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तोहफा

तोहफा

by शीला मिश्रा
in कहानी, ग्रामोदय दीपावली विशेषांक २०१६
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समय को कौन रोक सकता है? वह अपनी रफ्तार में आगे बढ़ता जाता है। हम लाख उसे पकड़ कर रखना चाहें पर वह रेत की मानिंद हाथ से फिसल ही जाता है। और पीछे छूट जाती है यादें। ऐसी ही एक याद जब-तब मुझे सताती थी। गांव का वह घर, चूल्हे में चढ़ी बटलोई की दाल, भुने आलू का भरता और कुरकुरी रोटी। बड़े से बड़े होटल में अच्छे से अच्छा खाना खाया पर वह स्वाद कहीं नहीं मिला। जैसे-जैसे उमर बढ़ती गई वह स्वाद भी अपनी जिद पर अड़ने लगा। जब पति ने हमारी शादी की पच्चीसवीं साल गिरह में पूछा -‘‘तुम्हें इस खुशी में क्या दिया जाए?’’ तो जैसे मैं तैयार बैठी थी, तुरन्त बोल पड़ी-‘‘गांव ले चलो। एक बार वहां के खाने का स्वाद ले लूं, फिर पता नहीं इतना लंबा सफर करने की हिम्मत जुटा पाऊं या नहीं। ’’

पति मान गए। सारी टिकट बुक हो गईं। अमेरिका से दिल्ली तो डेढ़ दिन में पहुंच गए, पर वहां से लरकाना (यू.पी.) नामक एक छोटे से गांव पहुंचने में दो दिन लग गए। खबर तो वहां पहले से पहुंच गई थी। ताऊजी का पूरा परिवार हमारा इंतजार कर रहा था। हालांकि मन में जो गांव की तस्वीर थी, उससे वह काफी बदला हुआ लगा, पर कहते हैं न कि अपनी माटी की खुशबू ही कुछ और होती है। वैसे भी हम उम्र व पद में कितने ही बड़े क्यों न हो जाए, जहां बचपन गुजारा होता है, वहां पहुंच कर एक बार फिर अपने बालपन में पहुंच जाते हैं। मन वैसे ही कुलांचेें मारने लगता है। मेरी स्थिति भी वही थी। शाम हो चली थी तो हर घर से निकलता हुआ धुंआ और खाने की सौंधी महक भूख को बढ़ा रही थी। पर जैसे ही ताऊजी के घर में घुसे तो अचानक मुंह से निकल पड़ा- ‘‘ये क्या!’’ ताऊजी का घर तो ग्रामीण परिवेश से कुछ जुदा ही लग रहा था। पक्की फर्श व चमकती दीवारों पर पेंट की गंध यही बता रही थी कि रंग-रोगन अभी ताजा है।

मन का उत्साह ठंडा पड़ने लगा। ताईजी एक कमरे में हमें ले गई। जिसकी गंध अपने नएपन का अहसास करा रही थी। हम फ्रेश होने बाथरूम गए तो वहां भी शहरी अंदाज से मुलाकात हो गई। जब खाना खाने के लिए पहुंचे तो डाइनिंग टेबल पर सजा खाना जैसे मुंह चिढ़ा रहा था। मेरा उत्साह काफूर हो गया। मैं धीरे-धीरे खाना खाने लगी। मेरे चेहरे का भाव देख कर ताईजी बोल पड़ी-‘‘बेटा खाना पसन्द नहीं आया क्या? तुमको इस तरह के खाने की आदत कहां होगी?’’
मेरे बोलने से पहले ही आदित्य बोल पड़े-‘‘अरे ! श्रुति यहां के खाने के लिए ही तो आई है। जितना आपको याद नहीं करती उतना यहां के खाने को याद करती है। क्यों श्रुति?’’

‘‘हां-हां’’, मैंने हड़बड़ाते हुए कहा। फिर सलाद की प्लेट मांगते हुए कहा-‘‘ताईजी सलाद दीजिए। ऐसा स्वाद वहां की सब्जियों में कहां आता है?’’
‘‘हां बेटा, अच्छे से खाओ। ’’ ताईजी बोली। खाना खाने के बाद भैया-भाभी अमेरिका के बारे में पूछते रहे और मैं व आदित्य उनकी जिज्ञासाओं को शांत करते रहे। फिर नींद ने आ घेरा, सभी सोने चले गए। अलसभोर पंछियों की चहचहाहट से नींद जल्दी खुल गई। ताईजी ने चाय बना दी थी। मैं सुबह की खुली हवा का आनंद लेने अपनी चाय लेकर बाहर आंगन में आ गई। पीछे से धुंआ उठता दिखाई दे रहा था और साथ में चूल्हे की चाय की खुशबू भी आ रही थी। तभी कुछ याद आया और मैंने ताईजी से पूछा कि हरिया का परिवार अभी भी पीछे रहता है? उनके ‘हां’ कहते ही मैं आंगन का दरवाजा खोल कर पीछे गई। मुझे देखते ही उसका परिवार अचकचा सा गया। हरिया हाथ जोड़ कर बोला- ‘‘दीदी कुछ काम है क्या? मैं बस आने ही वाला था। ’’

मैंने अपना खाली कप आगे बढ़ाते हुए कहा-‘‘इसमें थोड़ी सी चाय डाल दो हरिया काका, मेरा चूल्हे की चाय पीने का मन कर रहा है। ’’
‘‘काहे पाप चढ़ाती हैं बिटिया, अभी मालकिन को पता चलेगा तो सारी उम्र की वफादारी धरी रह जाएगी। ’’ हाथ जोड़ते हुए हरिया काका बोले।
पर मैं भी कहां मानने वाली थी। अपने हाथ से ही अपने कप में चाय डाल ली और फिर पहला घूंट लेते ही ऐसा लगा मानो मन की मुराद पूरी हो गई हो। बस यही स्वाद तो ढूंढ रही थी मैं।

हरिया काका आंखें फाड़े मुझे देखे जा रहे थे। चाय के स्वाद से प्रसन्न मैं बाहर ही टहलने लग गई। सोच रही थी कि कितनी शांति है! सुबह की हवा कितना सुकून दे रही है। सच में, वहां की आपाधापी से भाग कर हफ्ते भर तो यहां बिताना ही चाहिए। तभी सुमित मुझे पुकारता हुआ वहां आ गया- ‘‘बुआ चलो, सब नाश्ते पर आपका इंतजार कर रहे हैं। ’’

अगले दो दिन कभी एलबम देखते, कभी पुरानी बातों को याद करते और कभी रिश्तेदारों के किस्से सुनते निकल गए। तीसरे दिन मेरी प्यारी बड़ी बहन, ताईजी की बेटी भारती भी आ गई। फिर तो क्या कहना! हम दोनों शाम को चाय पीकर मंदिर की तरफ निकल गईं। वहां चबूतरे पर बैठ कर भारती बचपन की सारी सहेलियों के बारे में बताने लगी। उनके बारे में जानते-जानते कब हम बचपन में पहुंच गए पता ही नहीं चला। बस फिर क्या था उन यादों के साथ कभी हम हंसते, कभी उदास होते, तो कभी खिलखिला पड़ते। बचपन की यादें मानव-मन की अमिट धरोहर होती है, जितना याद करो, उतना ही ताजगी से भर देती है। वह यादें जितनी खट्टी थीं, उतनी ही मीठी भी। इतने स्वादिष्ट माहौल में समय का पता ही नहीं चला। हैरान परेशान हरिया काका हमें ढूंढते- ढूंढते मंदिर तक आ गए। लौटते वक्त वही घर से निकलता धुंआ और खाने की सौंधी महक मुझे अपनी तरफ खींचने लगी। अचानक एक घर की तरफ देख हरिया काका बोले-‘‘बिटिया, तुम्हें नन्हीं ताई की याद है। वह तुम्हें और तुम्हारी मम्मी को बहुत याद करती है। यही तो घर है उनका। ’’

‘‘ओह, हां यही घर है उनका’’ अचानक मेरे मुंह से भी निकला। भारती का हाथ पकड़ मैं उस घर में घुस गई। सब नए चेहरे देख मैं कुछ अचकचा सी गई फिर धीरे से पूछा-‘‘नन्हीं ताई कहां हैं?’’

अंदर से कांपती सी आवाज आई-‘‘अरे ये श्रुति आई है क्या?’’ मेरे ‘हां’ कहते ही वह डुगडुग चलती हुई बाहर आई और मुझे व भारती को गले से लगा लिया। मेरी आंखें नम हो गईं। उन दो हाथों के आगोश में मुझे मां के हाथ की छुअन भी महसूस हुई। मां की प्रिय सहेली जो थी नन्हीं ताई। बहुत देर वह मुझे निहारती रही। मेरे परिवार के बारे में पूछती रही। तभी उनकी बहू आई। मेरे पांव छुए। फिर ताई से कहने लगी-‘‘खाना तैयार है, आप सब खाना खा लीजिए। ’’ सच कहूं, तो उस खाने की खुशबू से मुझेे जोर से भूख लगने लगी थी, पर सामाजिक शिष्टाचार के नाते मैंने भारती की तरफ देख कर कहा-‘‘घर पर ताईजी खाने के लिए हमारा इंतजार कर रही होंगी। ’’ नन्ही ताई मेरा हाथ खींचते हुए रसोई की तरफ ले गई और कहने लगी-‘‘तुम यहां खाना खाओ या ताई के यहां, एक ही बात है। यह भी तुम्हारा ही घर है। ’’ थोड़ा ना-नुकर कर हम खाना खाने बैठ गए। यही तो आनन्द है गांव का। पूरा गांव ही एक परिवार की तरह रहता है, कोई दिखावा नहीं। लोग अपनेपन से मिलते हैं और आग्रह करके खाना खिलाते हैं। इतना स्वादिष्ट खाना बरसों बाद मैंने खाया था। एक तो चूल्हे का बना खाना और फिर ताई के प्यार का छौंका। अच्छे स्वाद व स्नेह से तृप्त होकर मैंने व भारती ने नन्ही ताई से बिदा ली। जाते-जाते मैं नन्ही ताई से कह आई-‘‘कल मैं आपके दामाद को लेकर आऊंगी, यही खाना फिर से खिलाना। ’’ उनकी आंखों की चमक यही बता रही थी कि वह बहुत खुश हो गई थी।

दूसरे दिन सुबह-सुबह नन्हीं ताई के घर से उनका पोता पूरे घर को रात के खाने का न्यौता देने आया था। मैंने उसको ताकीद कर दिया कि खाना चूल्हे पर ही बनवाना। शाम को सब पहले मंदिर गए फिर नन्हीं ताई के घर। मैं उनके लिए बहुत सारे सूखे मेवे लेकर गई थी। आदित्य को देख कर वह निहाल हुए जा रही थी। उनको मेरी पसंद याद थी-वही आलू का भरता, कुरकुरी रोटी, बटलोई की दाल और ताजी पिसी टमाटर-धनिया की चटनी। आदित्य ने भी बहुत स्वाद लेकर खाना खाया।

जब हम चलने लगे तो नन्हीं ताई बोली- ‘‘बेटा आदित्य तुम्हें खाना पसंद आया कि नहीं? तुम लोग तो वहां तरह-तरह का खाना खाते होंगे, हमारे यहां तो यही रूखा-सूखा बनता है। ’’ तो आदित्य बोल पड़े-‘‘आप नहीं जानती इस खाने में क्या स्वाद है? पहले मैं श्रुति के मुंह से सुनता भर था। आज खाया तो जान पाया कि इस खाने का कोई जवाब नहीं। इसमें जो अपनेपन की महक व प्यार की मिठास है, वह हमें अमेरिका में कहां मिलेगी?’’

आदित्य अगले दिन भैया के साथ गांव घूमने चले गए। लौट कर आए तो कहने लगे-‘‘चलो तुम्हें अपनी जमीन दिखा दूं। ’’ मैं आर्श्चचकित उत्सुकता से आदित्य की तरफ देखे जा रही थी। मेरी उत्सुकता को शांत करते हुए भैया बोले-‘‘तेरी तरह दामादजी को भी यहां की आबोहवा बहुत पसंद आ गई है। उन्होंने एक प्लॉट पसंद किया है, कल हम जाकर पैसा जमा करके रजिस्ट्री करवा लेंगे। ’’

मेरी तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। भावातिरेक में मैं आदित्य से लिपट गई। जब थोड़ा संयत हुई तो आदित्य ने कहा-‘‘एक साल में मकान बन कर तैयार हो जाएगा। फिर हम हर साल शादी की वर्षगांठ पर यहीं एक महीने के लिए आ जाया करेंगे। ’’

कहते हैं न कि भावनाओं के अतिरेक में इंसान न कुछ बोल पाता है न ही कुछ सुन पाता है, यही हाल था मेरा। अचानक मिली खुशी से मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा, मेरे लरजते होंठों से शब्द ही नहीं निकल रहे थे, खुशी से सराबोर मेरी पनीली आंखें आदित्य को ही देखे जा रही थी, जो कह रहे थे-‘‘सच में हम मशीनी युग में मशीन की तरह ही तो जी रहे हैं। सारा घर मशीन से भरकर हम भावनात्मक रूप से खोखले होते जा रहे हैं। इन सात दिनों में जो अपनापन, प्यार व स्नेह हमने पाया वह सात समन्दर पार कहां? गलती तो हमारी भी है, अपनी माटी से दूर रह कर हम अपनेपन की खुशबू तलाशते हैं और इतनी सी बात, नहीं समझ पाते कि जहां प्यार की बारिश होगी वहीं की माटी से साधी महक मिलेगी न। ’’

वाकई आदित्य ने हमारी शादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर मुझे एक नायाब तोहफा दिया था।

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