उतार-चढ़ाव में ‘अटल’

अटल जी अपनी बौद्धिक प्रगल्भता, ओजस्वी वक्तृत्व कला, हाजिर-जवाबी, आचरण, व्यवहार और मिलनसार स्वभाव के बल पर सर्वदूर समाज के सभी वर्गों के बीच लोकप्रियता के उच्चतम शिखर पर पहुंचे। इसके बावजूद उनके पैर अपनी वैचारिक सरजमीं पर मजबूती से जमे रहे।

यथा नाम, तथा गुण की उक्ति जैसे मानो अटल जी के लिए ही गढ़ी गई हो। जिस प्रकार हिन्दुत्व एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आलोचक अथवा प्रशंसक अपने-अपने दृष्टिकोण से दोनों की आलोचना अथवा प्रशंसा करते रहते हैं उसी प्रकार से अटल जी के भी आलोचकों एवं प्रशंसकों की एक लम्बी श्रृंखला है। लेकिन जिस प्रकार हिन्दुत्व एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो है सो है और जिसके बिना आज भारत को न तो पूरी तरह जाना जा सकता है और न समझा जा सकता है, कमाबेश उसी प्रकार आजादी के बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य को अटल जी के व्यक्तित्व एवं ़कृतित्व के बिना न जाना जा सकता है, न समझा जा सकता है।

सर्व समावेशी व्यक्तित्व

अटल जी के जीवन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य श्री गुरूजी तथा भारतीय जनसंघ के मंत्र-दृष्टा व सृष्टि-कर्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अमिट छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। पं दीनदयाल जी तो अटल जी के सहयात्री ही थे। दोनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण भी दोनों का साथ-साथ हुआ था। पं दीनदयाल जी के विराट सर्व समावेशी स्वभाव का देश ने 1967 में ही अनुभव कर लिया था जब स्वतंत्र भारत में पहली बार कांग्रेस का वर्चस्व तोड़कर देश के 9 राज्यों में संविद (संयुक्त विधायक दल) की सरकारें बनी थीं जिसमें कम्युनिस्ट दल भी शामिल थे। याद रहे कि उस समय तक दीनदयाल जी के राजनीतिक जीवन-यात्रा की आयु मात्र 15 वर्ष थी। इसके कुछ माह बाद फरवरी 1968 में जब क्रूर काल ने दीनदयाल जी को आकस्मिक रूप से हमसे छीन लिया तब मर्मान्तक माहौल में भारतीय जनसंघ को आगे बढ़ाने तथा संगठन-विस्तार का गुरुतर दायित्व स्वाभाविक रूप से अटल जी के कंधों पर आन पड़ा था, जिसे अटल जी ने पूरी शिद्द्त से निभाया। दीनदयाल जी के असमय चले जाने के बाद संगठन का बीज-मंत्र हृदय में धारण कर राष्ट्रीय एकता व अखंडता को समर्पित राजनीति का वटवृक्ष खड़ा करने हेतु अटल जी ने जो भगीरथ प्रयास किए, अनेकानेक प्रयोग किए उन पर दीनदयाल जी की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।

श्री गुरूजी तो पूर्णरूपेण आध्यात्मिक व्यक्तित्व लेकर ही जन्मे थे। उनका पूरा जीवन सक्रिय हिन्दुत्व का पर्याय बनकर, जहां अपने-पराये में कोई भेदाभेद नहीं होता, देश व समाज के सामने था। इस प्रकार सार्वजनिक जीवन में आध्यात्मिक वृत्ति की जन्म-घुट्टी अटल जी को श्री गुरूजी से ही मिली थी। राजनीतिक जीवन में पक्ष-विपक्ष में, अपने-पराये में कोई भेदभाव न बरतना आध्यात्मिक वृत्ति के बिना सम्भव नहीं हो सकता। अन्यथा कोई राजनेता लोकेषणा से भी स्वयं को दूर रखते हुए प्रभु से ये कामना नहीं करता कि हे प्रभु! इतनी ऊंचाई कभी मत देना, गैरों को गले लगा न सकूं, इतनी रुखाई कभी मत देना।

5 जून 1973 जिस दिन श्रीगुरूजी अपनी नश्वर देह त्याग कर पूर्ण में विलीन हो गए उसकी पूर्व संध्या पर 4 जून को बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अचानक अटल जी का नागपुर पहुंच जाना दोनों महापुरुषों के अंतरसम्बंधों को दर्शाने  के लिए पर्याप्त है। श्री गुरूजी कहा करते थे कि सबसे कठिन काम है ’साधारण स्वयंसेवक’ बन कर रहना। हम गर्व कर सकते हैं कि अटल जी इस मानक पर 100 प्रतिशत खरे उतरे।

मर्यादित आचरण के धनी

राजनीति की राहें बड़ी रपटीली होती हैं। कब, कौन, कहां फिसल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। राजनीति के शीर्ष पर पहुंचने के बाद खतरा और अधिक बढ़ जाता है। लेकिन अटल जी ताउम्र इसके अपवाद बने रहे। वह भी तब जबकि राजनीतिक जीवन के प्रारम्भिक दिनों में ही अपनी पार्टी की विचारधारा के धुर विरोधी और राजनीति के समकालीन धुरंधर नेहरू जी ने उनके एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी कर दी हो।

अटल जी अपनी बौद्धिक प्रगल्भता, ओजस्वी वक्तृत्व कला, हाजिर-जवाबी, आचरण, व्यवहार और मिलनसार स्वभाव के बल पर सर्वदूर समाज के सभी वर्गों के बीच लोकप्रियता के उच्चतम शिखर पर पहुंचे। इसके बावजूद उनके पैर अपनी वैचारिक सरजमीं पर मजबूती से जमे रहे।  जीवन के उतार-चढ़ाव में भी वे अटल रहे।

 

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