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नागरिकता कानून  विरोध की राजनीति?

नागरिकता कानून विरोध की राजनीति?

by अवधेश कुमार
in फरवरी 2020 - पर्यावरण समस्या एवं आन्दोलन विशेषांक, राजनीति, सामाजिक
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नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देशभर में हुए हिंसक आंदोलन मोदी सरकार के खिलाफ एक सुनियोजित साजिश थी। कुत्सित राजनीति के हथियार के तौर पर विरोध के अधिकार का खतरनाक इस्तेमाल किया गया। इसे समझना जरूरी है।

जिस तरह का विरोध प्रदर्शन नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए का हो रहा है वह सामान्य कल्पना से परे है। यह संशोधन ऐसा है ही नहीं जिससे किसी को आपत्ति होनी चाहिए लेकिन विरोधी ऐसा माहौल बना रहे हैं मानो यह भारत के समस्त मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध है। इसके विरोध का जिस तरह का हिंसक दृश्य देश के अलग-अलग भागों में दिखा वह भयावह था। हालांकि आरंभिक हिचक के बाद हर जगह पुलिस प्रशासन अपने तेवर में आया और हिंसा थम चुकी है, लेकिन विरोध प्रदर्शनों में पुलिस और केन्द्र से लेकर हिंसा को रोकने वाली तथा हिंसा करने वालों के खिलाफ कदम उठाने वाली राज्य सरकारों को तो खलनायक बनाया जा रहा है, लेकिन हिंसक, उपद्रवी, अराजक तत्वों के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा जा रहा है। किसी को इसमें संदेह हो तो विरोधी नेताओं का एक वक्तव्य निकालकर दिखा दीजिए जिसमें हिंसा की आलोचना या निंदा तो छोड़िए, हिंसा न करने की अपील तक की गई हो। कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा एवं अन्य नेताओं का आंदोलन को पूरा समर्थन देने का बयान आपको आराम से मिल जाएगा। प्रियंका वाड्रा उत्तर प्रदेश में उन लोगों के घर तो गईं जो हिंसा के विरुद्ध कार्रवाई में मारे गए लेकिन आंदोलन में शामिल अपराधी तत्वों की गोली से घायल हुए दर्जनों पुलिस वालों से किसी विपक्षी नेता ने मिलना उचित नहीं समझा।

जितनी छानबीन हुई है उनसे साफ हो गया है कि नागरिकता संशोधन प्रस्ताव संसद में आने के साथ ही इसके विरुद्ध मुस्लिम समुदाय के बीच दुष्प्रचार आरंभ कर दिया गया था तथा जगह-जगह विरोध प्रदर्शन की तैयारी पहले से थी जिसमें हिंसा करना भी शामिल था। उत्तर प्रदेश और कर्नाटक सरकार ने अपनी रिपोर्ट में पोपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया या पीएफआई को हिंसा के लिए जिम्मेवार मानते हुए इसे प्रतिबंधित करने की अनुशंसा की है। इसमें एक-एक हिंसा तथा उसके पीछे की साजिश एवं पकड़े गए अपराधियों का तथ्यात्मक विवरण है। दिल्ली की हिंसा में तो बांग्लादेशी घुसपैठिए पकड़े गए हैं लेकिन उनके पास भारतीय होने के पूरे दस्तावेज हैं।

नागरिकता संशोधन विरोध कानून के विरोध के पीछे तीन तरह के तत्व थे या हैं। पहली श्रेणी उनकी है जिनके अंदर भ्रम और गलतफहमी पैदा कर उकसाया गया था कि आप लोगों को भारत से बाहर निकाल दिया जाएगा। दूसरी श्रेणी में हिंसक और सांप्रदायिक तत्वों का था जिन्होंने इसके माध्यम से देश में अशांति एवं अस्थिरता पैदा करने की साजिशें रचकर उनको अंजाम दिया। इनका उद्देश्य केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार एवं भाजपा की प्रदेश सरकारों को बदनाम करना था। वे सांप्रदायिक हिंसा को इतना ऊंचा उठाना चाहते थे कि पुलिस को कठोर कार्रवाई करनी पड़े एवं मोदी सरकार पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगे। तीसरी श्रेणी राजनीतिक दलों की है जो हर हाल में केन्द्र की सत्ता चाहते हैं, पर जनता द्वारा नकारे जा चुके हैं। ये दूसरी एवं पहली श्रेणी के साथी बन चुके हैं। हालांकि भारतीय राजनीतिक दलों में ममता बनर्जी जैसे अपवाद को छोड़कर सड़कों पर उतरकर जनता का नेतृत्व करने का माद्दा किसी के पास नहीं है। इसलिए ये आरंभ से ही विरोध को हवा दे रहे हैं। इससे पुलिस प्रशासन की भी चुनौतियां बढ़ गईं हैं। राजधानी दिल्ली का शाहीन बाग जो जामिया इलाके में विरोध का राष्ट्रीय केन्द्र बन गया है वहां पार्टियों के नेता जाकर भाषण दे रहे हैं ताकि किसी तरह इस विरोध को बनाए रखा जा सके। यह बात बार-बार स्पष्ट होने के बाद कि यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं अफगानिस्तान में उत्पीड़ित समुदाय को भारत की नागरिकता देने के लिए है। काफी लोगों को तो समझ आ गया है कि व्यर्थ का विरोध कर बैठे। बावजूद योजनाबद्ध तरीके से शाहीन बाग धरना को बनाए रखने के लिए पर्दे के पीछे से हर तरह का संसाधन एवं वैचारिक खुराक प्रदान करने का खेल चल रहा है।

जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों के एक वर्ग ने पूरे विश्वविद्यालय को यह कहते हुए ठप्प किया है कि पुलिस ने वहां छात्रों पर जुल्म किया और विश्वविद्यालय प्रशासन उनके खिलाफ मुकदमा करे और लड़े। विडम्बना देखिए कि उप कुलपति ने मुकदमा करने का वचन भी ले लिया। पूरे देश ने वह वीडियो देखा है जिसमें कुछ नकाब लगाए तो कुछ खुले चेहरे वाले स्कूटर से पेट्रोल निकालते हैं, फिर उससे बस में आग लगाते हैं, एक मोटर साइकिल को उसी के पेट्रोल से फूंकते हैं और उसे गिराकर खींचते हुए ले जाकर बस के नीचे रख देते हैं। वहां बड़े-बड़े डंडों से बसों के शीशे तोड़ते वीडियो देखा जा सकता है। पत्थरों से पुलिस पर हमले के दृश्य भी हैं। पेट्रोल बम भी फेंके गए।

जामिया मिलिया इस्लामिया में पुलिस के घुसने तथा छात्रों को पीटने की बात करें तो वह वीडियो सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है जिसमेें पुलिस जामिया के गेट नं सात और छः के बीच खड़ी होकर लाउडस्पीकर से अपील कर रही है कि बच्चों आप लोग पत्थर, शीशा आदि हम पर न फेंके, हम आपकी सुरक्षा के लिए है। आपके बीच अगर बाहरी लोग हैं तो उनका साथ न दें। लंबे समय तक पुलिस अपने ऊपर हमले झेलते हुए अपील कर रही है। बावजूद यदि पत्थरों, शीशों से हमला होता रहे तो पुलिस फूल की माला पहनाने नहीं जाएगी। वह भी उस स्थिति में जब बाहर कुछ ही दूरी पर बसें जल रहीं हो, गाड़ियां तोड़ी गई हों…..। उसके बाद पुलिस हमला करनेवालों को खदेड़ते हुए अंदर घुसी और उसमें दोषियों के साथ निर्दोषों पर भी गुस्सा उतरा होगा। अपराधियों का समूह अपराध करके यदि विश्वविद्यालय में घुसेगा तो पुलिस उसका पीछा करते हुए किसी शिक्षण संस्थान के दरवाजे पर खड़ी होकर प्रवेश की अनुमति की प्रतीक्षा नहीं कर सकती। हालांकि जितने छात्र हिरासत में लिए गए थे वो सब बाद में रिहा भी कर दिए गए। लेकिन हमारे देश के महान नेतागण जामिया विश्वविद्यालय में पुलिस की कार्रवाई की तुलना जालियांबाल बाग में जनरल डायर के गोली चालन से कर रहे हैं। इतने के बावजूद पुलिस की ओर से एक भी गोली नहीं चली, जबकि गोली चलाने की परिस्थितियां पैदा हो गईं थीं। काफी पुलिस वाले और अग्निशमन विभाग के कर्मी घायल हुए।

कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जब देश के नाम वीडियो संदेश जारी किया तो उसमें छात्रों को उकसाने के तत्व ज्यादा थे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो 16 दिसंबर को स्वयं मोर्चा संभालते हुए कोलकाता में विरोध प्रदर्शन किया। उसके बाद उनके लोग लगातार प्रदर्शन करते रहे। जब मुख्यमंत्री सड़क पर उतर जाए तो फिर कैसी स्थिति पैदा हो सकती थी। पूरा कोलकाता शहर जैसे रुक गया। उनकी देखा-देखी तृणमूल के नेताओं ने पूरे पश्चिम बंगाल में इसी तरह विरोध किया। 19 तारीख को नागरिकता कानून के खिलाफ भारत बंद का ऐलान किया गया था। वामपंथी पार्टियों के इस भारत बंद को राजद, सपा, कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियों ने अपना समर्थन दिया था। इसके अलावा अलग-अलग संगठनों ने अपने-अपने राज्यों में बंद या विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था। कर्नाटक में वाम और मुस्लिम संगठनों ने तो कुछ छात्र संगठनों ने बिहार बंद का आह्वान किया था। उत्तर प्रदेश में भी राज्यव्यापी बंद का आह्वान किया गया था। किसी को राज्य या भारत बंद करने में सफलता तो नहीं मिली लेकिन जिस तरह का उत्पात मचाया गया वह भयानक था।

विरोधियों से पूछिए कि नागरिकता कानून में क्या है जिसका वे विरोध कर रहे हैं तो वे एनआरसी पर बात करने लगते हैं। एनआरसी की अभी प्रक्रिया शुरू भी नहीं हुई है। जाहिर है, कुत्सित राजनीति के हथियार के तौर पर विरोध के अधिकार का खतरनाक इस्तेमाल किया जा रहा है।

ध्यान रखिए, नागरिकता कानून 1955 में कोई बदलाव नहीं हुआ है। इसमेें केवल इतना संशोधन किया गया है ताकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के लोगों को आसानी से भारत की नागरिकता मिल सके। किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए कम से कम पिछले 11 साल यहां रहना अनिवार्य है। इस नियम को आसान बनाकर इन लोगों के लिए नागरिकता हासिल करने की अवधि को एक साल से लेकर 6 साल कर दिया गया है। यानी इन तीनों देशों के छह धर्मों के बीते एक से छह सालों में भारत आकर बसे लोगों को नागरिकता मिल सकेगी। राजनीतिक पक्ष-विपक्ष से अलग होकर विचार करें तो इस विधेयक को विभाजन के समय आए शरणार्थियोंं की निरंतरता के रूप में देखे जाने की जरुरत थी। विरोध का एक बड़ा मुद्दा है, इसमें मुस्लिम समुदाय को अलग रखना। ये तीनों इस्लामिक गणराज्य यानी मजहबी देश हैं। इनमें मुसलमानों के साथ धार्मिक उत्पीड़न हो ही नहीं सकता। पाकिस्तान में शिया, सुन्नी, अहमदिया की समस्या इस्लाम के अंदर का संघर्ष है। वस्तुतः वहां अगर उत्पीड़न है तो दूसरे धर्म के लोगों का। दूसरे, किसी मुसलमान को भारत की नागरिकता का निषेध नहीं है। कोई भी भारत की नागरिकता कानून के तहत आवेदन कर सकता है और अर्हता पूरी होने पर नागरिकता मिल सकती है। किंतु जिन लोगों ने अलग देश के लिए आंदोलन किया, सांप्रदायिक हिंसा की और विभाजन के पक्ष में वोट किया उनके प्रति हमारे यहां इतनी सहानुभूति क्यों पैदा हो रही है इस प्रश्न का भी उत्तर तलाशने की आवश्यकता है। यह कहा जा रहा है कि इससे भारत पर वजन बढ़ेगा और नागरिकता के लिए बाढ़ आ जाएगी। निस्संदेह, इस कानून के बाद उत्पीड़ित वर्ग भारत आना चाहेंगे। पर इस समय तो ये भारत में वर्षों से रह रहे हैं। अलग से भार बढ़ने की समस्या नहीं है।

पूर्वोत्तर क्षेत्र में यह आशंका पैदा करने की कोशिश हो रही है कि अगर नागरिकता संशोधन लागू हो गया तो मूल लोगों के सामने पहचान और आजीविका का संकट पैदा हो जाएगा। अमित शाह द्वारा मणिपुर को इनरलाइन परमिट (आईएलपी) के तहत लाने की घोषणा के बाद अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मणिपुर पूरी तरह से नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 के दायरे से बाहर हो गए। शेष तीन राज्य- नागालैंड (दीमापुर को छोड़कर जहां आईएलपी लागू नहीं है), मेघालय (शिलांग को छोड़कर) और त्रिपुरा (गैर आदिवासी इलाकों को छोड़कर जो संविधान की छठी अनुसूची में शामिल नहीं हैं) को प्रावधानों से छूट मिली  है। असम में छठी अनुसूची के तहत आने वाले तीन आदिवासी इलाकों (बीटीसी, कर्बी-अंगलोंग और दीमा हसाओ) में लागू नहीं होगा तो स्थानीय संस्कृति, परंपरा तथा स्थानीय निवासियों के अधिकारों पर अतिक्रमण की आशंकाओं को खत्म करने के ठोस प्रावधान हैं।  हालांकि वहां रह रहे शरणार्थियों के लिए समस्या पैदा हो गई है। उदाहरण के लिए चकमा शरणाथी। उनकी नागरिकता का मामला लटक गया है। इसका निदान आगे निकालना होगा।

बहरहाल, इस कदम को किसी तरह सांप्रदायिक नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। वहां हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों एवं विभाजन पूर्व भारत का नागरिक रह चुके ईसाइयों पर जुल्म होगा तो वे अपनी रक्षा और शरण के लिए भागकर कहां जाएंगे? स्वाभाविक ही भारत। धार्मिक कट्टरता के कारण उनके लिए अपनी धर्म-संस्कृति एवं परंपराओंं का पालन करते हुए रहना संभव हीं रहा। या तो वे मुसलमान बन जाएं या फिर उनके साथ तरह-तरह की यातनाएं। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि 1947 में शरणार्थी के रूप में पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओं एवं सिखों को जिस तरह स्वाभाविक नागरिकता मिल गई उसी व्यवस्था को आगेे बढ़ाते हुए  इनको भी स्वीकार किया जाना चाहिए था। वहां जिस तरह के अत्याचार अल्पसंख्यकों विशेषकर हिंदुओं-सिखों पर होने आरंभ हुए वह अकल्पनीय था।

1950 में प. जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच दिल्ली समझौता हुआ जिसमें दोनोंं देशों ने अपने यहां अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, उनका धर्म परिवर्तन नहीं करने से लेकर सभी प्रकार के नागरिक अधिकार देने का वचन दिया। पाकिस्तान का पूरा व्यवहार संधि के उलट हुआ। इस समझौते के बाद पाकिस्तान के अल्पसंख्यक पूरी तरह वहां के प्रशासन की दया पर निर्भर हो गए। धार्मिक भेदभाव और जुल्म के जितने प्रकार हो सकते थे सब उन्हें झेलना पड़ा।

1950 में पूर्वी पाकिस्तान से दस लाख से अधिक हिंदू भारत में भागकर आए। अल्पसंख्यकों की संपत्तियों के लिए जो शत्रु संपत्ति कानून बना जिसके बाद संपत्तियों पर जबरन कब्जा सामान्य बात हो गई और इसके खिलाफ शिकायत के लिए कहीं कोई जगह नहीं। पूर्वी पाकिस्तान में तो लाखों हिंदुओं की लाखों एकड़ कृषि भूमि को शत्रु संपत्ति के नाम पर हड़पा गया।  पाकिस्तान के दोनों ़क्षेत्रों से इन पर अत्याचार, उनकी संपत्ति लूटने, महिलाओं की आबरू लूटने, उनका धर्म परिवर्तन कर निकाह करने की खबरे आतीं रहीं, लेकिन भारत ने कभी प्रभावी हस्तक्षेप करने का साहस नहीं दिखाया जो उसकी जिम्मेवारी थी।

सच कहा जाए तो उनको नागरिकता देकर भारत अपने पूर्व के अपराधों का परिमार्जन कर रहा है जिनके कारण कई करोड़ या तो धर्म परिवर्तन की त्रासदी झेलने को विवश हो गए या फिर भारत की मदद की आस में उत्पीड़न-अत्याचार सहते चल बसे। जो लोग इसके बारे में झूठ, भ्रम और गलतफहमी फैलाकर एक समुदाय के लोगोें को भड़का चुके हैं उनको इतिहास कभी माफ नहीं करेगा। वस्तुतः भारत को इसके लिए तैयार रहना पड़ेगा कि वहां के सारे गैर मुस्लिम अगर भारत आना चाहे ंतो हम उन्हें मानवीय एवं संवैधानिक रूप से गले लगाएं।

 

 

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