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सुबह तो हुई…!

सुबह तो हुई…!

by दामोदर खड़से
in कहानी, जुलाई २०११, सामाजिक
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टैक्सी में हम तीनों ही थीं। सबको मालूम हो चुका था कि अब किसी भी स्थिति में ट्राफिक जाम से बाहर निकलना बहुत मुश्किल काम है। वैसे तो दोपहर बारह बजे से ही चारों ओर भगदड़ मची हुई थी और ऑफिस से लोगों का घर भागना शुरू हो गया था। हमने भी सोचा था, पर ऐसा लगा नहीं था कि पानी अजगर की तरह सड़कों को लील जाएगा। ऐसा अजगर जिसका पूरा शरीर ही विकराल मुंह हो और हर चीज उसका निवाला।

ट्रेनें कब की बंद हो चुकी थीं। मुंबई की खासियत है कि हर बरसात एक-दो दिन के लिए ट्रेनों को आराम देती है। लोग भी ऐसी अनचाही छुट्टी को खूब मनाते हैं। पर यह दौर तो अभी-अभी आकर गुजर चुका था….फिर भी चारों ओर पानी ही पानी….बारिश है कि..रुकने का नाम ही नहीं लेती। एक मटमैला सागर शहर में पसर रहा था।

हमारा टैक्सीवाला भी बहुत परेशान था, टैक्सी के आधे पहिए डूब चुके थे। पर पानी तो चारों ओर था। ऊपर से धुआंधार बारिश। चारों तरफ अफरातफरी। जो भी दिखता दहशत में सिर पर पैर रखकर भागता होता, अफवाहों का गोला उछल जाता… अरे आगे तो बाढ़-सी हालत है। तीन लोग बह गए… टैक्सी बहुत मुश्किल से मिलती। खतरा जो था, बह जाने का। पर इस टैक्सीवाले के अपने घर की तरफ जाने वाली लंबी सवारी थे हम-अंधेरी के लिए। हमें उसने बिठा लिया। फोर्ट से किसी तरह धीरे-धीरे हम आगे बढ़ते गए। कई बार टैक्सी के पहिए पानी में पूरी तरह डूब जाते। मेरा दिल डूबता जाता। मन ही मन देवी मां को याद करती। मालूम था अब आदमी के हाथ में कुछ भी नहीं है। हम लगभग चार बजे दोपहर में चले थे। पांच घंटे हो गए दादर भी नहीं पहुंचे थे। आधे घंटे का रास्ता है-पांच घंटे लग गए।

सहारा एक ही था-मोबाइल….। बस घर फोन कर लेती। मोबाइल का इतना उपयोग कभी नहीं था। पर अभी तक घर कोई नहीं पहुंचा। सम्यक अभी तक नहीं पहुंचे। उन्होंने भी तो कहा था कि वे पांच बजे आफिस से निकल चुके हैं। सम्यक को कितनी बार कहा कि अब मोबाइल ले ही लेना चाहिए। पर उनका कहना था कि पहले साम्या के लिए लेंगे। वह कॉलेज में पढ़ती है। आजकल कॉलेज की सभी लड़कियों के पास मोबाइल होता है….इसलिए भी जरूरी है कि हमारी चिंताएं कम रहेंगी और साम्या को सुरक्षा का अहसास रहेगा,

‘मम्मा… कहां है आप?
‘बेटे, तू ठीक तो है न… घर पहुंच गई?
मैं घर के पास हूं…सेफ हूं…डोन्ट वरी….आप कहां हैं?
‘मैंने अभी दादर पार किया है…पापा से कान्टेक्ट हुआ?

‘नहीं, घर का फोन खराब हो चुका है। मेरी दूसरी सहेलियों के घर भी फोन नहीं लग रहा है। वे दोनों मेरे साथ ही हैं। उन्हें बोरिवली जाना है। मैंने उनसे हमारे घर ही चलने के लिए कहा है।’

‘तू अपना ख्याल रख बच्चे और तुम तीनों घर जाना सीधे। संभलकर रहना, मेरी चिंता मत करो। मेरे साथ सुचेता और शुभ्रा आंटी हैं। हम किसी तरह…‘ये क्या हुआ फोन कट गया। मोबाइल आउट आफ रेंज….हे भगवान…बच्ची की रक्षा करना….अब क्या होगा?’

‘सुचेता तुम्हारा मोबाइल चल रहा है?’
‘एक मिनट…है तो…।

‘जरा जल्दी से तुम्हारा नंबर साम्या को दे दो… कोई इमरजेंसी रहे तो संपर्क रहेगा….बच्ची भी आश्वस्त रहेगी……।
सुचेता ने अपना मोबाइल मुझे दे दिया। मैंने साम्या का मोबाइल मिलाया और बताया कि यह सुचेता आंटी का है। हम साथ-साथ हैं। इस नंबर पर फोन कर लेना। साम्या ने भी राहत की सांस ली।

तभी टैक्सी लंबे ट्रैफिक जाम में फंस गयी। धुआंधार बारिश। हाथ को हाथ न सूझता। टैक्सी के कांच दूधिया हो गए। केवल टैक्सियों की धूमिल-सी बत्तियां दिखाईं देतीं। वाइपर घूमता तो था पर कोई फायदा नहीं। दूसरे ही सेकेंड में जैसे थे। टैक्सीवाला भी बेचैन, बेहाल। शायद पेट्रोल भी कम था।

‘मैडम आप लोग उतर जाइए। मैं टैक्सी अगले ग्राउंड पर पार्क कर दूंगा, यदि आगे जा सके तो आप दूसरी टैक्सी ले लीजिए….’
‘दूसरी टैक्सी?’ तीनों के मुंह से अचानक एक साथ निकला। ‘ऐसा क्या कहते हैं….आप देख रहे हैं, सभी मुसीबत में हैं और आप दूसरी टैक्सी की बात करते हैं…’ ऐसा लग रहा था, हम तीनों एक साथ बोल रही हों। हमने एक-दूसरे को देखा तो ऐसा ही कुछ लगा। फिर टैक्सी वाले की आवाज फर ध्यान गया…

‘ टैक्सी के इंजिन में पानी चला गया तो सब ठप्प हो जाएगा…मेरा बहुत नुकसान होगा। फिर पेट्रोल भी कम है।’ सुचेता और शुभ्रा एक-दूसरे को देखकर रुआंसी हो गयी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मुट्ठियां भिंच गईं, दांत आपस में टकराए। पर यह समय गुस्सा दिखाने का नहीं था। दिमाग से काम लेना था। मैंने कहा, ‘भाई साहब, आपके घर की बहन-बेटी ऐसी फंसी होतीं तो क्या आप यह सब इस तरह सोचते? आपको मालूम है, दूसरी टैक्सी अभी नहीं मिलेगी। किसी तरह हममें से किसी एक के घर आप छोड़ दीजिए…प्लीज….भगवान आपका भला करेगा…’

‘पर मेरा नुकसान कौन देगा?’
‘नुकसान की क्या सोच रहे हैं। कहीं खड़ी करेंगे, वहां से बह गई तो? यहां जान की पड़ी है आप नुकसान की कह रहे हैं….।’ बोल तो गई मैं पर लगा कुछ ज्यादा कड़ा हो गया। कहीं उसने ठान लिया और जबरन उतार दिया तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। यह सोचकर मैंने उसकी तरफ देखा। वह बुदबुदाना चाह रहा था। मैंने तुरंत कहा दिया ‘भइया, हम आपका नुकसान भर देंगे। बस….।’

उसने पीछे देखा और आगे बढ़ने के लिए टैक्सी शुरू की। हम अंग्रेजी में बातें कर रही थीं। मोबाइल आते। शायद उसे लगा होगा कि इनसे ज्यादा उलझना ठीक नहीं। काफी देर तक चुप्पी छाई रही। हम अपने-अपने परिवार के सदस्यों की चिंता को लेकर खोए रहते। तभी उसने कुछ नरम आवाज में कहा, ‘बहनजी, हमारा बहुत नुकसान होगा।’

‘पर आप जा भी कहां सकते हो। अब सबका रास्ता एक-अंधेरी। कुछ मत सोचो। कुछ नुकसान होगा तो हम देखेंगे…।’ मेरी आवाज में पता नहीं कहां से जोश आया। सुचेता और शुभ्रा की आंखों में मेरे लिए समर्थन था। बिजली गुल हो गयी। पूरे सिस्टम में ही कोई खराबी थी। हम एक दूसरे का चेहरा भी देख पा रही थीं, मुश्किल से क्योंकि टैक्सियों के टेल लाइट और हेड लाइट चल रहे थे। वैसे चारों ओर अंधेरा था। टैक्सी के दरवाजे का लॉक हमने दोनों ओर सुनिश्चित किया। टैक्सीवाला शरीफ था। उसकी बातों से यह लगते जा रहा था। पर डर भीतर गाढ़ा होता जा रहा था। तीनों चुप थीं। टैक्सीवाला भी। अब तो दस भी बज गए। जिनको-जिनको कोसना था, सब हो गए। महानगरपालिका के ड्रेनेज, सरकार की लापरवाही, रेलसेवा की असलियत…फिर घर का ख्याल आया…..साम्या पहुंची कि नहीं। सुचेता के मोबाइल से फोन करने ही वाली थी कि सुचेता का मोबाइल बजा। मैंने मोबाइल सुचेता को दे दिया। सुचेता के हैलो कहते ही साम्या की आवाज ने मुझे चौंका दिया। सुचेता से लगभग मोबाइल छीनते हुए मैंने अपने कान में लगा लिया।

‘बच्चा ठीक तो है न तू….कहां है। घर पहुंची….पापा आए….फोन ठीक है…?
‘हां मम्मा….ठीक हूं। दोनों सहेलियां भी यहीं हैं। पर मम्मा तुम कहां हो। ठीक तो हो। अपना ख्याल रखना। पापा घर आ गए हैं, लो बात करो….।

सम्यक ने कितनी आतुरता से मोबाइल लिया। कितने सवाल पूछे। मेरे पास उनके न पहुंच पाने की मजबूरी उन्हें ग्लानि में धकेल देती। मैं ही उन्हें आश्वस्त कराती रही। हम तीनों हैं। टैक्सीवाला भइया बहुत अच्छा है। आप चिंता मत करो। हम जैसे ही सुविधा होगी जल्दी पहुंच जाएंगे।

‘पर मैंने सुना कि बांद्रा के पास बाढ़ जैसी हालत है। एक कार और कई लोग बह गए….’
‘सम्यक अब ऐसा कुछ मत सोचो। मुझे कुछ नहीं होगा। भगवान पर भरोसा रखो। जैसे ही संभव है हम पहुंच जाएंगे। देखो तुम इधर निकल आने की बिल्कुल कोशिश मत करना। कोई फायदा नहीं…चिंता और बढ़ जाएगी।’ मेरी बात चल ही रही थी कि सुचेता का मोबाइल ऑफ हो गया।

शुभ्रा, टैक्सी ड्राइवर के ठीक पीछे खिड़की के पास बैठी थी। वह बहुत देर से बेचैन थी। सभी बेचैन थे। पर वह कुछ दूसरी तरह बेचैन थी। सुचेता से धीरे से उसने कहा, ‘पास की दूसरी टैक्सी में बैठा वह आदमी मुझे काफी समय से घूर रहा है…मुझे तो डर लग रहा है….’

तभी टैक्सी ड्राइवर की आवाज सबने सुनी और हम तीनों दंग रह गईं, ‘बहनजी, घबराने की कोई बात नहीं। मैं हूं न। आप लोग बिल्कुल चिंता न करें।’

हमें ड्राइवर की इस आवाज पर पहले भरोसा ही नहीं हुआ। पर यह उसी की आवाज थी। उसकी आवाज से नफा-नुकसान का हिसाब गायब हो गया था और उसके भीतर का आदमी हम तीनों के साथ था। उसके साथ हमने जो शांत व्यवहार किया था, उसने उसके भीतर के नुकसान और उसकी अपनी तकलीफों को हमारे साथ जोड़ दिया। शुभ्रा ने अब पास वाली टैक्सी की तरफ पीठ कर ली थी। आंचल सिर के ऊपर से ढंक लिया था। मैंने उसे आश्वस्त किया, ‘कम ऑन शुभ्रा….कुछ नहीं होगा। इतनी टैक्सियां-गाड़ियां हैं, इतने लोग हैं….और तुम…’

‘अक्षता, वह देर से हमारी ओर ताक रहा है। उसकी नजर सही नहीं है. ’ शुभ्रा टैक्सी के दरवाजे के लॉक को टटोल लेती।
‘क्या करेगा….हं ऽ….यहां जान की पड़ी है….।’ मुझे लगा कि आधी रात तक शुभ्रा को इस तरह अकेले में अटक जाने का खौफ तो है ही, ऊपर से उसकी स्त्री की बेचैनी…..। मुझे पता नहीं कहां से हिम्मत आ रही है….मैं ही बोलती रही इस टैक्सीवाले से और इस अंधेरे से, इस बारिश से…शायद अकेले बाहर टूर पर जाने के मेरे अनुभवों ने कुछ साहस दिया हो…पर वो लखनऊ एयरपोर्ट की रात…बाहर टैक्सीवालों ने अकेली देखकर किस तरह घेर लिया था…मेरी तो बोलती बंद हो गयी थी। ऐसा कभी नहीं हुआ था। तभी क्षितिज पास आए और अपने टैक्सी में चलने के लिए ऑफर दिए। क्षितिज, मुंबई की ही एक कंपनी में काम करते हैं। बिजनेस के सिलसिले में उनसे मुलाकात कभी-कभार हो जाती थी। पर ऐसा कोई खास परिचय नहीं था। जिस स्थिति में वे मिले मेरे लिए बहुत बड़ा सहारा थे। मैंने अपनी किस्मत को धन्यवाद दिया। ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिए। एक पल की भी देर नहीं की और उनके साथ हो ली। टैक्सी शुरू होने के बाद काफी देर तक मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला…उन्होंने ही पूछा….

‘सब ठीक तो है…नई जगह में ऐसी दिक्कतें आती ही हैं….?’
मैंने बहुत साहस कर उनकी ओर देखा तो लगा आंखों की घनी बारिश में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, ज्यों किसी कार का वाइपर ऐसी बारिश में टूट गया हो। मेरे मुंह से केवल निकला ‘सॉरी…’ और लगभग मैं फफक पड़ने को हुई। तभी क्षितिज की गहरी आवाज ने थाम लिया…

‘कम ऑन, होता है, कभी-कभी….।’
लखनऊ में अपना पहला प्रवेश मैं कभी नहीं भुला पाई। होटल के रिसेप्शन पर उन्होंने मुझे छोड़ा और बोले, ‘कब तक हैं यहां…?’
‘परसों निकलना है….।’

‘अच्छा, मुझे तो कल शाम को ही दिल्ली जाना है।’
जब तक और बात हो होटल के रूम बॉय ने लगेज उठा लिया था और मैं इतना ही कह पाई….
‘क्षितिज जी थैंक्स फार एवरी थिंग….।’ मेरी आंखें कृतज्ञता से भर आई थीं….
क्षितिज….अंधे आकाश में अनायास एक आभास….एक हल्की-सी मुस्कान चेहरे पर छिटक गयी। शुभ्रा मेरी हिम्मत से आश्वस्त होकर मुझे कबसे निहार रही थी….मैंने अपनी अधूरी मुस्कान में शुभ्रा को आश्वस्त पाया। तभी टैक्सीवाले की आवाज ने फिर हम तीनों को एक-दूसरी की निगाहों के सामने ला दिया, ‘बहन जी, आप लोग बिल्कुल चिंता न करें, जब तक मैं जिंदा हूं, आप लोगों को कुछ नहीं होगा….निश्चिंत रहें….।’
हम तीनों चुप…..एक दूसरे को देखती रहीं…तभी धुआंधार बारिश की घनी बौछारों ने बाहर की दुनिया से हमको अलग-थलग कर दिया। घूरने वाला आदमी तो दूर, उसकी टैक्सी भी दिखाई नहीं दे रही थी…
रात के दो बज रहे थे। बारिश कुछ कम हुई थी। सभी संपर्क कट चुके थे। केवल हम तीनों एक-दूसरी को दिलासा दे रही थीं। हां, अब टैक्सीवाला भी हमारी चिंताओं का भागीदार बन गया था। घुप्प अंधेरा चारों ओर….कभी टैक्सी चलती, कभी रुक जाती….पता ही न चलता कि हम कहां हैं। बाहर कुछ भी दिखाई न देता।
शुभ्रा ने सिर पर आंचल ओढ़ लिया था। उनींदे तो सभी थे, पर उसे थोड़ी झपकी लग जाती। मैं जब भी आंखें बद करती, मुझे सुचेता का खयाल आता। वह हम दोनों के बीच में बैठी थी। डर उसके भीतर अधिक था। मेरी झपकी से वह बेचैन हो जाती। मैं आंखें खोलती तो लगता वह कबसे मेरी खुली आंखों का इंतजार कर रही है। वैसे झपकी मुझे भी कहां थी। हम मौन बातें करते। तभी टैक्सीवाले की आवाज काफी देर बाद सुनाई दी, ‘अब हम बांद्रा फ्लाइओवर पर हैं। अब कम से कम बहने का खतरा नहीं और न ही डूबने का….।’

उसकी आवाज में जान की सलामती की खुशी तो थी ही, साथ ही, अब उसकी टैक्सी भी सुरक्षित रह सकेगी। लंबा फ्लाईओवर था। पक्का ट्राफिक जाम….
सुचेता की हलचल ने मेरी आंखों को जबरन खोला। घड़ी देखी, सुबह के छह बज रहे थे। शुभ्रा की आंख लग गयी थी।
सारी टैक्सियां, गाड़ियां चींटी की कतार में, न कोई ओवरटेक न कोई स्पीड….
सुचेता की थकान से एक आश्वस्ति झांक रही थी, ‘चलो, आखिर सुबह हो तो हुई….।’ उसकी उतनी-सी आवाज से शुभ्रा हड़बड़ाकर जाग गई। सबसे पहले उसने टैक्सी का लॉक टटोला…बंद था। फिर हम दोनों को देखर एक नि:श्वास छोड़ा और बगल में झांका तो एक टैक्सी हमारी टैक्सी के बिल्कुल पास….वह चीखी, जोर से।….वही घूरने वाला आदमी इतने करीब आ गया था। वह सुचेता से बुरी तरह लिपट गई। सुचेता भी अपनी सिरहन नहीं बचा पाई। उसने भी शुभ्रा को भींच लिया। मैंने गौर से देखा, बगलवाली टैक्सी की पिछली सीट पर बैठा आदमी एक टक देख रहा था। कांच पर उसका सिर टिका हुआ था आंखें खुली थीं। मैंने इधर-उधर हिल-डुलकर उसे गौर से देखना चाहा। पर वह निर्विकार….इधर बड़ी मुश्किल से शुभ्रा ने फिर अपना मुंह हमारी ओर कर लिया और संभलने की कोशिश करने लगी। अब सुबह भी हो चली थी। रात का आतंक कम हो गया था। हालांकि बारिश जारी थी। पर हम फ्लाईओवर पर थे। हमारा टैक्सीवाला नीचे उतरा कुछ तमतमाया हुआ। उसकी सवारियां आहत थीं। कोई शरारत कर रहा था। भला इस तरह कोई किसी को घूरता है। शुभ्रा के साथ वह भी आहत था। वह तैयारी से नीचे उतरा था। उस आदमी के सामने वह खड़ा था। कोई अनहोनी मुझे कचोटने लगी थी। पर ऐसा भी क्या घूरना कि कोई बेचैन ही हो जाए।

हमारे टैक्सीवाले ने घूरने वाले आदमी के पास जाकर टैक्सी का शीशा थपथपाया….पर घूरने वाले की आंखें निर्विकार…पथरीली…सफेद फक्क….हमारे टैक्सी ड्राइवर को कुछ अनहोनी लगी….कांपते हाथों और थर्रायी आवाज में वह शब्दहीन अजीब-सा चीखा और शीशे को लगभग झिंझोड़ते हुए वह चिल्लाया, ‘अरे देखो, इसे क्या हो गया?’ उस आदमी के पास बैठे आदमी ने हड़बड़ाकर उसे देखा और चीखते हुए दूसरे आदमी के साथ टैक्सी से बाहर हुआ। वे दोनों और उसके टैक्सी ड्राइवर की हड़बड़ी और बेचैनी से लग रहा था कि वे किसी भयानक दु:स्वप्न से जागे थे….ज्यों कोई बर्फीला अजगर उनकी टैक्सी में घुस गया हो। वे चारों आपस में परिचित नहीं थे। केवल मुंबई की इस जानलेवा बारिश ने उन्हें जोड़ा था।
उसकी बगल में बैठे आदमी ने कहा, ‘यह आदमी रात भर जाग रहा था। रह-रहकर उसके बदन में थरथराहट होती….कुछ उल्टी जैसा उसे लगता और वह पूरा चेहरा शीशे की ओर कर लेता….मुझे थोड़ी सी झपकी लगी और मैंने उसकी थरथराहट महसूस की थी…पर लगा इसे या तो फिट आने की बीमारी होगी या तो इसे बहुत ठंड लग रही होगी….मैं चाहकर भी आंखें नहीं खोल पाया….अधजगी नींद में मुझे लगा कोई विशाल अजगर मेरे बेडरूम में घुस आया है….मेरी आंखों के सामने लाल रंग-सा उभरा और सारा बदन ज्यों बर्फ से ढंक गया हो….मैं चीख रहा था नींद में…पर आंख नहीं खुल रही थी…फिर आंख लग गयी……!’
सब उसकी बात सुन रहे थे। पता नहीं मुझे क्यों-क्या लगा….मैं टैक्सी से बाहर आई और बोली, ‘जरा देखिए, क्या हो गया।’ टैक्सी का दरवाजा भीतर से लॉक था। ड्राइवर ने लॉक खोला। टैक्सी का दरवाजा जैसे ही खुला, वह आदमी लुढ़ककर नीचे गिरा। बाहर बारिश थी, धुआंधार। सब कुछ खत्म हो चुका था। लोग भीगते हुए उस अनजान आदमी को घेरे खड़े थे-जो अब केवल ‘बॉडी’ रह गया था। सब हक्के-बक्के। किंकर्तव्यमूढ़।

शुभ्रा ने आंचल अपनी नांक से लगा रखा था और अब अधिक भयभीत नजर से उस आदमी को देख रही थी। बाहर धुआंधार बारिश, भीगते हुए हम सब, शुभ्रा की डबडबाई आंखें…..और सवाल सिर पर….अब आगे क्या? सुबह का बेसब्री से इंतजार था। सुबह तो हो गयी थी। पर सवालों का अंधेरा अधिक गहरा था। भीगते हुए लोगों की भीड़ बढ़ रही थी….बारिश है कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी।

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