रसिक छैल नन्द कौ री नैनन में होरी खेलै

ब्रज में बड़ी ही रस भरी तथा रंग भरी होली खेली जाती है। इसका बड़ी ही तन्मयता से अपने आराध्य को रिझाने में ब्रज के भक्त कवियों ने वर्णन किया है। अष्टछाप के सभी कवियों ने भी अपने आराध्य श्यामसुन्दर से अन्तरंग होली खेली है। यह रसीली होली तन को ही रसमय नहीं करती, वरन् मन भी इसमें रस मग्न हो उठता है। सांवरे से नैन मिलते ही मन सांवरे के मन मे रंग जाता है। ब्रज भाषा के रस सिद्ध कवि ‘आनंदघन’ ने इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त किया है-

‘‘रसिक छैल नन्द कौ री, नैनन में होरी खेलै।
भरि अनुराग दृष्टि पिचकारी आन अचानक मेलै॥’’

ब्रज की गोपियां भी होली में बरजोरी करने वाले पुरुष को ऐसा मजा चखाती हैं कि बेचारे रसिया का तो हाल बेहाल हो जाता है। कविवर पद्माकर की गोपियां श्रीकृष्ण पकड़कर घर में अन्दर ले जाती हैं, मन भावती कराती उनके कपोलों पर मजे से गुलाल (रोली) मलती हैं और व्यंग्य भरे शब्दों मे कहती हैं कि ‘‘लला! अब फिर से होली खेलन और आना-

‘‘फाग के भीर अभीरन में गहि,
गोविन्दै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मनकी ‘पद्माकर’
ऊपर नाइ अबीर की झोरी।
छीन पीताम्बर लै लकुटी
सु बिदा दई भीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय
लला, फिर आइयो खेलन होरी।

पद्माकर के उक्त कथन की तरह ही महाकवि सूरदास भी अपने एक पद में अरगजा और अबीर के कनक घट श्रीकृष्ण के ऊपर उड़ेल देने की बात कही है-
‘‘भरि अरगजा अबीर कनक घट देतिं सीस पैं नाई।’’

रस की खान कवि ‘रसखान’ ने फाल्गुन के महीने रसिक सलौने रिझबार श्रीकृष्ण के द्वारा अनेक ‘‘औगुन कृत्य करने का बड़ा ही चित्ताकर्षक वर्णन प्रस्तुत किया है।

खेलि होरी ब्रज गोरी वा किसोर संग,
अंग-अंग रंगनि अनंग सरसाइगौ।
कुंकुंम की मारक पै रंगनि उछार उड़ै,
छोड़ै पिचकारिन धमरिन बिगोय छोड़ै
तोड़ै हिय हार धार रंग सरसाइगौ।
रसिक सलौनों रिझवार ‘रसखानि’ आजु
फागुन में औगुन अनेक दरसाइगौ॥’’

कविवर बिहारी ने होली के इस वर्णन में सौतिया डाह भी बहुत सुन्दर वर्णन किया है। उनका नायक, नायिका के का पर पिचकारी से जब रंग डालता है, तब नायक की अन्य मृदंगों के नेत्र स्वयं ही गोरोचन की भांति लाल हो उठते प्रेमिकाओं।

‘‘छिटके नाह नवोढ़-दृग पिचकारी जल जोर।
रोचन रंग लाली भई, विय तिय लोचन कोर॥

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने भी अपने ‘प्रेम नामक काव्य संग्रह में चंचल चल चलती बाला के प्रपंच लालजी के गाल पर गुलाल लगाने की बात कही है-द्वारा

‘‘गरबीली वह बाल, चंचल उत्ताल चाल चलि।
गई लपेटि गुलाल, अरी-लाल के गाल पै॥’’

जैसा कि लोक जीवन में होली खेलते हुए होता है, तरह श्रीकृष्ण भी गोपियों की आंखों में रंग की पिचकारी उसी है तथा आंखों में गुलाल फेंकते हैं। श्री नागरीदास जी चलाते गोपी श्रीकृष्ण से इस अचगरी के लिए अनुनय करती हुई की कहती है-

लाल गुलाल हमारी अंखियन में जनि मारौ जू।
कुंकुंम रंग सों भरि पिचकारी तकि नैननि जिन मारौ जू॥’’

होली के अवसर पर ब्रज की बालाएं सबलाएं बन जाती तभी तो कविवर ठाकुर की गोपांगनाओं के एक झुण्ड ने है। में गुलाल उलीचते हुए ‘‘होरी ऐ, होरी ऐ’’ करते हुए गलियो श्रीकृष्ण को घेर लिया-

‘‘दौरी लै गुलाल ब्रजबाल चारों ओरन ते,
होरी लाल, होरी लाल, होरी लाल होरी ऐ॥’’

अरे देखो तो सही-एक ग्वालिन ने तो श्रीकृष्ण को केशर के कीच में अपने संग ही गिरा लिया है-

ठाकुर ऐसौ उमाह मचौ भयौ कौतुक एक सखीन के बीच में।
रंग भरी रसमाती गुवालि गुपालहि लै गिरी केसर कीच में॥’’

ऐसे परम अनुरागी, अनन्य प्रेमी रसिक शिरोमणि श्री श्यामा-श्याम भक्तों को रूपाभिराम से मोहित करके उनके मन और प्राणों में बरबस आ विराजते हैं। जब और जहां भी श्री श्यामा-श्याम की प्रीति-पिचकारी में तन भीगा तो प्रेम का स्रोत अबाध गति से बह निकला। फिर एक-दूसरे को साथ देखकर सभी की दृष्टि उनकी रूप माधुरी पर टिक जाती है। कुछ भी हो यह होली ऐसी अनोखी है कि इसमें पारस्परिक भावनात्मक उद्वेग भी अनुराग के रंग में रंग जाते हैं। देखो, राधा और कृष्ण कैसी होली खेल रहे हैं, पर उन्हें पिचकारी चलाने का मौका कब मिला? बस, श्रीराधा के रंग में श्यामसुन्दर रंग गये और श्यामसुन्दर के रंग में श्रीराधा रानी-

‘‘या अनुराग की फाग लखौ जंह,
रागती राग किसोर-किसोरी।
त्यों ‘पद्माकर’घालै घलै,
फिर लाल ही लाल गुलाल की झोरी।
जैसी की तैसी रही पिचकी,
पर काहू न केसरि रंग में बोरी,
गोरी के रंग में भीजिगौ सांवरौ
सांवरे के रंग में भीजिगी गोरी॥’’

ब्रज-गोपियां श्रीकृष्ण से चुहुल बाजी करने में भी नहीं चूकतीं। होली में श्रीकृष्ण को कई सखियों ने पकड़कर उनको साड़ी पहनाकर, काजर लगाकर, मांथे पर बिन्दी लगा दी और मुख में पान का बीड़ा खिला दिया। फिर उनके ऊपर कमोरी भरा रंग उड़ेल दिया। तब हंसकर श्री किशोरी जी अन्य सखियों को बताती हैं कि यह एक गोप कुमारी यहां मथुरा से आई है-

‘‘मोहन छबीले कों पकरि लीन्हौं होरी मांहि,
मोर कौ पखौआ छीन सारी सीस धारी है।
खंजन से नैनन में अंजन अंजाय दीनौ,
दीनों मुख पान भाल बेंदी दई कारी है।
‘लालबलवीर’ प्यारी प्रीतम बनाय दीनौ,
रंग की कमोरी सीस ऊपर सौं ढारी है।
हंसि बूझें नारी-बोली भान की कुमारी, प्यारी,
आई मथुराते एक गोप की कुमारी है।’’

राधा कृष्ण के इस प्रेम जगे रस भीने उत्सव का वर्णन ब्रज के लोक गीतों में बड़े मनोयोग से उकेरा गया है। उनमें होली के लोक जीवन के चित्र चित्रित हुए हैं। ब्रज के रसिया छन्दों का रस अधिक मधुर है। उन्हेंं सुनकर मन का खालीपन दूर हो जाता है, आनंद से भर जाता है। श्रीकृष्ण के नेत्र जैसे तीखे हैं, गोपियों के भी तो वैसे ही हैं, पर श्रीकृष्ण हैं कि गोरियों को नयनों की चोट से ही मारे डाल रहे हैं-

‘‘मत मारै दृगन की चोट रसिया!
होरी में मेरे लग जायेगी।’’

कुछ भी हो, यह होली ऐसी अनोखी है कि इसमें पारस्परिक भावनात्मक उद्वेग भी अनुराग के रंग में रंग जाता है। आज के दिन ब्रज का रसिया भी गोरी से यह कहने में भी नहीं चूकता-

‘‘होरी में लाज न कर गोरी, होरी में॥
हम ब्रज के रसिया तुम गोरी,
भली बनी है यह जोरी, होरी में लाज॥
जो हमते सूधे नहीं खेलै,
तो ते करिंगे हम बरजोरी।
होरी में लाज न कर गोरी होरी में॥’’

फागुन लगते ही नवयुवक-नवयुवती तो क्या वृद्ध और वृद्धाओं के हृदय भी उमंग और उल्लास से परिपूरित हो उठते हैं। रसिया जन उछलने गाने लगते हैं। उनका अंग-अंग रंग में रंगने लगता है। टेसू के रंग की पैनी धार पिचकारी से निकलकर अन्दर तक की खबर ले आती है। ढोल-नगाड़े बज रहे हैं, जितना रंग बरसता है उतनी ही जोर से नगाड़े पर भी चोट तेज होती जाती है। सभी में एक गति, एक लय एक उमंग, एक तड़फन उफन पड़ती है और मस्ती में पूरे वातावरण में ये बोल गूंज उठते हैं।

‘‘जो जीवै से खैले होरी
यह मस्त महीना फागुन कौ।
अरे रसिया बड़े भाग सौं आयौ
यह मस्त महीना फागुन कौ॥’’

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