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आर्थिक सुनामी, जनता, और मीडिया

आर्थिक सुनामी, जनता, और मीडिया

by pallavi anwekar
in आर्थिक, दिसंबर २०१६, मीडिया, सामाजिक
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पिछले माह देश ने एक भयंकर सुनामी का सामना किया। यह सुनामी प्राकृतिक नहीं वरन् मानव निर्मित थी। काला धन रखने वालों के होश उड़ाने वाली थी। जी हां! यह सुनामी आर्थिक सुनामी थी। ८ नवम्बर की रात प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पत्रकार परिषद में कड़े शब्दों में काले धन के खिलाफ मुहीम छेड़ते हुए ५०० और १००० के नोट बंद करने की घोषणा की। अत्यंत गोपनीय तरीके से लिए गए इस निर्णय ने सभी के होश उड़ा दिए। हालांकि जनता को बारबार यह समझाया जा रहा था कि उनकी मेहनत की कमाई को कुछ नहीं होगा; परंतु फिर भी दूसरे दिन बैंक खुलते ही लोग पुराने नोट बदलवाने के लिए भारी संख्या में कतारों में नजर आए। लगभग २० दिनों तक बैंकों के सामने लोगों का जमावड़ा लगा रहा। ५०० और १००० के नोटों के बदले सरकार ने तुरंत २००० के नोट बाजार में उतारे; परंतु छोटे नोटों की उपलब्धता कम होने के कारण रोज़मर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा  रही थी। आम जनता ने प्रधान मंत्री मोदी के इस कदम की सराहना की थी। लोग अपनी परेशानियों से आगे बढ़ कर ये सोच रहे थे कि कुछ तो ऐसा निर्णय लिया गया जिससे भ्रष्टाचार और काले धन के सागर की बड़ी मछलियों को पकड़ा जा सकेगा।

एक ओर ५०० और १००० के पुराने नोट प्रचलन से विदा होने के कारण कागज के टुकड़े भर रह गए और दूसरी ओर आयकर विभाग के अधिकारयों द्वारा ऐसे लोगों पर नजर रखी जा रही थी जो या तो नोटों को जलाने, फेंकने, पानी में बहाने को मजबूर थे या फिर तरह-तरह के जुगाड़ लगा कर किसी तरह नए नोटों में बदलवाने का प्रयास कर रहे थे। हालांकि बैंकों में पुराने नोट बदलने, अपने खाते में पैसे जमा करने या पैसे निकालने के लिए उन दिनों ऐसी मर्यादाएं तय की गई थीं जिसके कारण बड़ी मात्रा में काले धन को सफ़ेद करना संभव नहीं हो सका।

प्रधान मंत्री मोदी ने यह कदम क्यों उठाया तथा इसके क्या फायदे होंगे यह अब तक सभी जान चुके हैं। इससे काला धन, भ्रष्टाचार, जमाखोरी से लेकर नशीले पदार्थों के कारोबार और आतंकवाद तक पर लगाम लग सकेगी। ये सभी बातें बहुत बड़े पैमाने पर तथा दूरगामी परिणाम देने वाली हैं। मोदी सरकार ने इसके पहले भी कुछ ऐसे कड़े कदम उठाए थे। हाल ही में पाकिस्तान पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करना भी इन ठोस क़दमों में से ही एक था। परंतु क्या कारण है कि इस आर्थिक सुनामी का प्रभाव सब से अधिक नज़र आया? कारण यही है कि यह सुनामी आम आदमी से जुड़ी थी। काला धन रखने वाले  जितने प्रभावित हुए उतने ही सफ़ेद धन रखने वाले भी हुए। परंतु सफ़ेद धन रखने वाले कहीं भी शिकायत करते नज़र नहीं आए। बल्कि सभी ने इस फैसले का स्वागत किया।

नोटबंदी की प्रक्रिया और सामान्य जनता की प्रतिक्रिया दोनों ही सकारात्मक रही; परन्तु फिर भी कहीं न कहीं नकारात्मक विचारों की सुगबुगाहट हो ही रही थी। मोदी विरोधी राजनीतिक खेमा, प्रसार माध्यम तथा जिन लोगों को इस कदम से आर्थिक नुकसान हुआ वे सभी परेशान थे। ये लोग जनता को होने वाली परेशानी की दुहाई देते हुए इस फैसले को वापस लेने का आग्रह कर रहे थे; परंतु सच्चाई कुछ और ही थी। अरविंद केजरीवाल की पार्टी को मिलने वाला फंड, ममता बैनर्जी का चिट फंड घोटाला, कांग्रेसियों का विभिन्न भ्रष्टाचारों में फंसा पैसा, मायावती का उत्तर प्रदेश चुनावों में लगने वाला पैसा आदि सभी पर अचानक रोक लग गई। ये सभी तो मोदी और वर्तमान सरकार के धुर विरोधी हैं ही; परंतु केंद्र सरकार में गठबंधन करने वाली शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने भी इसका विरोध किया। उनके इस विरोध का असली कारण क्या है यह तो वे ही जाने परंतु शायद चिढ़ इस बात की भी हो सकती है कि इतना महत्वपूर्ण निर्णय लेने के पहले उनसे कोई विचार-विचार विमर्श नहीं किया गया।

जहां तक विचार-विमर्श की बात है इस पूरी प्रक्रिया में गोपनीयता ही सबसे महत्वपूर्ण विषय था। जैसा कि बाद में सोशल मीडिया तथा अन्य प्रसार माध्यमों से पता चला कि प्रधान मंत्री, वित्त मंत्री, रिजर्व बैंक गवर्नर के अलावा दो या तीन लोगों को ही इस  बारे में जानकारी थी। यहां तक कि जब प्रधान मंत्री मोदी का देश को सम्बोधन प्रसारित किया जा रहा था तब वे स्वयं केबिनेट के अन्य मंत्रियों के साथ बैठक में व्यस्त थे और उस बैठक से पहले सभी मंत्रियों को मोबाइल फोन साथ न लाने की सूचना दी गई थी। इस अकस्मात लिए गए निर्णय का योग्य परिणाम सामने आया।

इस पूरे घटनाक्रम में जहां सरकार और जनता एकसाथ इस समस्या से जूझते हुए दिखे, वहीं प्रसार माध्यमों ने न केवल दुष्प्रचार किया बल्कि इसे असफल बनाने का भी प्रयास किया। निश्चित रूप से काले धन को मिटाने की प्रक्रिया इतनी बड़ी है कि उसके लिए कई और ठोस कदम उठाने होंगे। देश की जनता का प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर इतना विश्वास है कि वे देशहित में ही कार्य करेंगे, अत: उन्होंने प्रसार माध्यमों की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया और निष्ठा के साथ इस निर्णय का साथ दिया।

८ नवम्बर को जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े नोटों के विमौद्रिकरण की घोषणा की उसी दिन अमेरिका के चुनावों के नतीजे भी आने वाले थे। देश के हित में लिए गए इतने बड़े निर्णय को जनता तक पहुंचाने की बजाय एनडीटीवी जैसे कुछ चैनल अमेरिका के चुनाव परिणामों को ही प्रसारित कर रहे थे। इससे चैनल की मानसिकता और मोदी विरोध साफ जाहिर होता है। प्रसार माध्यमों की निष्पक्षता तब भी सवालों के घेरे में थी जब बैंकों के बाहर कतारों में खड़े लोगों की प्रतिक्रियाएं उन पर प्रसारित हो रही थीं। कुछ चैनलों पर कतार में खड़े व्यक्ति फैसले का समर्थन करते हुए दिखाई दिए, तो कुछ चैनलों पर गर्मी से चक्कर खाकर गिरते हुए। तात्पर्य यह कि प्रसार माध्यम भी जनता का विचार जानने  के बजाय अपना दृष्टिकोण थोपने की कोशिश कर रहे थे। इन चैनलों पर मोदी विरोधकों या ऐसे अर्थविदों के साक्षात्कार जानबूझकर प्रसारित किए जा रहे थे जो  इस कदम की आलोचना करें। परंतु वास्तविकता अलग थी। चैनलों ने आनन-फानन में बैंक से ४ हजार रुपए निकालने गए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का वीडियो प्रसारित किया। जिसमें वे तो बकायदा कतार में खड़े हैं परंतु अन्य लोग बैंक में हो रही अपनी परेशानी उनको बताने के लिए व्यवस्था बिगाड़ रहे हैं। लाल बत्ती की गाड़ी और बॉडीगार्ड लिए राहुल गांधी का ४००० रुपए निकालने के लिए बैंक आना और कतार में खड़े रहना हास्यास्पद था। परंतु यह शायद इस सोच के साथ किया गया था कि उनको देखने या उनसे बात करने की होड़ में कहीं कोई अप्रिय घटना घटे और विरोधकों को अपना मुंह खोलने और सारा दोष प्रधान मंत्री पर मढ़ने का मौका मिल जाए। परंतु सौभाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ। इतने दिनों में न तो कहीं आंदोलन हुए, न ही फैसले के विरोध में दंगे और न ही कश्मीर में पत्थरबाजी। क्योंकि इन सबके लिए लगने वाले काले धन पर ही अंकुश लगा दिया गया था।

काले धन पर नियंत्रण, भ्रष्टाचार पर रोक, राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ और देश के विकास में अडंगे लगाने वाले हर कार्य को जड़ से उखाड़ने के लिए सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने आवश्यक होते हैं।

कम समय में, आवश्यक संसाधनों के अभाव में विकसित राष्ट्र का उत्तम उदाहरण पेश करने वाला राष्ट्र है सिंगापुर। भौगोलिक संरचना में भारत की तुलना में बहुत छोटा है परंतु समस्याएं वहां भी थीं। हमें सन १९४७ में आजादी मिली और सिंगापुर १९६५ में मलेशिया से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बना। परंतु आज अगर हमारी और सिंगापुर की तुलना की जाए तो हम हर दृष्टि से उससे पीछे हैं। सिंगापुर को ली कुआन यू जैसा सशक्त नेतृत्व प्राप्त हुआ परंतु हमारे यहां इंदिरा गांधी के अलावा सशक्त की परिभाषा में बैठने वाला कोई प्रधान मंत्री दिखाई नहीं देता। यूपीए के पिछले १० साल के कार्यकाल में तो हालात और भी गएबीते थे।

अब परिस्थिति में बदलाव आ रहा है। भारत को सशक्त कदम उठाने वाला नेतृत्व प्राप्त है और इस नेतृत्व पर भरोसा करने वाली जनता भी परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार है। पिछले महीने में हम इसकी बानगी देख चुके हैं। आशा है केवल विरोध के लिए विरोध करने वालों के बहकावे में न आकर जनता अपनी चुनी सरकार के हर सही फैसले में उसका साथ देगी।

मो.: ९५९४९६१८४९

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