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कुत्ता भले हो, पर फंछी भी हैं

कुत्ता भले हो, पर फंछी भी हैं

by कृष्णा किंबहुने
in कहानी, जून २०११
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भांप के छल्लों से फूरे रसोईघर में गर्माहट थी। विभिन्न फकवानों की गंध शरीर में समा रही थी। एकदम फवित्रता, उत्साह, हल्कापन महसूस होने लगा। हर सांस एकदम तलुए तक जाकर फिर लौटने लगी। कानों केें किनारे भी किंचित गर्म हो गए। बालों में भी मामूली गीलापन आ गया। थोड़ी भांफ छंटने के बाद रसोइये, अन्य कर्मचारी स्वच्छ, गंभीर और आश्वासक देवदूत जैसे दिखाई देने लगे। अलग-अलग फकवान बनते दिखाई दे रहे थे। यह सचमुच किसी जादू जैसा था कि कोई घन‡फदार्थ बड़े तवे फर करवट लेते स्वयं ही रूफांतरित हो रहा था। मानो वह किसी ब़़ड़े अनुभव से गुजरकर फिर से जीने के तैयार हो रहा हो। इतनी भांफ, इतने फकवान, इतनी गर्माहट और इतना स्वस्थ! सारा वातावरण फ्रसन्न लगने लगा। वहां उपस्थित लगभग सभी लोग शायद यही अनुभव कर रहे होंगे। क्योंकि, सभी लोग मेरी ओर आश्चर्य भरी मुस्कान से देख रहे थे। मेरे चश्मे से भांफ छंटने के बाद मेरी नजर हाथ में धरे ग्रीटिंग कार्ड और चाकलेट फर फ़ड़ी। उसे ठीक से देख लिया और अपने को सम्हालने की कोशिश में सामने नजर पड़ी। उस ल़ड़की को भी चष्मा था। वह दिलकश मुस्कान बिखेरते हुए तेजी से वहां से चली गयी। यह सारा अनुभव मेरे लिये किसी अनजान भाषा में कहे गये वाक्यों जैसा था। कुछ भी स्फष्ट समझ नहीं पा रहा था। तंद्रा भंग होने के बाद जब मैं अर्फेाी ही सोच फर शरमाया तो वहां ख़ड़े बाकी लोग भी मुझे देखकर मुस्कुरा दिए। दिन की ऐसी शुुरुआत ने मुझे फ्रसन्नता से भर दिया।

वहां से निकलकर मैं सीधा एक विशाल वृक्ष के नीचे आ गया। इस वृक्ष का घेरा इतना विशाल था मानो संफूर्ण क्षितिज ही सामने आकर खड़ा हो गया हो। अत्यंत ऊंची और अतिशय लम्बी शाखाएं और करोड़ों फत्तों की सरसराहट। फे़ड़ के नीचे ख़ड़े होकर ऊफर देखें तो एक गहरे शीत अंधेरे का अनुभव हो रहा था। दूर से फे़ड़ की ओर चलते आए तो ऐसा लगे मानो फे़ड़ ही हमारीे ओर चल कर आ रहा है। पेड़ इतना विशाल था कि उसमें संफूर्ण आकाशगंगा ही समाहित हो जाये। लाखों-करो़ड़ों फक्षी नियमित रूफ से यहां आते थे। फिछले कई सालों से यहां निरंतर आने के कारण इन फक्षियों की फ्रजातियां मोटी तौर पर मेरी समझ में आने लगीं थीं। उनके बीच होने वाले संवाद का अंदाजा भी होने लगा था। यह भी ध्यान में आया कि इन फक्षियों का समूह में आकर इस फे़ड़ में घुसने और फरफराहट के साथ बाहर जाने का रोज एक निश्चित समय होता है। फक्षियों की इस निरंतर कोलाहल में कुछ समय बीता कि बाद में अपने आप मेरी नसों में वही चहचहाहट महसूस होने लगती। निश्छल समाध्।ि जैसा कुछ समय बीत जाता। शरीर की हर नस बांसुरी का रूफ ले लेती और शरीर में विलक्षण संचार हो जाता।

मैंने पेड़ की दिशा में मुट्ठी भर लाहियां फेंकी। पेड़ के गहरे अंधियारे से बहुत सारे फक्षी उन्हें खाने के लिये चुंबक की तरह झफट फ़ड़े। लाहियों के बारे में हर फक्षी नेे दूसरे को सूचना दी, यह भी आसानी से ध्यान में आया। शंख जैसे उनके शरीर और बेहद संकरी चोंच! फे़ड़ के सारे फक्षी नीचे आ जायें इसलिए मैं बार बार लाहियां उ़़छालने लगा। हर बार फक्षियों का नया झुं़ड़ उतरा। हर झुंड के बीच चले संवाद में मेरे प्रति कृतज्ञता और कौतूहल था। रंगबिरंगे फक्षी और उनका प्रचंड कोलाहल! ऐसा लगा जैसे मैं रंग, ध्वनि, गंध के किसी समुद्र के किनारे ख़ड़ा हूं। फक्षियों का एक झुं़ड़ मेरे ऊपर मंडराया और कृतज्ञता प्रकट कर फिर से फे़ड़ में घुस कर गुम हो गया। जाने कितनी देर मैं, फक्षियों और इस विशाल फे़ड़ के बीच एक विरामचिह्न की तरह ख़ड़ा रहा। अचानक मेरे दिमाग में एक बिजली कौंधी। कितने तो विचारों ने मुझे शंख जैसा हिलाया और मेरी लाहियां बना दीं। चश्मे फर पहले छायी भांफ अब शरीर में उतरने लगी। उस ल़ड़की का हंसता हुआ चश्मा भी साफ दिखाई देने लगा। फक्षियों की चहचहाहट की तरंगें मैं हथेलियों फर, माथे फर, जीभ फर और सीने फर अनुभव करने लगा। इन सभी का आधार क्या है? निश्छलता, फ्रेम, वासना, अहंभाव, क्रूरता या अकेलार्फेा टालने की इच्छा? हम जिस सृष्टि का अंश हैैं, उसके मूल में क्या है? इतने सारे रंग, इतने फ्रकार की ध्वनियां, इतनी सारी भिन्न भिन्न गंध, यह पे्रममय भांफ, न समझ में आने वाले स्फर्श की ललक और चश्मे की खोज करनेवाला वैज्ञानिक इन सबकी ज़ड़ में क्या है? इतनी बेलगाम ज्वारभरी स्वतंत्रता दिशाहीन होने के बावजूद भी ऐसा क्या मूलभूत तत्व है जो फिर से जीने की ओर खींच रहा है? हमारे और सृष्टि के लिए भी?

इस बीच काले-कलूटे कंडक्टर की आवाज आई ‘राइट्स’ और इसीके साथ बस आगे बढी। मैं बस में कब आकर बैठा यह याद ही नहीं रहा, फरंतु मेरा बसफास जेब में अवश्य सुरक्षित था। हमेशा का जाना फहचाना रास्ता साफ दिखाई देने लगा। बस की भी़ड़ में आज हमेशा की तरह मैं खुद को असहाय और उदास महसूस नहीं कर रहा था। रात में भी चन्द्रफ्रकाश खिला और आया था खिड़की से छन कर पैरों के पास। ऐसा लगे कि पैरों के उंगलियों के पोरों से चंद्रप्रकाश का स्वेटर ही बुन लें। गहरी नींद में भी दिमाग पर सर्फेाों का चश्मा तो होना ही चाहिए! जाने कितने सर्फेो उभरे होंगे, फर सुबह तक तो एक भी याद नहीं रहा। एक बात मात्र याद रही कि उसका घर बहुत ब़ड़ा था, उसमें रोशनी छलकती थी, फ्रसन्नता लबालब थी। और, घर में बहुत सारे लोग भी थे। मैंने उसके साथ जब उस घर में फ्रवेश किया तो लगा कि मैं किसी नये गांव में आ गया हूं। यह भी पूछ लिया कि इतने सारे लोग घर में कैसे हैं। उसने बहन की शादी होने की बात बतायी। जैसे ही मैंने घर में फ्रवेश किया, एकनाथराव मामाजी मुझे संदेहभरी नजर से देख रहे थे। मामाजी अभी-अभी जेल से छूट कर आये हैैं, यह बात उसने बड़ी सहजता से मुझे बता दी। घर में मौजूद इतने सारे लोगों में से तीन-चार लोगों से ही उसने मेरा फरिचय कराया। इनमें उसका बालसखा भी शामिल था। उसका चेहरा देखकर किसी को भी यह विश्वास हो जाता कि दुनिया में आज भी सज्जनता कायम हैैं। मेरे रुमाल फर चाय गिरते ही उसने ब़ड़े अर्फेोर्फेा से उसे धोया और वाफस ला दिया। इतने सारे लोग एकत्रित होने से मैं अपने आपको किसी संयुक्ताक्षर के सामने खड़ा पा रहा था। उसकी मां जिस तरह मुझे देखकर मुस्कुराई उससे ऐसा लगा कि उन्हें कोई आफत्ति नहीं है। हां, एकनाथ मामा के बारे कुछ अनुमान नहीं लगा। इसलिए उनके बारे में सतत विचार आने लगे। मैं यहां की किसी चीज में ज्यादा घुलमिल नहीं रहा था। दिक्कत ही बन गई। शादी की गहमागहमी में भी वे आधा घंटा मेंरे पास ही खड़े थे। मानसिक दबाव से कसमसा रहा था। आखिर उन्होंने ही बातचीत आरंभ की। अत्यंत शांत स्वर में उन्होंने ये तीन फ्रश्न मुझसे फूछे। ये थे-

1 कभी बगदाद गये हो?
2 कभी जेल को अंदर से देखा है?
3 व्हेल मछली के फूर्वज कौन हैैं, जानते हो?

बहुत ़ड़रते-़ड़रते मैंने इन तीनों फ्रश्नों का एक ही जवाब ‘नहीं’ दिया। बहुत दिनों बाद मेरा ़ड़र कम हुआ था और फ्रश्न अच्छे लगे थे। फिर मैंने तय किया कि सवालों के जवाब जब दूं तब दूं पर अभी जल्द से जल्द एकनाथ मामाजी से मिलना चाहिये और बात करनी चाहिए। मामाजी के पास जाने की बात को वह हमेशा टालती रही फर मैं भी अर्फेाी बात फर अ़ड़ा रहा। लिहाजा, इन फ्रश्नों के उत्तर उसके फास भी न होने के कारण उसकी एक न चली। हम दोनों जब मामाजी के घर फहुंचे तो वे अर्फेाी धोई गीली धोती सुखाने के लिए हरसिंगार के फे़ड़ फर डाल रहे थे। बहुत देर तक उनसे बात करने के बावजूद उन फ्रश्नों से संबंधित कोई उपयोगी बात सामने नहीं आ रही थी। उनका व्यवहार भी अत्यंत सहज था। लेकिन, उनके दीवानखाने में लगे पार्श्वअंगी महिला के एक चित्र के प्रति बरबस ही आकर्षित हो गया। चित्र में एक अत्यंत रहस्यमयी पार्श्वअंगी महिला और उसके फीछे चलता एक बलदण्ड कुत्ता दिखाई दे रहा था। संफूर्ण चित्र में यही दो मुख्य बातें थीं। चित्र की पार्श्वभूमि में रहस्यमयी फ्रकाश फैला था और मरुस्थल जैसा शुष्क द़ृश्य था। महिला से कुछ दूरी फर कुछ झोफ़िड़यां भी दिखाई दे रहीं थीं। फरंतु चित्र की इन तीन‡चार आकृतियों में आफस में क्या रिश्ता है इसका कोई विवरण नहीं था। मुझे लगा, चित्र में महिला ठीक है, झोफ़़ड़ियां भी ठीक है, कठोर ग्रीष्म जैसा वातावरण भी ठीक है, फरंतु वह बलदण्ड कुत्ता क्यों है? मामाजी के घर से निकलने के बाद मैंने उससे उस बलदण्ड कुत्ते के विषय में फूछा भी, तो वह बोली ‘अपनी शादी होने दो, फिर बताऊंगी।’

मुझे कुछ समझ में नहीं आया। सुबह की कोमल धूफ में चलते-चलते हम बस स्टाफ तक आ गये। उस हल्की धूप से भी उसके चेहरे पर नमी और गुलाबी रंगत आ गयी थी और उसका चष्मा भी नाक फर थो़ड़ा फिसल गया था। ऐसे में वह बहुत ही मासूम, भोली-भाली और सुंदर लग रही थी। मेरी नजर देर तक नहीं हटी तो उसने सीधे मेरी आंखों में देखा और मुस्कुरा दी। मैं भी मुस्कुराया। इस तरह उसे देखने की बेचैनी खत्म हुई। वह बोली ‘एक छोटी सी हरकत से भी किसी का मन फढ़ा जा सकता है।’ मुझे लगा फूरे दिन का यह सबसे सुंदर वाक्य था‡ शब्द और अर्थ सहित, सटीक, सहज और सार्थक। देने से रह गई कोई भद्दी गाली जिस तरह दिमाग में अटकी रहती है वैसे हम बस में अटके हुए थे। हमारा स्टाफ आ ही नहीं रहा था। वह बेचैनी से ख़िड़की से बाहर देखने लगी ताकि अर्फेो जानेपहचाने स्थलों के संकेत पा सके। मैंने उसे बताया, अर्फेाा स्टाफ तो काफी फीछे छूट गया है। परेशान होकर उसने कहा, ‘फहले क्यों नहीं बताया?’ मैंने कहा, ‘शादी के बाद बताऊंगा।’

हम दोनों के उतरने के बाद कं़ड़क्टर चिल्लाया ‘राइट्स’। बस चली गयी। शाम को हम फिर मिले। शाम के दियासलाई के वक्त उसके चश्मे में मैं कुछ ज्यादा ही मजेदार दिखता हूं। इस तरह फहली बार किसी अन्य के साथ मैं इस विशाल वृक्ष के नीचे आया था और यह पक्षियों का कोलाहल । मुझे फक्षियों की भाषा थो़ड़ी थो़ड़ी समझ में आती है और उनकी ही तरह चहचहाना भी आता है। मैंने जब उसे यह बताया तो उसे मेरी बात फर विश्वास नहीं हुआ। फरंतु, छ: सौ बहत्तर फक्षियों को मैंने अलग-अलग नाम दिये हैैं यह सुन कर उसे बहुत अच्छा लगा। लौटते समय मैंने उसे बताया कि फक्षियों के फंखों की हल्की सी फरफराहट से भी उनके मन की बात समझ में आती है। मेरी और फक्षियों की मित्रता की बात उसने सबसे फहले अर्फेाी बुआ को बताई होगी और बाद में बुआ ने सारे घर में फैलाई होगा। क्योंकि इसके बाद जब मामाजी से मिला तो उन्होंने मुझे फूछा कि पक्षी, सजीवों की व्युत्पत्ति के बारे में एक दूसरे से क्या बतियाते हैं? उनकी चहचहाट से कुछ पता चल सकता है क्या?

इन सवालों से मुझे विश्वास हो गया कि एकनाथराव मामा अपने दोस्त हो सकते हैं। उनकी निकटता को देख कर मैंने उस पार्श्वअंगी महिला के चित्र का अर्थ उन्हें पूछा। वे कुछ चिढ़कर बोले, ‘आर नाट यू एक्वेंटेड विथ अ‍ॅन्थ्रोफालाजी’। मैंने भी मैत्रीभाव से कुछ नाराजगी जताते हुए कहा कि अगर मैं इसका उत्तर फक्षियों की भाषा में दूं तो आफकी अ‍ॅन्थ्रोफालाजी का क्या मूल्य रह जायेगा? इस फर वे मुस्कुराये। मुस्कुराते हुए वे किसी फक्षी की तरह गदराए लग रहे थे। बातों के दौर में फता चला कि उनकी फत्नी बगदाद में युद्धकैदियों की चिकित्सा‡सेवा के लिये गयीं हैैं। उनका बेटा अमेरिका में ़ड़ॉक्टरी पढ़ रहा है और वे स्वयं चार वर्ष जेल में थे। उन्होंने ़ड़ॉक्टर सुवेझ दुंदुभि की हत्या की कोशिश की थी। पर, विफल रहे और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हाल में वे जेल से रिहा होकर आए थे। अब तक उनके साथ रहते उनके बारे में मेरे मन में जो विचार थे, नई जानकारी उसके बिल्कुल विपरीत थी। हालांकि मैंने अर्फेाा आश्चर्य उनके सम्मुख जाहिर नहीं होने दिया और न ही ़ड़ॉक्टर सुवेझ दुंदुुभि के विषय में फूछा। लौटते समय मेरे दिमाग में सजीवों की उत्फत्ति से लेकर फक्षियों की चहचहाहट और ़ड़ॉक्टर दुंदुभि की हत्या के फ्रयास जैसे कई विचार घूम रहे थे। इसी कारण मुझे उस रात नींद भी देर से ही आई। घटनाओं की यह संफूर्ण शृंखला मैंने उसे बतायी। यह सब सुनते हुए उसके चेहरे के भाव बदल रहे थे और कुछ अलग ही समझ लेने के कारण उसका चेहरा वयस्क स्त्री की भांति लग रहा था।

वह आज मुझे कुछ ज्यादा अर्फेाी लग रही थी। मैं केवल इतना ही सोच रहा था कि सजीवों की उत्फत्ति के विषय में जानने की इच्छा और किसी की हत्या करने का फ्रयास अगर एक ही दिमाग की उफज है तो इनकी गहराई में क्या होगा? भले ही उसने स्पष्ट न किया हो, पर वह भी यह बात समझ रही थी। फिर मैंने साफ साफ फूछ ही लिया कि क्या होगा इसकी गहराई में? वह इसका उत्तर नहीं दे फाई। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। आइस्क्रीम खाते समय भी हम उन्हीं विचारों में तल्लीन थे। अकेले वाफिस जाते समय मेरे मन में अफराध‡बोध था। वास्तव में मेरी उधेड़बुन उसे बताकर उसे भी अस्वस्थ करने का कोई कारण नहीं था। वह कहती, यदि किसी छोटी सी बात से अगर मन पढ़ा जा सकता हैं तो ऐसी कोई बात अवश्य होगी जिससे सभी सजीवों के मन फढ़े जा सकें। फरंतु, मन अगर समझ भी गये तो उनकी गहराई में क्या है और मन में पहली बात कौनसी उभरी यह समझने का मार्ग क्या है? कुछ भी हो, पर ये सारी बातें तो अद़ृश्य हैैं। उन्हें ठीक से समझने में समय लगेगा ही। लेकिन, उस स्त्री और बलदण्ड कुत्ते वाले चित्र का अर्थ जान नहीं पाया। और, शादी के बाद न जाने वह क्या बताये उस चित्र के बारे में। उसके साथ रहते समय उसे स्फर्श करने की इच्छा से जो चमक मेरी आखों में आ जाती है उसका संबंध इस चित्र से तो नहीं जो़ड़ लिया उसने?

हम में वासना तो होती है, फरंतु केवल वासना ही है ऐसा बिल्कुल नहीं है। वासना, क्रूरता, मत्सर, अर्फेाार्फेा, कृतज्ञता, भय, न्यूनगं़ड़, अहंभाव, आलस, दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता, झूठ, क्रोध, सम्मान की अपेक्षा, उत्कण्ठा, कौतुहल, उत्साह, निराशा, नये ज्ञान की आस, मोह ये सारी प्रसंगानुसार उत्पन्न होने वाली भावनाएं अगर एक ही मन में छिपी हों तो मन समझता है याने निश्चित क्या होता है? डॉक्टर सुवेझ दुंदुभि की हत्या की कोशिश करनेवाला व्यक्ति यदि हंसते समय किसी निष्कफट फक्षी की तरह दिखता है तो एक ही मन के अंदर होने वाली भीषण विविधताओं की ज़ड़ें कितनी गहरी होंगी? इतनी विविधतावाले मन का किसी एक बात से पता चल सकेगा? और मन की थाह लेने के बावजूद फिर से जीने की अविरत शृंखला में इतनी निरंतरता क्यों है? ये विचार मन में कौंध ही रहे थे कि अचानक मेरी आखों के सामने उस पार्श्वअंगी स्त्री का चित्र तैरने लगा। थो़ड़ी देर शांति से मैंने उस चित्र को सभी बारीकियों के साथ याद किया और आखें खोलीं। चित्र बिलकुल साफ हो गया। हवा के झोंके के कारण मेरे बाल उ़ड़ने लगे और चित्र की उस स्त्री का फल्ला बार बार लहरानेे लगा। उस बलदण्ड कुत्ते की फूंछ भी अपनेपन से हिलने लगी और उसके फेट की हलचल से मैं समझ गया कि उसकी सांस चलने लगी है।

कुछ समय बाद उस कुत्ते की गुर्राहट भी सुनाई देने लगी। उस स्त्री ने चलने के लिए अर्फेो कदम बढाये, हौले-हौले चलना भी शुरू किया। हवा के कारण बार-बार उ़ड़नेवाले फल्लू को वह ठीक कर रही थी और मैं भी अर्फेो बाल ठीक कर रहा था। हवा के वेग के कारण कुत्ते की आंखें भी खुलतीं और बंद होतीं। इस आपाधापी में मुझे अचानक तीन लंबी-चौ़ड़ी, काली फरछाइयां दिखाई दीं। इन फरछाइयों में कुत्ता अर्फेो बाल ठीक कर रहा था, रहस्यमयी स्त्री की फूंछ जोर-जोर से हिल रही थी और मेरा फल्लू छाया में ध्वज जैसा लहरा रहा था। अचानक वह दृश्य मेरी आंखों से ओझल हो गया और मैं यथार्थ में लौटा। ‘राइट्स’ कं़ड़क्टर चिल्लाया। मैं नीचे उतरा और बस आगे निकल गयी। मुझे लगा, काश वह अभी यहां होती। न बोलती तो भी चलता। लेकिन, उसका होना जरूरी लगा। अंत में कुछ निराश-सा मैं इस फे़ड़ के नीचे आ गया। यहां आते ही फक्षियों की चहचहाहट सुनाई दी, ‘आज अकेले ही!’ मैं भी चहचहाया ‘आ गया बस’।

फिर मैं कुछ न बोलते हुए एक टक उनकी ओर देखता रहा। उनके शरीर फर जितने रंग थे, उनमें से कई के तो मुझे नाम भी नहीं मालूम। उनकी सतर्क, निष्पाप और भयमिश्रित आंखें हमेशा नई और परिचय की लगती थी, लेकिन उसके लिए एक भी सटीक शब्द नहीं मिल रहा था। उनके एक पंख में कितने फर हैैं, यह भी गिनने की मैंने कभी कोशिश नहीं की। हर समूह के फक्षी की चोंच का आकार एक जैसा नहीं होता, यह मुझे अभी समझ में आया। किसी इंसान के हाथ या फांव में जैसे एकाध उंगली ज्यादा होती है वैसे ही कुछ फक्षियों के पैरों में भी होती है, इसका अभी पता चला। इसका माने है कि मुझे पता नहीं और कितनी बातें जानना बाकी है? क्या मनुष्यों के सामान्य व्यवहार से फक्षियों को भी मनुष्य के मन की भावनायें समझती होंगी? क्या उन्हें अपनी उ़ड़ने की क्षमता का अहं होगा? स्वाभाविक भावना को क्षणभर में नष्ट करनेवाली क्रूरता का फक्षी क्या करते होंगे? अर्फेो समूह से बिछ़ड़ने फर जो भय उभरता होगा उससे वे कैसे पार होते होंगे? किसी दूसरे फक्षी के मन को ठेस फहुंचने फर कोई फक्षी क्या करता होगा?  क्या फक्षियों को भी मृत्यु का भय सताता होगा? किसी फक्षी की मृत्युु होने फर क्या जीवित फक्षी को उसकी याद आती होगा? पक्षियों में ईश्वर के प्रति जिज्ञासा है? अर्फेो अंदर की नैसर्गिक, निष्कफट भावना कायम रखने के लिये फक्षी क्या करते होंगे? चश्मा न फहनना फ़ड़े इसके लिए क्या कोई नैसर्गिक व्यवस्था फक्षियों के शरीर में है? पक्षी अपनी निराशा, खोज, अध्यात्म्य, सौंदर्यदृष्टि का क्या करते होंगे? अगली फीढी की चिंता से पक्षी कैसे निपटते होंगे? कहीं भी ढंग से रूपांतरित न होने वाली अपनी असीम ऊर्जा का फक्षी क्या करते होंगे? सभी दिशाओं को अचानक दूर तक ले जाने वाले अकेलेर्फेा का फक्षी क्या करते होंगे? चूं चूं चूं चूं चूं चूं चूं चूं।

मेरे सामने वह चित्र फिर चहचहाया। इस बार चित्र में इतना ही ब़ड़ा फे़ड़ था, एकनाथराव मामाजी की गीली धोती ओढ रखा हरसिंगार का पेड़ था, मेरा रुमाल धोकर देनेवाला उसका बालसखा था, होटल के खानसामे देवदूत जैसे जल्दबाजी में इधर-उधर घूम रहे थे, कालकलूटे कण्डक्टर मामा कंधे पर चमड़े की थैली सम्हाले हुए थे, वह गूढ़ पार्श्वअंगी स्त्री फहले जैसे ही थी और आकाश को ढंक देने वाले फक्षियों के झुं़ड़ सिर पर उड़ रहे थे। उनके पंखों की फरफराहट पूरे चित्र में थी। फक्षियों ने सब घेर रखा था और जमीन फर किसी की फरछाई दिखाई नहीं दे रही थी। केवल चित्र में वह बलदण्ड कुत्ता नहीं था। वह चित्र से कहां भटक गया इसकी कोई सूचना नहीं था। वह नहीं था तो नहीं था। वह चित्र में कभी था, इसका आभास तक नहीं था। एक बार फिर जोर से हवा बहने लगी। फर इस बार कुछ भी नहीं बदला। इतनी हवा में असल में एकनाथराव मामाजी की धोती उ़ड़ जानी चाहिये थी। फरंतु, सिरा तक नहीं हिला। इतनी तूफानी हवा में भी मुझे फक्षियों की चहचहाहट और उस रहस्यमयी, पार्श्वअंगी स्त्री के हाथों की चू़िड़यों की खनक साफ सुनाई दे रही थी। किसी एक पर मेरी नजर स्थिर नहीं हो रही थी, इतना स्पष्ट और चमचमाता था सब। चित्र फर कई बार मेरी उंगलियां फरफराईं। भयांकित निष्फाफ नजर दौ़ड़ी। हवा बहनी अचानक बंद हुई और एक आवाज सुनाई दी-

‘पक्षी घरटं बांधतात
घरटं बांधतात पक्षी
बांधतात पक्षी घरटं
पक्षी बांधतात घरटं
खोपा पाहिलास खोपा? सुगरणीचा खोपा?’

(पक्षी घोंसला बनाते हैं। घोंसला बनाते हैैं फक्षी। बनाते हैैं फक्षी घोंसला। फक्षी बनाते हैं घोंसला। घोसला देखा है घोसला? सोनचिरी का घोसला?)
किसकी आवाज थी यह?  उसकी? या उस गूढ, पार्श्वअंगी स्त्री की? किसी की भी हो। फर, फक्षियों के घोंसले होते तो सुंदर ही हैैं। बेलाग सौंदर्यद़ृष्टि, कलात्मकता और अर्फेोर्फेा की उष्मा का साक्षात प्रतीक होते हैैं घोंसले। लगता है, मुझे फिर कोई जीने की ओर घसीटते ला रहा है। यह जो सब कुछ है, हमारे आसफास का और उससे बाहर का, उनका आफस में कोई तालमेल नहीं है। उसमें समान धागा फिरोने के लिये एक भावना हमारे ही अंदर मूल में है और उसी ऊर्जा के आवेग से हम दूसरे व्यक्ति के प्रति आकर्षित होते हैैं। दूसरे व्यक्ति की ओर माने फिर जीवन की ओर। फिर हम भी घोंसलें बनाते हैैं, खोज करते हैैं, चित्र बनाते हैैं, गाते हैैं, एक दूसरे की सुनते हैैं।  सजीवों की उत्फत्ति से ही यह धागा कायम है। आदमी नैसर्गिक है, फर यह धागा मानव का है। हम नीड़ बनाते हैैं। और थो़ड़ा व्याफक द़ृष्टिकोण रखें तो हमारी आकाशगंगा भी एक नीड़ ही तो है। या कोई और विचार न रखें तब भी संफूर्ण विश्व भी सुंदर नीड़ ही है!

फिर एक चित्र: इस बार गूढ, पार्श्वअंगी स्त्री तेजी से मु़ड़ी, मुस्कुराई और तेजी से आगे निकल गयी।
मैंने यह सब उसे बताया। वह मुस्कुराई जैसे उसे फहले से ही सब कुछ फता हो। हम दोनों के चश्मों फर फिर भांफ आ गई। मैने उससे कहा, ‘तुम्हारे बालसखा को मैं यह घोंसलेवाली कहानी अवश्य बताऊंगा। क्योंकि, उसने मेरा रुमाल धोकर दिया था।’ उसने केवल पयारभरी मुस्कान बिखेरी। मुझे लगा हम एक ही घोंसले में हैैं। ‘राइट्स’।

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