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बरखा की पहली सौगात ले आये

बरखा की पहली सौगात ले आये

by ॠषि कुमार मिश्र
in जुलाई २०११, सामाजिक
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पृथ्वी पर आने वाली छहों ऋतुओं में प्रकृति छह बार नूतन शृंगार करती हैं। यों तो ऋतु चक्र में प्रकृति के सभी रूप मनोहर होते हैं, किंतु झुलसते ग्रीष्म के बाद उमड़-घुमड़ कर आने वाले मेघों को देखकर मन विशेष आह्वाद व शीतलता का अनुभव करता है। वर्षा की फुहारें मनुष्य ही नहीं, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और वनस्पितयों तक नवजीवन का संचार कर देती हैं। कृषि प्रधान होने के कारण भारत में वर्षा ऋतु का एक अलग महत्व है। यहां की शस्य-श्यामला भूमि की उर्वरता व सौंदर्य वर्षा पर ही निर्भर है। आकाश के कोर में दिखायी देने वाले मेघों की पतली लकीर भी यहां बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सबके मन को उत्साहित कर देती है। मोर भी जलघरों की आहट सुनकर नृत्य करने लगते हैं। बैसाख जेठ की तपती गर्मी व लू के थपेड़ों से आहत ग्रामीण कभी घोंसला बनाने के लिए तिनके ढोती बया की उड़ानों में तो कभी चौमासे के लिए खाद्य सामग्री एकत्र करती चीटियों की पांतों में बरसात के पद-चिन्ह खोजने लगते हैं। ज्योंही आकाश के किसी निरभ्र कोने में पंक्तिबद्ध गजराजों की भांति बदलों की आवाजाही दिखायी देती है, जन-समुदाय की आंखों में आशा की किरण कौंध जाती है। बरसात की प्रतीक्षा में व्याकुल लोगों को प्रसिद्ध गीतकार यश मालवीय अपने एक गीत में इस प्रकाश आश्वस्त करते हैं-

‘‘ कोई नहीं रेत के घर में प्यासा तरसेगा
गहरी उमस साफ कहती है पानी बरसेगा ।
गीत घरौंदे भरी भीड़ में आंखें खोलेंगे
भूखे बच्चों को यह मौसम थाली परसेगा।
टूट गये सपनों की भी भरपाई होगी ही
कोई नहीं जियेगा जिंदगानी आधी-तीही
हरषेंगे दालान-बरोठे, आंगन हरषेगा
बर्फीले पहाड़ पर भी पदचिह्न बनायेंगे
काई का अस्तित्व फिसलते पाँव बतायेंगे।
खुद उधेड़बुन की आंखों को सूरज दरसेगा ।

जब भी आकाश के विशाल मैदान में खेलकूद करते बादल बिना बरसे बिलाने लगते हैं तो मन गहरी आशंका से भर जाता है। तब प्रारंभ होती है बादलों की मान-मनोवल। आशांकित मन द्वारा बादलों को मनाने के कातर भाव को कवियों ने अपने गीत में भिन्न-भिन्न प्रकार से वाणी दी है। कुंवर बेचैन की पुकार है-

‘‘बहुत प्यासे हैं, थोड़ा जल पिला दो
गगन, तुम धूप को बादल बना दो’’
गीतकार नीरज के गीत में यह लोकस्वर इस प्रकार फूट पड़ता है-
‘‘ हो हो भैया पानी दो, पानी दो गुड़धानी दो
जलती है धरती पानी दो, मरती धरती पानी दो
अंकुर फूटे रेत में, सोना उपजे खेत में
बैल पियासा, भूखी है गैया
नाचे न अंगना में सोन-चिरैया
फलस बुवैया की उठे मड़ैया
मिट्टी को चूनर धानी दो।’’

जब हवाओं के घेरे में बंधे ढेर-ढेर बादल उमड़-घुमड़ कर आसमान से बरसात का उपक्रम करने लगते हैं ,तो जगदीश गुप्त का गीत का उठता है-

‘‘बादल घिर आये री बीर!
फिर-फिर आये, घिर-घिर आये
गरज-तरज गंभीर!
नैना रोयें, आंसू बोयें
तभी गगन से फूट धरा पर
बरसा इतना नीर।
डगमगा नैया, फिर पुरवैया
पाल खींच कर लिए जा रही
खींचे मेरा चीर।’’

एक कस्बाई शहर में जब बरसात का आगमन होता है तो क्या दृश्य होता है। इसे प्रख्यात शायर निदा फाजली इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-

‘‘छन-छन करती टीन की चादर
सन-सन बजते पात।
पिंजरे का तोता दुहराता
रटी‡रटाई बात।
मुट्ठी में दो जामुन
मुँह में एक चमकती सीटी,
आंगन में चक्कर खाती है
छोटी सी बरसात।’’

वर्षा ऋतु हरियाली का त्योहार मनाने, बागों में झूला-झूलने, कजरी, सावन, राग मल्हार गाने की ऋतु है। धरती के तृप्त होने, पेड़-पौधों के खुशी व उल्लास से झूम उठने की ऋतु है। प्रफुल्लता के इस वातावरण में कवि सूर्यभाानु गुप्त का मन भींग कर गा उठता है।

‘खेल मौसम भी खूब करता है
छींटे आते हैं मेरे अंदर तक
मेंह बाहर मेरे बसता है’’

वर्षा ऋतु में प्रकृति असाधरण शृंगार से सज्जित होकर प्रेमियों के मन में उमंग की हिलोर उत्पन्न कर देती है। पहली बरसात की बौछारें पड़ते ही धरती सोंधी-सोंधी महक के रूप में गा उठती है, तो पहली बरखा का प्रियतम से उपहार पाकर प्रियतमा का मन-मयूर झूझ-झूम कर गा उठता है । इसका कवि कैलाश गौतम ने निम्न गीत में अत्यंत हृदयग्राही चित्र खींचा है।

‘‘अंजुरी भर मेंहदी के पात पिया ले आये
बरखा की पहली सौगात पिया ले आये
मौसम ने गीत दिया, स्वर दिया घटाओं ने
आंचल को पंख दिया, मुंह लगी हवाओं ने
आंगन में रिमझिम बरसात पिया ले आये ।
तन जैसे फूले गुलमोहर की डाल छुआ
मन जैसे बार-बार हाथ का रुमाल हुआ
जीवन का मंगल अहिवात पिया ले आये।
चींटी सी बींद गयी पोर-पोर बौछारें
सब कुछ जैसे अपना क्या जीतें कच्चा हरें
दिन दुपहर मधुवंती रात पिया ले आये ॥

आशा की जानी चाहिए कि ऋतु चक्र यूं ही चलता रहे, बरसातें यूं ही आती रहें, वन-प्रांतर, बाग-बगीचें, खेत-मैदान हरियाले रहें, पेड़ों की डालों पर झूलती हुई युवतियां सावन गाती रहें, प्रेमियों के हृदयों में बारिश की बौछारों से प्रेम की हिलोर उठती रहे, हमारे ताल-पोखर नदी-नाले, निर्झर सदैव जीवन रस से पूरे रहें तथा यश मालवीय को कभी न कहना पड़े कि-

‘‘सुनना तुम मांग मत मछलियों की करना
सूखे हैं नदी ताल, सूख गया झरना’’

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