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रिश्तों के नए नाम

रिश्तों के नए नाम

by सुनीता माहेश्वरी
in कहानी, जनवरी २०१९
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“उस दिन गरिमा का स्त्रीत्व सार्थक हो गया था। उसकी ममता का सागर फूट पड़ा और दूध की धारा से आंचल भीग गया था। उसने अपनी बेटी को जोर से सीने से चिपका लिया… ममता के मोती उसके गालों से लुढ़क कर बेटी के गालों पर आ गिरे थे।”

गरिमा अपने बॉस से अपनी तारीफ सुन कर सातवें आसमान पर सवार थी। उसके बॉस मिस्टर कटारिया ने कहा था, “गरिमा, यू आर जीनियस। जैसे ही तुम्हारा प्रोजेक्ट पूरा होगा, तुम्हें प्रमोशन मिल जाएगा।” खाना बनाते बनाते गरिमा अपनी आंखों में प्रमोशन के सपने देखने लगी थी। प्रमोशन होते ही उसका स्टेटस ही बदल जाएगा। बड़ा घर, बड़ी गाड़ी और अधिक तनख्वाह। फिर वह सब पर राज करेगी। कितना नाम होगा। उसकी अपनी पहचान होगी। उसकी चाहतें सुनहरा चोगा पहन उसके मन मस्तिष्क पर हावी हो गई थीं।

वह प्रमोशन के सपनों में ऐसी डूब गई थी कि सब्जी ही जलने लगी। जलने की बू आते ही उसने गैस बंद की और फिर वह फ्रेश होने के लिए बाथरूम में चली गई। कुछ देर में ही उसके पति अनुराग आए। चाय पीते-पीते गरिमा ने अनुराग से कहा, “अनुराग, आज मिस्टर कटारिया ने कहा है कि मेरा प्रोजेक्ट पूरा होते ही मुझे प्रमोशन मिल जाएगा। अब तो मुझे और भी अधिक मन लगा कर काम करना पड़ेगा।” अनुराग उसकी बात सुन कर खुश तो था पर उसके मन में एक टीस भी छुपी थी। पत्नी की ऑफिस में बढ़ती व्यस्तता उसके लिए परेशानी का सबब बनती रही थी। उनका विवाह हुए लगभग सात साल हो चुके थे और वे अभी तक बच्चे के विषय में नहीं सोच पा रहे थे। उम्र निकलती जा रही थी।

अनुराग ने मन की पीड़ा को छुपा कर मुस्कराते हुए कहा, “चलो अच्छा है। हम भी जनरल मैनेजर साहिब के पति बन जाएंगे।” अनुराग जानता था कि गरिमा अपने जॉब के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहती। वह घर के किसी काम के लिए ऑफिस से तब तक छुट्टी नहीं लेती, जब तक बहुत जरूरी न हो जाए। गरिमा अपने जॉब को लेकर बहुत ही जिम्मेदार थी। यहां तक कि जॉब के कारण वह बच्चा भी पैदा नहीं करना चाहती थी। अनुराग का मन बच्चे को तरसता था। वह पिता बनना चाहता था। पर गरिमा सौ बहाने बना कर अपना पक्ष सिद्ध कर ही लेती थी। अनुराग गरिमा को प्रसन्न रखना चाहता था। गरिमा की मर्जी में ही उसने अपनी मर्जी मान ली थी। दोनों आनंद से दिन बिता रहे थे। गरिमा जी जान से अपने प्रोजेक्ट को पूरा करने में लगी हुई थी। इस प्रोजेक्ट की सफलता से उसकी आशाओं की पतंग की डोर बंधी थी। उसके सपने साकार हो रहे थे। उसके मन में आकांक्षाओं के मोर नाच रहे थे।

एक दिन अचानक गरिमा को पता चला कि वह गर्भवती है। गरिमा को अपने सामने बच्चे की जिम्मेदारियां, ऑफिस और घर के काम और प्रमोशन सब एकसाथ दिखाई देने लगे। उसका दिमाग चकराने लगा। उसके सामने बड़े प्रश्न थे-

“सावधानी बरतते-बरतते यह क्या हो गया? अब क्या होगा? अब क्या करें?”

वह जानती थी कि अनुराग कभी भी गर्भपात के लिए तैयार नहीं होगा। पहले उसने सोचा कि वह अनुराग को बिना बताये डॉक्टर से मिले और कुछ उपाय सोचे। पर उसके दिल ने उसे गवाही नहीं दी। उसने अनुराग को बताया, “अनुराग, मैं प्रेग्नेंट हूं।” अनुराग सुनते ही खुशी से उछल पड़ा था। उसने गरिमा को अपने आलिंगन में ले लिया और खुशी से बोला, “गरिमा, यू आर रियली ग्रेट। तुमने मुझे आज जो खुशी दी है उसके लिए मेरे कान कब से तरस रहे थे।” गरिमा के मन में तो कुछ और ही चल रहा था। वह तो अपने करियर के विषय में चिंतित थी। इस समय बच्चे का आना उसे अपने करियर में रूकावट महसूस हो रहा था।

उसने कुछ देर बाद अपनी मन:स्थिति अनुराग के सामने व्यक्त की। अनुराग उससे एकदम असहमत था। दोनों की सोच में छत्तीस का आंकड़ा बन चुका था। एक ओर पितृ सुख का परम आनंद भाव था, तो दूसरी ओर उन्नति की महती आकांक्षा। गरिमा ने जिद करते हुए कहा, “तुम्हें मेरे करियर की कोई चिंता ही नहीं है। कुछ तो सोचो। कुछ और दिन बाद बच्चा हो जाएगा तो क्या परेशानी है? अभी इसे….।” अनुराग ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया और बिना कुछ बोले चुपचाप सो गया। दोनों के बीच शीत युद्ध की सी स्थिति बन गई थी। दिन गुजरते जा रहे थे। महत्वाकांक्षा के जंगल में ऐसी आग भभक रही थी कि जीवन की सरसता जल कर भस्म होती जा रही थी। दोनों ही ऑफिस से देर से आते और फिर गुमसुम ही बैठे रहते। कुछ दिन बाद अनुराग के पिता महेंद्र साबू का फोन आया, “बेटा, हम तुम्हारे पास आ रहे हैं।…और हां, तुम लोगों को छुट्टी लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस हम लोग कुछ दिन तुम्हारे साथ रहना चाहते हैं।”

अनुराग माता-पिता के आने के समाचर से बहुत खुश हो गया था। वह सोच रहा था, “मम्मी, पापा के आने से रोजमर्रा की नीरस ज़िंदगी में कुछ तो बदलाव आएगा।” यह विचार उसे अनूठी खुशी दे रहा था।

माता-पिता के आने के बाद अनुराग उन्हें गरिमा के गर्भवती होने का समाचार बताना चाहता था। पर गरिमा की इच्छा का ध्यान आते ही उसका मन कांप गया। वह दो दिन तक सोचता रहा कि माता-पिता को बताए या नहीं। उसे डर था कहीं गरिमा नहीं मानी तो…? महेंद्र जी और सुशीला जी तो अनुराग और गरिमा से मिलकर एक दो दिन में ही समझ गए थे कि बहू बेटे के बीच कुछ अनबन है। एक दिन जब वे सब बगीचे में बैठे हुए थे तब सुशीला जी ने कहा, “क्या बात है बेटा, तुम दोनों कुछ परेशान लग रहे हो? गरिमा तुम तो थकी-थकी सी लग रही हो, तबियत तो ठीक है न बेटा?” सुशीला जी की बात सुन कर अनुराग से रहा नहीं गया। उसने सारी स्थिति सच-सच बता दी। सुशीला जी और महेंद्र जी मन ही मन यह शुभ समाचार सुनकर खुश हुए, पर उनके मन में डर भी था। सुशीला जी ने गरिमा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “मैं समझती हूं बेटा आजकल की वर्किंग लेडीज की परेशानी। नन्हीं सी जान पर कितनी जिम्मेदारियां हैं। घर ऑफिस, समाज, करियर, परिवार। सबका कितना प्रेशर है। हर कदम एक निश्चित योजना बना कर ही बढ़ाना पड़ता है।” मम्मी के मुंह से अपने पक्ष में दलील सुन कर गरिमा खुश हो गई थी। उसे लगा चलो मम्मी तो उसकी परेशानी समझ रही हैं।

“बेटा”, सुशीला जी ने कहा, “तुम अपने करियर को लेकर अधिक चिंतित हो इसलिए तुम अभी बच्चे की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती हो। बात तो तुम्हारी ठीक है। पर अधिक उम्र होने पर मेडिकल की दृष्टि से आगे चल कर डिलीवरी में तुमको परेशानी हो सकती है।”

“मैं जानती हूँ मम्मी, पर क्या करूं मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा। क्या बेबी होना जरूरी है?” गरिमा ने झुंझलाते हुए कहा। सुशीला जी उसे समझाते हुए बोली, “हां बेटा, एक नन्हा सा शिशु पूरे घर को गुलज़ार कर देता है। उसकी किलकारियों से पूरा घर खिलखिलाने लगता है।”

गरिमा बोली, “पर ये सब बहुत मुश्किल है। मैं कैसे ऑफिस जा पाऊंगी, मेरा पूरा भविष्य दांव पर लगा है।”

सुशीला जी ने गरिमा का हाथ अपने हाथ में लिया और बहुत प्यार से कहने लगीं, “गरिमा बेटा, चलो, मैं तुम्हें एक ऑफर देती हूं। मैं और तुम्हारे पापा यहां रह कर तुम्हारी सहायता के लिए तैयार हैं। तुम घर की चिंता पूरी तरह हम पर छोड़ दो। तुम अपनी सेहत और ऑफिस पर ध्यान दो।”

अनुराग भी माँ-पिताजी की हां में हां मिला रहा था। वे सब बैठे चाय पी रहे थे कि अचानक वहां एक बन्दर आया और आम के पेड़ पर चढ़ कर जोर-जोर से कूदने लगा।

उसने आम के पेड़ पर लगी आम्रमंजरी को तोड़ कर नीचे गिरा दिया। गरिमा टूटी डाली को देख कर परेशान हो गई। उसे बहुत बुरा लगा। वह तो रोज बढ़ती हुई उस आम्र मंजरी को देख कर खुश होती थी और इंतजार कर रही थी कि कब उसमें अमियां आएंगी। वह बच्चों की तरह परेशान हो कर कहने लगी, “मम्मी मैं कब से इंतजार कर रही थी कि इस पर आम लगेंगे। देखिये न बन्दर ने सारी की सारी मंजरी तोड़ डाली। अब तो आमों को देखने का सुख ही नहीं मिल पाएगा।”

महेंद्र जी बोले, “बेटा, ये मंजरियां तो बन्दर ने तोड़ी हैं और तुम तो ….?” गरिमा उनका इशारा तुरंत समझ गई। तभी सुशीला जी ने कहा, “बेटा गरिमा, अमिताभ बच्चन, सुनील गावस्कर, कल्पना चावला, प्रतिभा पाटील, लता मंगेशकर आदि की माताएं भी यदि तुम्हारी तरह सोचतीं, तो हम इन महान हस्तियों से वंचित ही रह जाते। कौन जानता है भगवान ने तुम्हें किस हीरे से नवाज़ा है।” गरिमा उनकी बातों को ध्यान से सुन रही थी। उसके मन में द्वंद्व चल रहा था। सुशीला जी ने कहा, “बेटा, अंतिम निर्णय तुम्हारा ही होगा। तुम्हारे निर्णय में ही हमारी सहमति होगी। बस इतना ध्यान रखना कि ईश्वर की कृपा हर समय नहीं होती। फैमिली प्लानिंग करना भले ही हमारे हाथ में हो सकता है, पर विज्ञान के इस युग में भी बच्चा देना ईश्वर के ही हाथ में है।”

अनुराग अपने माता-पिता की बातों से बहुत प्रभावित हो रहा था। वैसे प्रभावित तो गरिमा भी होने लगी थी। गरिमा के मुख से चिंता के बादल कुछ कुछ छटने से लगे थे। तभी सुशीला जी ने कहा, “गरिमा मैं हूं न। हां, जब बेबी होगा तब एक आया रख लेंगे। कुछ दिन के लिए तो, तुम्हें मेटिरनिटी लीव भी मिल ही जाएगी। चिंता छोड़ दो बेटा। नारी में भगवान ने अद्भुत शक्ति दी है। यदि वह ठान लें तो सब कुछ कर सकती है।”

अनुराग ने बड़े गर्व से कहा- “बात तो सच है मम्मी। मैं जनता हूं कि गरिमा बहुत ही कर्मठ है। ये सब कुछ संभाल लेगी।” कुछ दिन तक गरिमा के मन में अंतर द्वंद्व चलता रहा। पर धीरे-धीरे गरिमा भी अनुराग और सारे परिवार की तरह सोचने लगी थी। उसका मन शांत हो गया था।

सुशीला जी बड़े जतन से घर संभालने लगी थीं। गरिमा व्यस्तता के कारण जिन वस्तुओं को नहीं देख पाती थी, उन्होंने उन्हें भी देखभाल करके ठीक कर दिया था। घर का हर कोना सुव्यवस्थित हो गया था। एक दिन गरिमा ने कहा, “मम्मी, आप इतना काम क्यों करती हैं? मैं आकर सब कर लूंगी।”

सुशीला ने बड़े प्यार से कहा, “अरे! मैं तो यहां सारे दिन खाली रहती हूं। मैंने किया या तुमने किया क्या फर्क पड़ता है।”

जब अनुराग और गरिमा ऑफिस से आते तब वे रोज उन्हें कुछ अच्छा बना कर खिलातीं। सुशीला जी गरिमा की तबियत और उसकी हर इच्छा का ध्यान रखतीं। गरिमा भी सुशीला जी, और महेंद्र जी के साथ खुश रहती थी। घर में जो नीरसता का वातावरण बन गया था, धीरे-धीरे ठीक होने लगा था। महेंद्र जी हंसते हुए सुशीला जी कहते, “मुझे तो उस दिन का बेसब्री से इंतजार है जब मैं बाबा और तुम दादी बन जाओगी।” यह सुनते ही सुशीला जी का रोम-रोम प्रफुल्लित हो जाता। गरिमा और अनुराग धीमे से मुस्करा देते।

दिन गरिमा कुछ चिंता मैं बैठी थी। सुशीला जी ने उससे कहा, “क्या कोई परेशानी है बेटा?” गरिमा हड़बड़ाती हुई बोली, “नहीं तो मम्मी, बल्कि जब से आप आई हैं, मुझे तो कुछ देखना ही नहीं पड़ता। सच तो यह है कि मैं पहले से भी अधिक अपने जॉब पर कंसंट्रेट कर पा रही हूं।” पूरा परिवार प्रसन्न था। गरिमा ममता के पंख लगा गर्भावस्था की एक अनुभूति को अपने मन में संजो कर रख लेना चाहती थी। बच्चे की हर एक हलचल उसे और अनुराग को हर दिन एक नए उत्सव का सा आनंद दे रही थी।

ऑफिस में भी उसका कार्य जोरशोर से चल रहा था। वह शुभ दिन भी आ ही गया जिसका उसे इंतजार था। उसका प्रोजेक्ट पूरा हुआ और प्रमोशन भी मिल गया। गरिमा ने सबसे पहले आकर अपने सास-ससुर के पैर छुए और उनसे आशीर्वाद लिया। यह सब कुछ उन दोनों की वजह से ही संभव हो सका था। उसकी आंखों में खुशी के आंसू थे। उसने कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए कहा, “यदि आपका सहारा न होता तो मैं कुछ नहीं कर पाती।” सुशीला जी ने उसे गले से लगा लिया और बड़े प्यार से कहा, “जब हमारी बेटी, इतनी जिम्मेदारी उठा रही है तो हमारा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है न।”

समय अपनी गति से चल रहा था। एक दिन आया जब गरिमा प्रसव की असह्य पीड़ा से तड़प रही थी। उसकी पीड़ा देख कर अनुराग भी उसके दर्द को महसूस कर रहा था। कुछ समय बाद एक नन्हीं कली ने जन्म लिया। सभी को अभूतपूर्व आनंद की अनुभूति हो रही थी। नन्हीं सी प्यारी बेटी ने सभी को रिश्तों के नए नाम दे दिए थे। दादा-दादी, पापा-मम्मी बनकर सब बेहद खुश थे।

उस दिन गरिमा का स्त्रीत्व सार्थक हो गया था। उसकी ममता का सागर फूट पड़ा और दूध की धारा से आंचल भीग गया था। उसने अपनी बेटी को जोर से सीने से चिपका लिया और भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया। ममता के मोती उसके गालों से लुढ़क कर बेटी के गालों पर आ गिरे थे।

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