मार खाना छोड़ो, मारना सीखो

वर्तमान युग में सत्ता कहां होती है? इस सवाल का जवाब देते हुए कहा जाता है कि, सत्ता के पांच केन्द्र होते हैं
(१) ज्ञान सत्ता (२) धनसत्ता (३) राजसत्ता (४) धर्मसत्ता और (५) प्रसार माध्यम (मीडिया) की सत्ता। पहली चार प्रकार की सत्ता सैकड़ों वर्षों से ज्ञात है। अंतिम सत्ता अर्थात प्रसार माध्यम की सत्ता अठारहवीं शताब्दी के अंत में शुरू हुई और २१वीं शताब्दी तक मीडिया की शक्ति अत्यंत बलवान हो गई। मीडिया की सत्ता जिस प्रकार लोगों का दिमाग ठीक रखने के लिए उपयोगी है, उसी प्रकार यह लोगों का दिमाग विकृत करने के लिए भी जिम्मेदार हे। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में, चाहे वह राज्य व्यवस्था हो या समाज व्यवस्था हो, मीडिया की सत्ता को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है।

सत्ता के विषय में कहा जाता है कि सत्ता भ्रष्ट बनाती है। सत्ता जितनी शक्तिशाली होगी, भ्रष्टाचार उतना ही अधिक होगा। मीडिया भी इसका अपवाद नहीं है। मीडिया में बैठे लोगों के मस्तिष्क में जब से सत्ता की हवा घुसी है तबसे मीडिया को लगने लगा है कि केवल देश ही नहीं तो पूरी दुनिया को मीडिया ही चला रहा है। गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता जिस प्रकार विचार करता है कि गाड़ी वही खींच रहा है, वही स्थिति मीडिया की है। जब ऐसी स्थिति पैदा होती है तब विश्वसनीयता भी समाप्त होने लगती है। अनेक भारतीय न्यूज चैनल्स के हालात आज कुछ इसी प्रकार के हैं। अब लोग इसका मजाक बनाने लगे हैं। टी.वी. के कुछ एंकर एक कान्फरेंस में गए थे। नौका से वे सब वापस आ रहे थे। उसमें से एक एंकर की मृत्यु हो गई। कप्तान को इसकी जानकारी प्राप्त हुई। कप्तान को लगा यह कहां एक नई झंझट आ गई। उसने अपने विश्वसनीय खलासी को बुलाकर कहा कि सतरा नम्बर के केबिन में जा। वहां एक एंकर मर गया है, उसको उठा और समुद्र में फेंक दे। दूसरे दिन कप्तान खलासी को बुलाकर पूछता है, ‘‘रात को कहा था वह काम हो गया क्या?’’ खलासी ने जवाब दिया, ‘‘हां साहब, कर दिया।’’ कप्तान ने फिर पूछा, ‘‘कोई गड़बड़ तो नहीं हुई न?’’ खलासी बोला, ‘‘थोड़ी गड़बड़ तो हुई। आपकी सूचना के अनुसार में १५ नं. केबिन में गया, एंकर को उठाया तो वह चिल्लाने लगा, मुझे क्यों फेंक रहा है? मैं मरा नहीं हूं। सतरा नं. का एंकर मरा है। पर साहब इन एंकरों पर कौन विश्वास करे, वे लोग हमेशा सच का झूठ करते रहते हैं। इसीलिए मैंने उसे उठाया और समुद्र में फेंक दिया।’’

‘टाइम्स नाऊ’ में बोलने वाले पर चीते की तरह झपटने वाला एंकर, आय.बी.एल. पर सुविधाजनक पक्ष न हो तो न बोलने देने वाला एंकर और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की रक्षा की मानो केवल उन्हीं पर जिम्मेदारी है, ऐसी समझ रखने वाला एन.डी.टीवी का एंकर कभी भी जनमत के निर्माता नहीं हो सकते। न ही कुछ बिगाड़ सकते हैं। उनके सुनने वाले लोग घुटने में दिमाग रख कर नहीं बैठे हैं। उनका सत्य क्या है और झूठ क्या है, कौन सही है, कौन गलत है यह समझ में आता है। फिर भी इन चर्चाओं को सुनने वाले चर्चा सुनकर असहज हो जाते हैं, कि आखिर ये क्या चल रहा है? अपने विरुद्ध कितना जबरदस्त प्रचार चल रहा है, इससे कहीं जनमत प्रभावित तो नहीं होगा, ऐसा सोचकर चिंतित हो जाते हैं।

सच कहे तो, इस प्रकार पैसा देकर चिंता खरीदने का कोई मतलब नहीं है। छह सात वर्ष पूर्व ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ में छपे एक गंदे सम्पादकीय को पढ़कर मैंने उस पर लिखा था कि कीमत देकर मैला खरीदने के लिए तुमसे किसने कहा? जिसने ऐसा लिखा है वह अपने घर में बैठ कर पढ़े। उसे पढ़ने का हम पर कोई बंधन नहीं है। और इस प्रकार की बातों को न पढ़ा जाए तो असहज होने की आवश्यकता भी नहीं है।

संघ और भाजपा के विरुद्ध इस प्रकार का विषैला प्रचार कोई नई बात नहीं है। यह सन १९४८ से चली आ रही परम्परा है। इस प्रथा को चलाने वालों ने १९७७ तक तो उपेक्षा की नीति अपनाई। इसीलिए १९७७ तक संघ के समाचार तो छपते ही नहीं थे, जनसंघ के समाचारों को भी कभी कभी किसी कोने में स्थान मिल गया तो पर्याप्त था। ७७ को बाद हालात बदले। संघ की विचारधारा ने राष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान बनाया। संघ की विचारधारा को रोकने का समाजवादियों ने बहुत प्रयास किया, पर वे निराश होकर मृत्यु को प्राप्त हो गए। संघ तथा जनसंघ से पैदा हुए भाजपा का वे बाल बांका भी नहीं कर सके। संघ की विचारधारा की गति भी कम नहीं हुई वरन् वह और अधिक गति से आगे बढ़ती गई। १९८६ से ९० तक चलने वाले राम जन्म भूमि आंदोलन के कारण सेकुलर विचारधारा की जमीन दरकने लगी। अपनी क्षयग्रस्त विचारधारा के कारण साम्यवाद अपनी अंतिम सांसें गिनता रहा। कांग्रेस की विचारधारा ढुलमुल होने लगी, सेकुलर या हिन्दुत्व? इसका निर्णय वह ले नहीं सकी। और कांग्रेस का एकाधिकार समाप्त होता गया।

संघ विरोधी विचारधारा से पोषित एवं पल्लवित अनेक लोग अलग अलग क्षेत्रों में हैं। उसमें कोई इतिहास सम्मेलन में है, कोई सेंसर बोर्ड में हैं, तो कोई फिल्म इन्स्टीट्यूट में बैठे हैं। कई लोग विश्वविद्यालयों जैसे महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठे हैं। जे एन यू तो संघ विरोधी विचारधारा से पोषित लोगों का अड्डा ही बन गया है। मीडिया में भी सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर ये ही लोग हैं। कोई सम्पादक है, तो किसी के पीछे किसी प्रसिद्ध पत्रकार का हाथ है। अध्येता पत्रकार, शोधपत्रकार, आदि विशेषणों से खुद को नवाजने वाले इस प्रकार के बहुत से लोग मीडिया में हैं। इनमें से बहुत से लोगों के लेख मैं पढ़ते रहता हूं। क्योंकि इनके लेखों से ही इनके विचारों के विरुद्ध लिखने की पे्ररणा मुझे मिलती रहती है। धान से चावल निकाल लेने के बाद जो बचा रहता है उसको भूसा कहते हैं। इनके लेखों की योग्यता केवल इस भूसे के बराबर है।

इस प्रकार के पोषित लोग चाहे वे दूरदर्शन चैनल के हो या प्रिंट मीडिया के हो, संघ और भाजपा को घेरने के लिए मीडिया का जमकर उपयोग कर रहे हैं। किसी भी घटना में संघ को कैसे घसीटा जाए इसी उधेड़बुन में ये लोग लगे हुए हैं। इसी बीच अरुण शौरी ने भाजपा तथा मोदी पर टिप्पणी करते हुए एक लेख लिखा। एंकर और पत्रकारों ने इस बात की खोज कर ली कि संघ के कहने पर अरुण शौरी ने यह लेख लिखा। इस प्रकार की बातें लिखने वाले व कहने वाले कितने नीचे तक जा सकते हैं? अरुण शौरी जैसे लेखक किसी के कहने पर नहीं लिखा करते, और संघ को भी अपनी बात कहने के लिए अरुण शौरी को माध्यम बनाने की आवश्यकता नहीं है। संघ का अपनी बात पहुंचाने का तरीका ही नितांत अलग है, संघ सीधे चर्चा के माध्यम से अपनी बात रखा करता है। अभी ललित मोदी प्रकरण जोरों पर है। वसुंधरा राजे सिंधिया पर आरोपों की बौछार हो रही है। इन आरोपों का भी हलकापन देखिए, २०११ में जब वसुंधरा राजे ने ललित मोदी को पत्र दिया था तब वे मुख्यमंत्री भी नहीं थी। उनके लड़के की मोदी के व्यवसाय में भागीदारी है। क्या व्यवसाय में भागीदारी करना कोई अपराध है? कोई भी आरोप किसी भी न्यायालयीन जांच के द्वारा, या जांच आयोग के द्वारा या हाईकोर्ट/ सुप्रीम कोर्ट के द्वारा सिद्ध नहीं किया गया है और त्यागपत्र की मांग बदस्तूर जारी है। गाड़ी के नीचे चलने वाले कुत्ते को गाड़ी वही खींच रहा है यह भ्रम कैसे होता है उसका यह उदाहरण है। मीडिया ही आरोप पत्र प्रस्तुत करेगा, वकालत की जिम्मेदारी भी मीडिया ही निभाएगा, न्यायाधीश भी मीडिया ही बनेगा व निर्णय भी मीडिया ही देगा। सत्ता केन्द्र किस प्रकार भ्रष्ट होता है उसका यह एक सुंदर उदाहरण है।

केन्द्र सरकार की अनेक समितियों में और मण्डलों में, उसी प्रकार महाराष्ट्र की अनेक समितियों एवं मण्डलों में नई नियुक्तियां की जा रही हैं। पहले के लोगों का कहीं पर कार्यकाल समाप्त होता है, तो कहीं पर कार्यकाल समाप्त किया जाता है। गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति भी एफटीआयआय (ऋढखख) में हुई। उसके कारण इन लोगों के खून में उबाल आ गया। उन्हें ऐसा लगता है कि यह संस्था यानी उनके बाप का खुला मैदान है, वे जब चाहे वहां घास चर सकते हैं। इस मैदान में गजेन्द्र चौहान का क्या काम? हालांकि मीडिया के लोग बुद्धिमान होने के कारण इस भाषा में सीधा नहीं बोलते, उसके पीछे एक बुद्धिवाद खड़ा करते हैं। चौहान को सिने तकनीक की कितनी समझ है, उनका अनुभव कितना है, उनसे बेहतर और दस लोग हैं (जो सभी हिन्दू विरोधी एवं वामपंथी विचारधारा के हैं) इस तरह के सवाल खड़े करते हैं। इसीलिए चौहान की नियुक्ति का निर्णय वापस लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो मोर्चा निकाल रहे हैं, उन्हेंं निकालने दिया जाए। मोर्चा की हवा चार दिन रहती है। मोर्चेके लिए आने वाले लोगों की खाने पीने की व्यवस्था करनी पड़ती है, उसकी भी एक सीमा होती है। ऐसे विरोधियों को रत्तीभर भी महत्व देने की जरूरत नहीं है। और सम्भव हो तो समविचारी लोगों को साथ लेकर जवाबी मोर्चा निकालना चाहिए। क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। जिनको जो भाषा समझती है उसी भाषा में जवाब दिया जाना चाहिए।
मानव संसाधन मंत्रीपद के लिए स्मृति इरानी का चुनाव हुआ। जिस दिन से उनका इस पद पर चयन हुआ उसी दिन से वामपंथियों ने तथा कांग्रेस के तोतों ने चिल्लपों मचाना शुरू कर दिया। स्मृति इरानी ग्रेजुएट हैं या नहीं? यहां से चर्चा शुरू हुई। उनकी शिक्षा के बारे में कितनी समझ है? आदि आदि सवाल खड़े किए गए। मान लीजिए, किसी विद्वान की नियुक्ति हुई होती तो यही लोग हल्ला मचाते कि यह विद्वान तो केवल फलां विषय का विशेषज्ञ है, अन्य विषयों की उसको क्या समझ है? अति उच्च शिक्षा का उसको कितना ज्ञान है? और यदि वह संघ विचारधारा का होता (अर्थात मोदी मंत्रिमंडल में संघ विचारधारा का व्यक्ति ही रहेगा) तो उन्होंने हल्ला मचाया होता कि उच्च शिक्षा में संघ के एजेंडे पर काम किए जाने की कोशिश की जा रही है। पिछले दरवाजे से संघ की विचारधारा लाई जा रही है।

अब समय आ गया है इन सब बातों का जवाब देने का। संघ और भाजपा का जन्म ही संघ की विचारधारा लाने के लिए हुआ है। यदि आपको यह पसंद नहीं है तो यह आपका सवाल है। इसके लिए आपको जितना रुदन करना है उतना रुदन करने की स्वतंत्रता है। चाहे तो छाती भी पीट सकते हैं। पर हमें इन सब बातों की चिंता करने की जरूरत नहीं है।

संघ की विचारधारा यानी राष्ट्र की विचारधारा है। यह एक राष्ट्र है, हम सब एक है। हमारी संस्कृति एक है। हमारा जीवन दर्शन एक है। हम सबके समान जीवन मूल्य हैं। और हम सबको मिलकर इस देश को शक्तिशाली बनाना है, विश्वगुरू के रूप में स्थापित करना है। यह विचारधारा कम्युनिस्टो को पसंद नहीं है। उनके चम्मच से पानी पीने वाले धर्मनिरपेक्षता वादियों को भी पसंद नहीं है। उनको गम है कि सत्ता संघ के स्वयंसेवकों के हाथ में आ गई है, अब हमारी बीमार वामपंथी विचारधारा का क्या होगा? इसका सीधा उत्तर है कि यह बीमार विचारधारा सड़ कर मर जाएगी। और वह मरती है तो उसकी चिंता हमें करने की आवश्यकता नहीं है। विषाणु जिस प्रकार शरीर के लिए घातक होत हैं उसी प्रकार यह क्षयग्रस्त बीमार विचारधारा भी राष्ट्र के लिए घातक है। पिछले ६८ वर्षों में इस विचारधारा ने हमारी परम पवित्र मातृभूमि को इतनी हानि पहुंचाई, जो पिछले दो सौ वर्षों में भी नहीं हुई। इस विचारधारा के मरने में ही राष्ट्र का कल्माण है। इस लिए इसे मरने दो।

मृत्यु की यातनाएं सबको सहन नहीं होतीं। नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन उनमें से एक हैं। ‘नाम बड़ा, गुण थोड़ा’ यह कहावत इन पर सटीक लागू होती है। अर्थशास्त्र पर नोबल पुरस्कार प्राप्त होने के कारण, जिन्हें अर्थशास्त्र की समझ नहीं है उनके लिए तो सेन महान है, जिन्हें अर्थशास्त्र की बहुत कम समझ है उनके लिए सेन बड़े व्यक्ति हो सकते हैं, पर जिन्हें अर्थशास्त्र की ठीकठाक समझ है उनके सामने सवाल खड़ा होता है कि अमर्त्य सेन के अर्थशास्त्र से देश को क्या लाभ हुआ? कितने लाख लोगों को रोजगार मिला? कितने लोगों की गरीबी समाप्त हुई? उनसे तो हमारे मनमोहन सिंह बेहतर अर्थ विशेषज्ञ हैं। उन्होंने जो आर्थिक सुधार लागू किए, उससे देश का कायाकल्प होता दिखाई तो दिया। इन्ही अमर्त्य सेन की नियुक्ति नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में हुई थी। नई सरकार ने उन्हें हटा दिया होगा। क्योंकि ये अमर्त्य सेन कट्टर हिन्दू विरोधी और वामपंथियों के जिगरी दोस्त हैं। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय विदेशों में ही व्यतीत किया। नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति का पद हाथ से निकल जाने पर उन्हें अचानक ज्ञान की प्राप्ति हुई कि भारत में शैक्षणिक स्वतंत्रता को खतरा है और उन्होंने न्यूयार्क रिव्हू बुक में अपना विषवमन किया। यह वमन नोबल पुरस्कार विजेता द्वारा किया गया होने के कारण पवित्र हो गया, और हमारे समाचार पत्रों ने उसे उठा लिया। इन अमर्त्य सेन के वामपंथी मित्रों ने बंगाल में किस प्रकार शिक्षा की स्वतंत्रता के बारह बजा दिए, यह इतिहास भी अमर्त्य सेन को पढ़ना चाहिए। प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय भारतीय अस्मिता का प्रतीक है। इस प्रतीक में हिन्दू विरोधी, धर्म विरोधी, कम्युनिस्ट को रखने की कोई जरूरत नहीं है। सवाल तो यह होना चाहिए कि उन्हें हटाने में इतना विलम्ब क्यों हुआ? पूरा एक वर्ष क्यों लगा?

स्मृति इरानी के बाद अब सभी वामपंथियों व चैनलों ने सुषमा स्वराज को लक्ष्य बनाया है। विषय वही ललित मोदी का। सुषमा स्वराज के पति सर्वोच्च न्यायालय के वकील हैं, ललित मोदी उनका मुवक्किल है। सेवा व्यवसाय के नियमों के अनुसार जो कोई सेवा मांगने आएगा व सेवा के सर्वोच्च दाम देगा, उसे सेवा देने में कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता। डॉक्टर यह नहीं कह सकता कि मैं रोगी की जांच नहीं करूंगा। वकील भी यह नहीं कह सकता कि वह केस नहीं लेगा। सुषमा स्वराज पर आरोप लगाने वाले भी इस बात को जानते हैं, पर एक बार सत्ता का नशा चढ़ गया तो सच-झूठ का भेद दिखाई नहीं देता। सुषमा स्वराज किसी भी घोटाले में फंसी नहीं हैं। फिर भी उनसे इस्तीफा मांगा जा रहा है। यह निर्लज्जता केवल पत्रकार, एंकर और चर्चा के भाग लेने वाले मेहमान ही कर सकते हैं। ऐसे लोगोंे को बांसी रोटी भी भीख में नहीं देनी चाहिए।

आजकल हरेक के हाथ में स्मार्ट फोन होता है। और, प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी व्हाट्स अप गु्रप में रहता है। ट्वीटर तथा फेसबुक वर भी बहुत लोग रहते हैं। इस अप प्रचार के विरुद्ध सोशल मीडिया पर जबर्दस्त चर्चा शुरू करने की आवश्यकता है। बात सभ्य भाषा में हो, पर कड़े शब्दों के साथ हो। आक्रामकता के साथ यह अभियान चले। कभी भी सुरक्षात्मक रवैया न अपनाए। संघ विचारधारा के लिए सुरक्षात्मक कदम उठाने के दिन अब लद गए। अब आग्रही तथा आक्रामक होने का समय है। जैसा सवाल होगा वैसा उसका जवाब दिया जाना चाहिए। एक गांव में एक आदमी रहता था। वह बिना सिर पैर के सवाल पूछा करता था। जवाब न देने पर उसे एक हजार रूपये देने पड़ते थे। एक लड़का उसके घर गया। उस व्यक्ति ने लड़के से पूछा तेरे पास एक हजार रुपये हैं क्या? उस लड़के ने कहा ‘‘हां हैं।’’ तो फिर मेरा पहला प्रश्न यह है कि मेरे घर में जो बड़ा वृक्ष है उसमें कितनी शाखाएं एवं पत्तियां हैं? लड़के ने जवाब दिया जितने आपके सिर पर बाल हैं, उतनी शाखाएं एवं पत्तियां उस वृक्ष पर है। उस व्यक्ति ने कहा यह भी कोई जवाब है? लड़के ने कहा तुम्हारा सवाल भी कोई सवाल था क्या? जैसा सवाल वैसा जवाब। अपने स्वयम् के लिए एक निश्चय करने की आवश्यकता है, अब २००४ की पुनरावृत्ति नहीं होने देंगे। इसके आगे विजय और केवल विजय ही प्राप्त करते रहना है। यदि भारत को विश्व गुरू बनाना है, सारे मानव जाति को मार्गदर्शन करने की उसकी शक्ति जागृत करनी है तो, इस देश में जन्म से भारतीय, मन से भारतीय, विचार से भारतीय और कर्म से भारतीय की ही सत्ता होनी चाहिए। सत्ता किसी अन्य के हाथ में जाने देने की जरूरत नहीं है। अब न तो गोरी चाहिए, न लोधी, न बाबर और सोनिया भी नहीं चाहिए।

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