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होली और बदलते संदर्भ

होली और बदलते संदर्भ

by रमेश यादव
in मार्च २०१2, सामाजिक
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वैसे तो होली पूरे भारतभर में मनाई जाती है, लेकिन ब्रज की होली खास मस्ती भरी होती है। यहां इसे कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़कर देखा जाता है। यहां की होली ‘लठमार होली’ के रूप में अधिक प्रचलित है। होली की टोलियों में नंदगांव के पुरुष क्योंकि कृष्ण यहीं के थे और बरसाने की महिलाएं क्योंकि राधा बरसाने की थी एक दूसरे पर जमकर रंग बरसाते हैं। पुरुष जब महिलाओं पर रंग डालते हैं तो महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के कोड़ो से मारती हैं। यह एक परंपरा है। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी पन्द्रह दिनो तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊं की ‘गीत बैठकी’ में शास्त्रीय संगीत की महफिल सजायी जाती है। हरियाणा में ‘धुलडी’ में भाभी द्वारा देवर को सताने और रिझाने की प्रथा है। बंगाल में ‘दोल जात्रा’ के रूप में होली मनाई जाती है। चैतन्य महाप्रभु का यह जन्मदिन होने के नाते जुलूस निकाला जाता है जिसमें जमकर गाना-बजाना होता है। महाराष्ट्र में ‘रंग पंचमी’ के रूप यह पर्व बड़े हर्षोल्लास के बाथ तो मनाया ही जाता है पर अधिकांश लोग इस अवसर पर अपने गांवों की ओर रूख करते हैं। वहां ‘शिमगा’ नाम से प्रचलित इस पर्व पर धार्मिक विधियां पूजा-पाठ यात्रा के साथ लोकसंगीत, लोकनाट्य और लोकगीतों की धूम होती है। रंगोत्सव खेलने के बाद मनचलों की टोली ‘ऐना के बैना, घेतल्या शिवाय जाएगा’ का गीत गाते हुए गाते-बजाते घर-घर जाकर चंदा वसूलते हैं और शाम को लोकपर्व मनाते हैं। सिखो द्वारा भक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तामिलनाडु में ‘कमन पोडिगई’ के रूप में कामदेव की कथ पर ‘वसंतोत्सव’ मनाने की परंपरा है। छत्तीसगढ़ में ‘रंगोत्सव’ के साथ लोकगीत गायन की अद्भुत परंपरा है। बनारस के अस्सी घट पर भंग के रंग में सराबोर होकर हास्य-व्यंग्य, गाली-गलौज, और लोकगीतों के धुन पर कवि संमेलन की परंपरा है। बिहार और उत्तर प्रदेश में ‘फगुआ’ के नाम से यह रंगोत्सव मनाया जाता है। देश के अन्य प्रदेशों में भी यह त्योहार शृंगार और लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता है। शांतिनिकेतन की होली भी बड़ी अनोखी होती है। राजस्थान में ‘तमाशे’ के जरिए होली मनाई जाती है। कहीं-कहीं मेले भी लगते हैं।

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग और रंग की उत्कर्ष तक पहुंचानेवाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। खेतों में सरसों खिल जाती हैं और प्रकृति पीले रंग में रंग जाती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा मन मोहने लगती है। मौसम की खुशनुमा बघार लोगों के दिलों तार छेड़ती है और राग धमार की धूम मच उठती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सभी उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेंहू की बालियां इठलाने लगती हैं। किसानों का हृदय खुशी के रंग से सराबोर हो जाता है। चारों तरफ ढोल-मंजीरों और झांझ की धुन पर नृत्य-संगीत, लोकोत्सव के साथ रंगों की फूहार फूट पड़ती है। आमों पर बौर की बहार होती है।

होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं बल्कि सभी जाति एवं धर्मों के लोग अपने विशेष अंदाज में मनाते हैं। महानगरों में तो जाति-पांति की सारी परंपराए सिमटती नजर आती हैं। यहां तक कि मुस्लिम भाई भी इस त्योहार में शरीक होते हैं। मुगलकाल में अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता हैं। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जाफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिंदी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन है। ‘वसंतोत्सव’ का वर्णन कई ग्रंथो में मिलता है। होली के शिल्प आज भी घरोहर के रूप में मौजूद हैं।

आज के दौर में होली कुछ-कुछ फिल्मी और कुछ व्यावसायिक रंग में रंगी नजर आती है। अत: कभी कभी यह त्योहार धार्मिक निष्ठा, उत्सव, मनोरंजन, रंगो से मनों का सराबोर होने का त्यौहार गाना-बजाना, हुडदंग मचाना, टेसू के फूल और भंग का रंग इत्यादि का त्योहार है यह बातें सिर्फ किताबी और पौराणिक लगने लगती हैं। विशेषत: महानगरों में, या विदेशों में बसे भारतीयों के लिए, तथा मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करनेवालों के लिए उत्सव की यह परंपरा लगभग सिमटती जा रही है। इससे नई पीढ़ी अपनी परंपराओं और जमीन से कटती जा रही है। ऐसे लोग होली जैसे उत्सव का आनंद सिर्फ फिल्मों में फिल्माये गए गीतों से लेकर धन्य हो रहे हैं। अपनी संस्कृति को बचाये रखने में उत्सवों का बहुत बड़ा योगदान रहा है और आज भी है। कमर्शियल होना, प्रोफेशन होना, अप्रवासी होना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है नई पीढ़ी को संस्कारो से, संस्कृति से और जीवन मूल्यों से जोड़ना भी है। आज होली पर गए-बजाए जानेवाले ढोल, मजीरें, झांझ, फाग, धमाए, चैती और ठुमरी, लोकगीत, लोकउत्सव की शान धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। पारंपरिक संगीत और पर्यावरण की चेतना नष्ट हो रही है। चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलो से तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा खत्म हो रही है। इनकी जगह रासायनिक रंगों का प्रयोग होने लगा है जो शरीर और स्वास्थ के लिए हानिकारक हैं। एकल परिवारों की तादाद बढ़ने के कारण मिलने-मिलाने, पारिवारिक स्नेह मिलन, दावतें, मिठाइयों की परंपरा नष्ट हो रही है। बंद घरों में टीवी के सामने ठुमके लगाते नेत्रियों और अभिनेताओं की होली देखकर हम धन्य हो रहे हैं। समय के साथ सारे संदर्भ बदल रहे हैं, तो होली जैसे उत्सव के भी संदर्भ बदल रहे हैं।

होली की तमाम छटाओं के साथ हमारा साहित्य भरा पड़ा है। ‘श्रीमद्भागवत महापुराण’, कालिदास का ‘कुमारसंभवम’, चंद बरदाई द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ से लेकर रहीम, रसखान, जायसी मीराबाई, कबीर, बिहारी, केशव, घनानंद, सूरदास इत्यादि तमाम रचनाकारों ने होली की महत्ता का गुणगान अपने पदों में किया है। सूफी संतों, अमीर खुसरों, हजरत निजामुद्दीन औलिया, बहादुर शाह जाफर जैसे मुस्लिम संप्रदाय के लोगों ने अपनी रचनाओं में होली का वर्णन किया है। आधुनिक रचनाकारों और फिल्मों में गीत लिखनेवालों के योगदान को भी इस उत्सव को लेकर भुलाया नहीं जा सकता है। खेद इस बात का है कि आज साहित्य ही उपेक्षित हो गया है। साहित्य पढ़ने और इसमें रूचि रखनेवालों की संख्या लगातार घट रही है। क्योंकि साहित्य रोजी-रोटी का साधन नहीं है। साहित्य संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह जीवन का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। इसकी उपेक्षा चिंतन का विषय है। आज के इस व्यावसायिक दौर में साहित्य को भी व्यावसायिक बनाने की जरुरत है। लोकसंगीत की जगह भले ही फिल्मी गीतों ने ले लिया हो पर इसमें मादकता, अश्लीलता, बाजारूपन, भौंडापन, तंग एवं पारदर्शी परिधानों में ठुमके लगाती अभिनेत्रियां इत्यादि दृश्यों में पारंपरिक होली की बजाय बाजारू एवं व्यावसायिक होली नजर आती है। हमारे मुंबई महानगर में गुब्बारों में पानी या रंग भरकर उसे फेंककर मारने की नई प्रथा चल पड़ी है। मगर इस खेल का विकृत स्वरुप बड़ा भयानक है। लोकल ट्रेन में यात्रा कर रहे यात्रियों पर गुब्बारा फेंककर मारने या किसी वाहनचालक पर रंग भरा गुब्बारा मारने से कई बार दुर्घटनायें घट जाती हैं। एसिड मुक्त रंगों के कारण कई लोगों को आंखें भी गंवानी पड़ी हैं। गावों में कुछ लोग गोबर या कीचड़ एक दूसरे पर फेकते हैं, इससे होली का मजा किरकिरा हो जाता है। रासायनिक रंगों का भी त्वचा पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अब टेसू के फूल ही नदारत होते जा रहे हैं। कृत्रिम रंगों का बड़ा बाजार आज के होली की पहचान है।

पहले होली पर घर का पुराना सामान, गोबर के कंडे और उसी की माला बनाकर, आस-पास की सूखी झाड़ी या जलहन जलाते थे, वो भी रास्ते से हटकर ताकि आने-जानेवालों को असुविधा न हो। अब चंदा इकट्ठा करके हरे पेड़ों को काटकर लकडियां जलाई जाती हैं। वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड की मात्रा का स्तर काफी बढ़ जाता है। इससे पर्यावरण को भी खतरा होता है। होली मनाते हुए हमें पर्यावरण संतुलन के बारे में भी अवश्य सोचना चाहिए। आज अमीरों की होली, गरीबों की होली जैसे दृश्य दिखाई देते हैं जबकि यह त्योहार इन भेदभावों को मिटानेवाला त्योहार है। रंगों की धमार के बजाय स्टेटस का रंग आज सिर चढ़कर बोलने लगा है। ‘गुझिया’ इस त्योहार का विशेष पकवान हुआ करता था, ठंडई का दौर चलता था, रात को फगुआ, चौताल, पीलू, काफी, भैरवी आदि रागों का रंग समां को सुहाना बनाता था। आज नशा और भौंडे हास्य, भाव, अश्लील गाने होली का पर्याय बन गये हैं। इससे उत्सव की पवित्रता पर असर पड़ रहा है। पिचकारियों का रंग फीका हो रहा है।

परिवर्तन संसार का शास्वत नियम है। परिवर्तन के साथ संदर्भ भी बदल जाते हैं। होली के भी संदर्भ बदलते हैं। मगर ‘बुराई पर अच्छाई की जीत’ होली की ये जो मूल भावना है इसे हमें बचाना है, इसे जन-जन तक, मन-मन तक पहुंचाना है। समाज में नये प्रतिमानों को स्थापित करने की जरुरत है। नये युग के नये प्रहलादों को आज अच्छाई का प्रतीक बनकर उभरने की जरूरत है।

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रमेश यादव

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