज अटक जाता है। यह सब असह्य होने के बावजूद यह बात जरूर खटकती है कि पुलिस और कानून-व्यवस्था पर भरोसा उठकर अतर्क्य बातों पर समाज का विश्वास क्योंकर होने लगा है?

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, जो इस प्रसंग में याद आ गई।  हरि स्वामी की यह कथा है। एक नगर के बाहर हरि स्वामी रुके थे। अगर कोई दे तो ही भोजन ग्रहण करते थे। दिनभर भजन-कीर्तन में लगे रहते थे। कुछ दृष्ट लोगों को लगा कि इस सज्जन को उसकी जगह दिखा दें। उन्होंने अफवाह फैलाई कि हरि स्वामी बच्चों को मारकर खा जाता है। वह मानव-मांस खाता है, इतनी-सी बात भी पर्याप्त थी। लोगों ने अपने बच्चों को घर में कैद कर रखना शुरू किया। नगर के लोगों ने निर्णय किया कि, हरि स्वामी को नगर से भगा दें। उन्होंने हरि स्वामी से कहा, “आप इस गांव में न रहे। आप छोटे बच्चों का मांस भक्षण करते हैं।” हरि स्वामी यह बात सुनकर हैरान रह गए। उनकी कोई बात सुनने के लिए लोग तैयार नहीं थे। वे जब भी गांव में निकलते थे, लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते थे। गांव पूरी तरह वीरान, स्मशान बन चुका था। हरि स्वामी हर घर के सामने खड़े होकर पूछते थे कि, “बतायें मैंने किन-किन के बच्चों को मारकर खाया है?” लोग अपने बच्चों की ओर देखते तो पाते कि सभी सुरक्षित हैं।

हरि स्वामी गांव छोड़कर जाने लगे तो कुछ लोगों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया। लेकिन, वे कतई नहीं रुके; गांव छोड़कर जाते समय उन्होंने यह अवश्य कहा कि, “अफवाह फैलानेवालों का काम ही गप फैलाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना है। जो समाज दुष्टों के अफवाहों पर चलता है वहां मुझे नहीं रहना है।”

आज यही प्रश्न है कि सामान्य विचार करनेवाला कोई भी व्यक्ति अफवाहों को हास्यास्पद और कोरी मूर्खता बताकर छोड़ देगा; लेकिन यह तो अपनी मूर्खता ही होगी। क्योंकि, अपना भारतीय समाज क्या मानसिक विकार से पीड़ित है, इस पर सोचे बिना अफवाहों की उलझन की वास्तविक गंभीरता ध्यान में नहीं आएगी।

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: hindi vivekhindi vivek magazineselectivespecialsubjective

अमोल पेडणेकर

Next Post

गौर से सुनिए, आवाजें फिर उठेंगी...

Comments 1

  1. श्रीमती सुरेखा वरघाडे says:
    7 years ago

    अमोलजी अपने समाज की यही तो कमजोरी है, अफवाए फैलनेवाले आम इंसान नही बल्की politician लोग ही अपने कुर्सि के लिए करते है,और हमारे देश केबेरोजगार लोगोंको ए अफवाए फैलानेका काम दिया जाता है अगर हमारे देश की बेरोजगार खतम हो जाएगी उस दिन से अफवाए भी कम हो जाएगी!

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0