हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
राजनीति से परे

राजनीति से परे

by pallavi anwekar
in अनंत अटलजी विशेषांक - अक्टूबर २०१८, राजनीति
1

अटल जी के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं कि वे एक महामानव बन चुके हैं। राजनीति की दलदल में रहते हुए भी अटल जी कमल की तरह निर्मल रहे।

अटलजी को दुनिया दो रूपों में पहचानती है। एक तो राजनीतिज्ञ और दूसरे कवि। अब राजनीतिज्ञ हैं तो जाहिर है कि वक्ता होंगे ही। ऐसा इसलिए क्योंकि आजकल नेता होने के लिए सबसे पहली योग्यता यही है कि माइक और जनता के सामने आत्मविश्वास से बोलने की कला आनी चाहिए, भले ही आपकी बात में दम हो या न हो, आपके पास तथ्य हों या न हों। परंतु अटलजी के साथ ऐसा नहीं था। वे कवि, नेता, वक्ता होने के पहले चिंतक थे। समाज के हर पहलू पर उनका अपना स्वतंत्र चिंतन होता था। इसी चिंतन से प्रेरित होकर जब वे कविता लिखते तो वो पाठकों के हृदय तक पहुंचती थी और जब भाषण देते तो वह भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था। उनका चिंतन उनके गैर राजनीतिक भाषणों से अधिक स्पष्ट होता है। वे अपने इतिहास में, धार्मिक ग्रंथों में, महापुरुषों में गहरी आस्था रखते थे, परंतु उसमें भी उनका चिंतन स्वतंत्र था। वे कहते थे “भगवान राम हमारे जीवन में बस गए। सोते, बैठते, उठते, जागते हम राम का नाम लेते हैं। नमस्कार का स्थान ले लिया ‘राम-राम’ने। जीवन में राम, मरण में राम, अंतिम समय में राम और आज ‘आयाराम और गयाराम’। अब तो ‘लियाराम और दियाराम’ भी है। भगवान राम में उनकी आस्था अनन्य थी फिर भी आदर्श के रूप में उनका चिंतन अलग था। वे सत्ता के लिए होने वाले संघर्ष से व्यथित दिखाई देते थे। वे कहते थे “कभी-कभी मैं सोचता हूं- हमारे यहां राज्य के लिए लड़ाई होती है, इसका कारण है कि हमने भरत की पूजा नहीं की, राम की पूजा की। सीता जी तो चली गईं राम के साथ, मगर उर्मिला का दर्द कौन जानेगा? उसकी व्यथा को कौन मापेगा? रह गई घर में द्वार पर खड़ी हुई, चौखट पे, आंखों में आंसू लिए हुए। समाज में स्वार्थ भावना बढ़ने से वे दुखी रहते थे। उन्हें लगता था कि आज समाज में त्याग की भावना समाप्त होती जा रही है।

अटल जी अपने भाषणों में शब्दप्रहार जम कर करते हैं, लेकिन कमर के नीचे नहीं। शायद इसीलिए उनके शब्दबाणों से घायल लोग बहुत देर तक उनसे शत्रुता नहीं रखते। और कहीं ग़लती से ज़रा सी भूल हो जाए तो तुरंत खेद प्रकट करने का बड़प्पन भी उनके पास था। उनमें व्यंग्य करने की क्षमता थी तो व्यंग्य सहने की भी क्षमता थी। स्वयंख को ‘हिटलर’ संबोधित किये जाने पर भी उन्होंने बुरा नहीं माना और न ही कहनेवाले से मित्रता तोड़ी। अटलजी कहते थे “हम जरूरत से ज्यादा सेन्सिटिव हो गए हैं। या तो मन में अपराध की भावना है। या हम समझ नहीं पा रहे कि तर्क-वितर्क में से एक समन्वित विचार कैसे निकाला जाए? व्यंग्य अच्छा नहीं लगता। विनोद का आनंद नहीं ले सकते।” उत्तर प्रदेश के एक कवि सम्मेलन की घटना को वे बड़े ही मजेदार शैली में सुनाते हैं कि “अभी उत्तर प्रदेश में एक घटना हुई। कवि सम्मेलन था। कवियों ने कुछ व्यंग्य कसे होंगे। उत्तर प्रदेश के एक मंत्री महोदय वहां उपस्थित थे। उन्हें पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा, ‘इन कवियों को ठीक करो।’ फिर उस कवि सम्मेलन में मारपीट हुई। कवियों की ठुकाई की गई। लोग भाग खड़े हुए। कवि मार खाकर वापस आ गए। ऐसा नहीं होना चाहिए। मैंने कहा, ‘मैं भी मंत्री रह चुका हूं। उस समय हमें भी सुननी पड़ती थी। लेकिन हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए।“

रा. स्व. संघ के द्वितीय सरसंघचालक प. पू.गुरूजी के साथ युवा अटलजी

अटलजी के भाषण सुनना और देखना एक अलग अनुभव होता है। हाथ उठाकर अचानक गर्जना करने के तुरंत बाद वे कभी कभी इतना बड़ा पॉज ले लिया करते थे कि लोगों की उत्कंठा बढ़ती जाती थी कि अब वे आगे क्या कहेंगे। उनकी हाथ उठाकर बात करने की शैली पर भी जब तंज कसा गया तो भी उन्होंने बड़े चुटीले अंदाज में कहा था “मैं हाथ उठाकर ही भाषण कर सकता हूं, पैर उठाकर नहीं।”

व्यंग्य, विनोद उनके स्वभाव तथा भाषणों का हिस्सा थे, परंतु उनका चिंतन सदैव गंभीर रहा। और जहां राष्ट्रहित से सम्बंधित कोई बात आई तो हमने उन्हें कई साहसी निर्णय लेते हुए भी देखा। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया था। वे स्वाधीनता के मायने अच्छी तरह से जानते थे और वह कैसे मिली यह भी जानते थे। इसलिए इसे कायम रखने के लिए भी वे हमेशा चिंतित रहते थे। उनका विचार था “स्वाधीनता आज है, इसलिए फिर खतरे में नहीं पड़ेंगे, देश का दुबारा विभाजन नहीं होगा, इस भ्रम में हमें नहीं रहना चाहिए। हो सकता है, पराधीनता का रूप बदल जाय। अब विदेशी सेना आकर हमें पादाक्रांत न करे, लेकिन विदेशी प्रभाव आ सकता है, विदेशी संस्कृति आ सकती है और सबसे बढ़कर देश को आर्थिक गुलामी के फंदे में जकड़ने की कोशिश हो सकती है। अब साम्राज्यवाद का, उपनिवेशवाद का रूप बदल रहा है। इसीलिए हम आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की बात करते हैं, स्वावलंबन की बात करते हैं, लेकिन इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि जिन कारणों से हम गुलाम हुए थे, वे कारण अभी पूरी तरह से मिटे नहीं हैं।

अटलजी संघ के स्वयंसेवक थे। उस समय भी संगठन का कार्य करते समय दलित समाज को संघ से जोडने में दुविधा होती थी। उनसे कुछ दलित भाईयों ने ॠग्वेद के पुरुषसूक्त का उदाहरण देते हुए कहा कि “आपने तो हमें जन्म से ही छोटा बना दिया है कयोंकि पुरुषसूक्त में लिखा है- विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण जन्में और क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जंघाओं से जन्में और शूद्र पैरों से जन्में हैं।“ तब अटलजी ने कहा कि ऐसी व्याख्या करना रचयिता के साथ अन्याय है। “यह एक विराट पुरूष का वर्णन है। ऐसा नहीं हो सकता-विराट पुरूष के सिर हो, भुजाएं हों और जंघाएं हों मगर पैर न हों। पैरों में स्थिति है, पैरों में गति है। सिर की पूजा नहीं होती, पैर पूजे जाते हैं। आनेवाला अगर सिर छूना शुरू कर दे, तो बडी मुसीबत हो जाएगी। वह पैर छूता है- पैर उसके लिए पवित्र हैं।” अटलजी की इस व्याख्या से हम उनके जातिगत भेदभावों के प्रति दृष्टिकोण को समझ सकते हैं।

पुरुषसूक्त की गलत व्याख्या का आधार लेकर जिस प्रकार दलित बंधुओं में वैचारिक वैमनस्यता बढ़ाने की कोशिश की जा रही है, उसी प्रकार हमारे इतिहास को भी तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया जा रहा है। अटल जी कहते थे, “आज नया इतिहास लिखने का प्रयत्न हो रहा है। लिखना शब्दश: ठीक नहीं होगा, नया इतिहास गढ़ने का प्रयत्न हो रहा है। क्या इतिहास गढ़ा जाता है? क्या इतिहास, कार्यालय में बैठकर मैन्युफैक्चर किया जाता है? इतिहास स्याही से नहीं लिखा जाता, इतिहास रक्त से लिखा जाता है। और जिन क्रांतिकारियों ने अपने रक्त से इतिहास लिखा उसे आज काली स्याही से लिखकर मिटाने की कोशिश की जा रही है।”

हम आज भी देख सकते हैं कि महान क्रांतिकारी स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी को भी इस देश के इतिहास में उचित स्थान नहीं मिल पाया है। यहां तक कि अंडमान के कारागृह से उनसे सम्बंधित इतिहास को भी मिटाने की कुचेष्टा की गई थी। अटल जी के मन में सावरकर जी के प्रति बहुत आदर था। वे कहते थे, “सावरकर जी एक व्यक्ति नहीं थे, संस्था थे, एक विचारधारा थे, एक संघर्ष का महापर्व थे, आत्म बलिदान का प्रेरणा स्वरूप थे, कष्ट सहने की एक परिसीमा थे। सागर की उत्तान तरंगों में जब उन्होंने अपने को झोंक दिया, मानो वे अपनी जान पर खेल गए, लेकिन उन्होंने अमृत पिया था।”

अटल जी सावारकर जी की तरह ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस, स्वामी दयानंद सरस्वती, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर आदि का भी बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने एक बार अपने भाषण में कहा था कि, “डॉ. आंबेडकर ने एक बहिष्कृत भारत की चर्चा की थी। हम तो इंडिया और भारत की चर्चा करते हैं कि इस देश में दो देश हैं एक इंडिया है, एक भारत है। कई साल पहले डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि एक बहिष्कृत भारत भी है। जो गांव के बाहर रहता है, जो विपन्न अवस्था में है, जो शताब्दियों से मानो गुलामी जैसा जीवन व्यतीत कर रहा है। जो अपने को तिरस्कृत समझते हैं, उनके उध्दार की जरूरत है। अस्पृश्यता तो खत्म होगी, होनी भी चाहिए। लेकिन अस्पृश्यता खत्म करने के लिए केवल कानून काफी नहीं है, जो अपने को अस्पृश्य समझते हैं, उनके मन में जो अस्पृश्यता बैठी है, जब तक उसका निराकरण नहीं होगा, तब तक अस्पृश्यता का निर्मूलन नहीं होगा।”

रा.स्व. संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी के प्रति अटल जी के मन में अगाध श्रद्धा थी। वे कहते थे, “मैंने अनेक व्यक्ति देखे हैं। वे जीवन जैसे-तैसे गुजार लेते हैं, मगर मृत्यु में टूट जाते हैं। हार मान जाते हैं। मोह में फंस जाते हैं, बिलख-बिलख कर रोते हैं। मगर मैंने परम पूजनीय गुरूजी को देखा है। जीवन महान, मगर मृत्यु महानतम। जैसे सब कुछ छोड़कर जाने के लिए तैयार हैं। उन्होंने जो अंतिम पत्र लिखे, वे तो विश्व साहित्य की निधि हैं। अपना दायित्व सौंपकर लोगों से माफी मांगते हुए, और एक महान व्यक्तित्व, अंतिम प्रयाण के लिए प्रस्तुत हैं।”

अटल जी सदैव मैत्रीपूर्ण सम्बंधों को बनाने, बढ़ाने और उन्हें प्रगाढ़ करने में विश्वास रखते थे। राजनीति से परे भी हमारे सम्बंध सभी दलों के लोगों के साथ अच्छे रहें इस बात पर वे हमेशा जोर दिया करते थे। आज अगर संसद में किसी बात पर बहस होती है तो नेता एक दूसरे पर कुर्सी तक उठाकर फेंकने को तैयार हो जाते हैं और उस कटुता को जीवन भर मन में लिए बैठे रहते हैं। अटल जी के संसदीय जीवनकाल में भी ऐसी घटनाएं हुईं। उन्होंने तो विपक्ष में रहकर पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक सभी से वाद-विवाद किए; परंतु वे स्वयं कहा करते थे कि “सत्तापक्ष में निरंतर असहिष्णुता बढ़ रही है। जब भारत पर चीन ने हमला किया तब संसद में गरमा-गरम चर्चा हुई, हमने पं.नेहरू पर जबरजस्त हमले किए। उसी रात राष्ट्रपति भवन में एक विदेशी मेहमान के सम्मान में रात्रिभोज था। मुझे भी बुलाया गया था। मैं लाइन में खड़ा था। तरीका ये है कि प्रधानमंत्री विदेशी मेहमान को लेकर आते हैं और सबसे परिचय कराते हैं। मैं सोच रहा था कि आज राज्यसभा में जो कटुता पैदा हुई है उसकी कहीं न कहीं झलक दिखाई देगी। लेकिन जब नेहरू जी आए, उन्होंने मेरा परिचय कराया और कहा कि आज इन्होंने मेरी जबर्दस्त आलोचना की और हंसकर आगे बढ़ गए। ऐसा ही प्रसंग श्रीमती इंदिरा गांधी के दिनों में हुआ। लोकसभा में झगड़े के बाद राष्ट्रपति भवन में भोज था, मैं भी निमंत्रित था- प्रधानमंत्री आईं और उन्होंने मुझे दूर से देखा और वापस चली गईं। अब आए हैं प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी। इन्होंने एक तीसरा तरीका निकाला। वे मुझे निमंत्रित ही नहीं करते। मतभेदों के बावजूद, गरम बहस के बावजूद हम संसद के एक सदस्य हैं- हम इस देश के नागरिक हैं और हमें चर्चा से, बहस से प्रश्नों को हल करना है। यह देश का दुर्भाग्य है कि सार्वजनिक जीवन में कटुता बढ़ रही है- संकोच बढ़ रहा है। विचारों का मतभेद तो है- लेकिन व्यक्तिगत संबंध नहीं बिगड़ना जाहिए। एक-दूसरे के प्रति आदर रहना चाहिए।”

अटल जी की विशाल सोच उनके कुछ अन्य वक्तव्यों से भी झलकती है। स्वयं राजनीतिज्ञ होने के बावजूद उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था कि, “राजनीतिक नेताओं का ज्यादा सम्मान मत करिए। पहले ही वे जरूरत से ज्यादा रोशनी में रहते हैं। अब देखिए सारी रोशनी यहां जुटी है और आप अंधेरे में बैठे हैं। राजनीति जीवन पर हावी हो गई है। सम्मान होना चाहिए काश्तकारों का, कलाकारों का, वैज्ञानिकों का, रचनात्मक कार्यकर्ताओं का, जो उपेक्षित हैं उनका। कुष्ठ रोगियों के लिए जो आश्रम चलाा रहा है, उनका अभिनंदन होना चाहिए। उनका वंदन होना चाहिए।” राजनीति की दलदल में कमल के समान रहे अटल जी पर कीचड़ के छींटे तो अवश्य उड़े परंतु अटल जी निर्मल ही रहे।

अटल जी के उदात्त और बहुआयामी व्यक्तित्व और बच्चों से कोमल हृदय को नमन करते हुए उनके ही शब्दों के साथ इस आलेख को समाप्त करना उचित होगा कि, “महापुरूष शरीर तक सीमित नहीं होते, मांस के ढेर नहीं होते। जब पंचमहाभूतों से बना हुआ उनका शरीर पंचतत्त्व में मिल जाता है, तब वे फिर सहस्रों रूपों में प्रकट होकर मन को स्पंदित करते हैं, अनुप्राणित करते हैं। घटनाचक्र को प्रभावित करते हैं। वर्तमान पर असर डालते हैं, भविष्य का निर्धारण करते हैं।”

 

 

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: hindi vivekhindi vivek magazinepolitics as usualpolitics dailypolitics lifepolitics nationpolitics newspolitics nowpolitics today

pallavi anwekar

Next Post
वैश्वीकरण, आर्थिक नवउपनिवेशवाद

वैश्वीकरण, आर्थिक नवउपनिवेशवाद

Comments 1

  1. प्रोफेसर श्री राम अग्रवाल झाँसी says:
    7 years ago

    अटल जी के व्यक्तित्व के अनुरूप अत्यंत सटीक ।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0