समृद्धि की लोकमाता हैं लक्ष्मी

जनसमूह नितांत दीन है और असहनीय दरिद्रता से कष्ट पा रहा है। इसलिए लक्ष्मीपूजन के दिन वह प्रार्थना करता है कि लोकमाता लक्ष्मी ऐसी अभावग्रस्त स्थिति में आप मुझे सुखों के घर में सरंक्षण दें। मुझे अपना अशीर्वाद दें। इसी विश्वास, आस्था और अंधेरे-उजाले के द्वंद्व के बीच भारतीय नागरिक एक नहीं अनेक दीपक लक्ष्मी के समक्ष जलाता है। एक या अनेक दिए जलाने का शास्त्रीय प्रावधान इसलिए है, क्योंकि हमारे यहां एक बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है, जिसे एक दीपक जलाना भी कठिन होता है। दरअसल देश में अभाव और अंधकार का अभी अखंड साम्राज्य व्याप्त है। परंतु दीपक की ज्योति के रूप में जो प्रकाश-लक्ष्मी है, वही हर व्यक्ति के लिए समृद्धि की अभिप्रेरणा हैं। यही प्रेरणा आशा को जीवंत बनाए रखने का काम करती है। सृष्टि के पालक श्री हरि विष्णु की यही लक्ष्मी अर्धांगिनी हैं, जो ‘श्री‘ अर्थात समृद्धि की दाता हैं। इसीलिए उन्हें धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी और संतानलक्ष्मी जैसे नाना नामों से पुकारा जाता हैं। लक्ष्मी के इन गुणों की अनुकंपा जिस किसी पर हो जाती है, वह समृद्ध होता चला जाता है।

लक्ष्मी-विष्णु के स्वयंवर की तिथि-

दीपावली के दिन जिन लक्ष्मी का हम पूजन-अर्चन करते हैं, वह विष्णु और लक्ष्मी के मंगल-प्रणय की तिथि भी मानी जाती है, इसीलिए इस लक्ष्मी को गृहलक्ष्मी के संबोधन से जनमानस ने स्वीकारा है। यह कार्तिक माह की अमावस्या की रात्रि थी, इसीलिए प्रतिवर्ष इसी दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है। रात्रि में यह पूजा इसलिए की जाती है, क्योंकि लक्ष्मी इसी दिन विष्णु के घर आकर स्थायी रूप से ठहर गई थीं। लक्ष्मी के साधक ऐसा मानते हैं, इस दिन लक्ष्मी जिस किसी के भी घर आकर ठहर जाएंगी, उनका घर धन व संतान रूपी संपदा से तो भरेगा ही, खुशहाली भी छाई रहेगी। किंतु लक्ष्मी उन्हीं के घर में स्थायी ठौर बनाती हैं, जो मनुष्य अपनी वाणी पर नियंत्रण रखते हुए सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं। जो व्यक्ति लोभ का परित्याग कर उदारतापूर्वक जरूरतमंदों की मदद करते हैं, उन पर भी देवी की कृपा रहती है। प्रतिकार भाव से जो लोग दूर रहते हैं और लाचार की लाठी बनते हैं, उन पर भी श्रीदेवी कृपावंत रहती हैं।

अज्ञात स्त्री के रूप में लक्ष्मी की महिमा-

लक्ष्मी की पूजा में उस अनजानी स्त्री की महिमा और समन्वय का गुणगाण है, जो एक अज्ञात घर में आकर उसे अपने संस्कार और समर्पण से संवारती है। हम सब जानते हैं कि लक्ष्मी का प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ है। क्षीर-सागर के इस मंथन से जब समुद्र में पड़े अनेक तत्वों का आलोड़न और इस रस का संचार नाना रूपों में साकार होने लगा तब लाल साड़ी पहने हुए, गहनों से लदी हुईं, हजार पंखुड़ियों वाले कमल के फूल पर आरुढ़ लक्ष्मी प्रगट हुईं। ओस की बूंदों से आच्छादित इस पुष्प पर लक्ष्मी अविचल मुद्रा में बैठी थीं। इन अनिंद्य सुंदरी ने अपने सौंदर्य, औदार्य, यौवन, रंग-रूप और समानुपातिक कद-कांठी से सभी देव व असुरों को मोह लिया। सभी इस रूपगर्विता को पाने के लिए ललचा उठे। किंतु लक्ष्मी ने विष्णु का वरण किया। जिस तरह से लक्ष्मी कमल पर बैठे हुए अवतरित हुईं, उसी तरह भगवान विष्णु का भी कमल से गहरा संबंध है। सृष्टि के कर्ता ब्रह्मा भी क्षीर-सागर में शेषनाग की शैया पर लेटे विष्णु की नाभि से प्रस्फुटित कमल पर विराजित हैं। इसी कारण विष्णु को ‘पद्मनाभ‘ और लक्ष्मी को ‘पद्माक्षी‘ कहा गया है। अर्थात लक्ष्मी द्वारा विष्णु का वरण स्वाभाविक है।

चंचला लक्ष्मी-

लक्ष्मी की पूजा उस अनागत स्त्री या नई नवेली दुल्हन की अर्चना है, जो बाहर से आपके घर को समृद्धशाली बनाने आई है। वह दूसरे घर से आती है, इसीलिए नए घर या ससुराल में उसे सम्मानित किया जाता है। क्योंकि अब उसे इसी नए घर में आजीवन ठिकाना बनाए रखना है। यही कारण है कि अब वह मात्र लक्ष्मी न रहकर गृहलक्ष्मी की भूमिका में आ जाती है। हालांकि लक्ष्मी तंत्र में लक्ष्मी स्वयं दोहरी भूमिका अभीनीत करती दिखाई गई हैं। इसमें उनका ‘चंचला‘ स्वभाव परिलक्षित है। यह लक्ष्मी विकल, अस्थिर और चालायमान है। लक्ष्मीयंत्र में लक्ष्मी स्वयं कहती हैं, ‘आरंभ में वे शांति स्वरूपणी थीं। परंतु समुद्र में मंथन के दौरान मेरे अंदर विक्षोभ पैदा हुआ।‘ यहां विक्षोभ धन से जुड़े दोषों के अर्थ में है। इसीलिए लक्ष्मी कहती हैं, ‘मैं स्वयं एक स्थान पर स्थिर रहना पसंद करती हूं। किंतु ऐसा कभी हो नहीं पाया। विष्णु की अर्धांगिनी बनने के बाद भी यह संभव नहीं हुआ। हमेशा एक पांव घर की देहरी के भीतर तो एक बाहर रहा। इसीलिए लक्ष्मी की पूजा में विधान है कि लक्ष्मी के खड़े या चलायमान चित्र या मूर्ति की दीवाली के दिन पूजा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि इन रूपों में लक्ष्मी असहज तथा चलायमान हैं। यह लक्ष्मी घर से बाहर निकल गई तो घर में समृद्धि भी क्षीण होने लग जाएगी। हालांकि पत्नी रूपी लक्ष्मी ने जब घर संभाला तो इस मानवी ने गृहलक्ष्मी बनकर ही लक्ष्मी का उत्तरदायित्व संभाला। वह पूरे घर में आत्मसात हो गई, बल्कि वह स्वयं घर ही हो गई। इसीलिए बिना गृहिणी के घर की कल्पना असंभव मानी गई है।

चंचला लक्ष्मी की वर्तमान प्रासंगिकता-

वर्तमान परिद़ृश्य में चंचला लक्ष्मी की महिमा और उपस्थिति सर्वव्यापी है। क्योंकि आज स्त्री विभिन्न क्षेत्रों में जिस तरह की अचंभित करने वाली उपलब्धियों से जुड़ गई है, उनके चलते वह मात्र पुरुष या पति की प्रतिष्ठता से न पहचानी जाकर स्वयं की प्रतिष्ठा व सफलताओं से पहचानी जा रही है। देहरी से बाहर निकली यह चंचल मानवी एक समर्थ नागरिक की भूमिका में उत्तरोत्तर उभर रही है। हालांकि आज भी उसके पीछे दहेज एवं बलात्कारी दानव घूम रहे हैं। इन चुनौतियों के पश्चात भी वह महज अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि जीवन और घर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आगे बढ रही है। इन कठिन परिस्थितियों में वह मातृत्व, धर्म और संस्कारों में मिले रीति-रिवाजों को भी जीवंत बनाए हुए है। यह चंचल-नारी अनायास उत्पन्न हो जाने वाली घरेलू या कामकाजी समस्याओं को सुलझाते हुए अनाम शक्ति के रूप में स्थापित हो रही है। इसलिए इस कलियुग में चंचला-लक्ष्मी की पूजा भी प्रासंगिक हो गई है।

     लक्ष्मी पूजा का विधान-

इस बार कार्तिक मांस की चतुदर्शी 27 अक्टूबर अमावस्या को दीपावली है। दीवाली की शाम को यानि प्रदोषकाल के शुभ मुहुर्त में लक्ष्मी के साथ गणेश और कुबेर की पूजा की जाती है। इनके साथ श्रीयंत्र भी स्थापित करने की परंपरा है। लक्ष्मी की पूजा के लिए पूजा-घर में एक बड़ा सा पटा गंगा जल मिले पानी से धोकर बिछाएं। इस पर लाल वस्त्र बिछाकर अक्षत से नवग्रह बनाएं और लक्ष्मी, गणेश व कुबेर को चित्र व मूर्तियों के रूप में बिठा दें। एक तांबे के लोटे को कलश का रूप देकर जल से भरकर रख दें। इसके मुख पर पांच या चार पत्तों वाला आम्रपत्र रखें और उस पर नारियल रख दें। श्रीयंत्र का चित्र भी रख दें। कलश पर रोली या घी से सने सिंदूर से स्वास्तिक व ऊं बना दें। कलश पर कच्चे सूत को रंगकर व पांच गांठें लगाकर बांध दें। ये गांठे पंच-तत्वों के समायोजन की प्रतीक हैं। पूजा-स्थल पर थाली में पंच-मेवा, मिठाई, घी, दही, दूध, खील-बताशें और कमल फूल-रखें।

इसके बाद दीपक रखने की बारी आती है। पूजा के समय लक्ष्मी के सम्मुख पंच तत्वों के आधार पर दीपक जलाए जाते हैं। अमूमन पांच घी के और पांच तेल के दीपक जलाए जाते हैं। बीच में एक बड़ा दीपक सरसों के तेल का जलाया जाता है। पूजा के समय गहने और रुपए पैसे भी रख दिए जाते हैं, जिससे इनमें श्रीवृद्धि होती रहे। दीपकों में कपास की बातियां डालकर प्रज्ज्वलित करने के बाद लक्ष्मी-पूजन की पुस्तक से या फिर किसी पंडित से विधिपूर्वक लक्ष्मीजी की पूजा कर ली जाती है। ये प्रज्ज्वलित दीपक इस तथ्य के घोतक हैं कि निराशा का अंधकार व्यक्ति के मन या घर के आंगन में जब-जब छाएगा, तब-तब यह नन्हा सा टिमटिमाता दीया अंधेरे को मन तथा घर से बाहर धकेलने का काम करेगा।

 

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

Leave a Reply