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होली आई रे…..

होली आई रे…..

by दिलीप ठाकुर
in मार्च २०१2, सामाजिक
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होली हमारे हिंदी सिनेमावालों का सर्वाधिक प्रिय त्योहार है।
बिल्कुल परदे पर और प्रत्यक्ष में भी!
शायद हिंदी फिल्म उद्योग पर पहले से ही पंजाबियोंं का राज होने से होला का रंग और आनंद हमेशा सराबोर रहा होगा।
मेहबूब खान की ‘मदर इंडिया’ से करण मल्होत्रा की ‘अग्निपथ’ तक ढेर सारी फिल्मों में होली का रंग उछला है। कभी मस्तीभरे गीत‡संगीत‡नृत्य के रूप में तो कभी किसी नाट्य के रूप में यह होली अवतीर्ण हुई है।
‘होली’ नामक फिल्म से ‘होली आई रे’ नामक फिल्म तक होली अवतीर्ण हुई।

होली के ‘टॉप टेन’ गीत ये हैं‡

1. होली के दिन दिल खिल जाते हैं‡ शोले
2. नदीया से दरिया, दरिया से सागर‡ नमक हराम
3. रंग बरसे भीगे चुनरवाला‡ सिरफिरा
4. होली का त्योहा‡ नवरंग
5. आज ना खेलेंगे बस हम होली‡ कटी पतंग
6. जख्मी दिलों का बदला चुकाने‡ ञख्मा
7. अरे भागी रे भागी‡ रजपूत
8. होली आई रे‡ मदर इंडिया
9. मारो भर भर कर पिचकारी‡ धनवान
10. होली आई होली आई देखो होली‡मशाल

गीत‡संगीत‡नृत्य तक ही हिंदी सिनेमा होली को रखता तो आश्चर्य होता। पटकथा में भी होली को पिरोने का अच्छा प्रयास किया गया है।
रमेश सिप्पी के ‘शोले’ महत्वपूर्ण स्थान पर होली आती है। ठाकुर बल्देवसिंह (संजीव कुमार) के प्रतिशोध के अनुसार साहस करने वाले वीरू और जय (धर्मेंद्र व अभिताभ बच्चन) व्दारा डाकू गब्बरसिंह (अमजद खान) के विरोध में गांव में किए गए जनजागरण के कारण गब्बरसिंह इस गांव पर हमला करने का निश्चय करता है। तो कालिया आदि अपने सहयोगियों से पूछता है, ‘होली कब है, कब है होली… ?’ पटकथाकार सलीम‡जावेद तुरंत अगले ही दृश्य में बसंती (हेमामालिनी) ‘होली के दिन…’ गाना‡नाचना शुरू करती है यह दिखाया है। गीत में अनेक रंगों की बौछार है। गाना भी ‘बढ़िया’ रंग जाता है (गीत आनंद बक्षी, संगीत राहुल देव बर्मन)। कथा के प्रवाह में गाना आ जाने से ‘रंगत’ बढ़ जाती है।

शक्ति सामंत निर्देशित ‘कटी पतंग’ में होली बेहद प्रभावी ढंग से पेश की गई है। नायक (राजेश खन्ना) होली के नृत्य में मदहोश हो जाता है तब बगल में खड़ी नायिका (आशा पारेख) अपनी व्यथा भी बताती है। कुछ कारणों से उसने विधवा का रूप ले लिया था इसलिए वह होली के उत्साह में शामिल नहीं हो सकती। लेकिन गीत खत्म होते‡होते नायक अचानक उस पर रंग फेंक देता है जिससे वह अचंभित होती है। यह सब अचानक होता है।

यश चोपड़ा निर्देशित ‘सिलसिला’ में होली का रंग भी इसी तरह अलग है। उसमें होली के चरम पर भांग पीकर टुन्न हए नायक विजय (अमिताभ बच्चन) को अपनी पुरानी प्रेयसी अर्थात चांदनी (रेखा) से प्रेम जागृत हो जाता है। वह इस समय यह भूल जाता है कि उसकी पत्नी (जया भादुडी) व चांदनी का पति (संजीव कुमार) ये दोनों उसे देख रहे हैं यह भूल जाता है और चांदनी पर होली के रंगों की बौछार कर देता है। इससे उन दोनों मुसीबत में पड़ जाते हैं। उनके लिए यह कठिन क्षण होता है।

यश चोपड़ा निर्देशित ‘डर’ में भी होली अपना अलग रंग दिखाती है। नायिका किरण (जूही चावला) पर बेहद प्रेम करने वाला ‘विकृत’ युवक (शाहरुख खान) उससे मिलने की, उससे बात करने की लगातार कोशिश करता है। वह उसे प्रतिसाद नहीं देती इसलिए वह बहुत क्रोधित भी होता है। विशेष रूप से अपने पति (सनी देवल) के साथ वह सुखी होते देख उसका पारा बढ़ जाता है। इसी बीच होली से रंगा चेहरा लेकर वह किरण से मिलने जाता है व उस पर रंग डालता है। वह इसमें सफल होने की सूचना किरण को देता है तब उसका पति इस विकृत युवक का पीछा करता है। तब वह रंगे हुए चेहरा का लाभ उठाकर भागने में सफल होता है।

फिल्मों की होली इस तरह अनेक रंगों से खेली जाती है। भारतीय दर्शकों के प्रिय त्योहार को फिल्मों में स्थान देने की व्यावसायिक दृष्टि के कारण फिल्मों में होली के रंग आए हैं। दर्शकों को भी परदे की इस होली का आकर्षण होता है।

इन सिनेमावालों की होली परदे तक ही सीमित होती तो आश्चर्य होता। अपने फिल्मवाले भी प्रत्यक्ष में मौज‡मस्ती, उत्साह‡आनंद चाहते हैं। इसी कारण प्रत्यक्ष होली भी मनाई जाती है।

‘शोमैन’ राजकपूर इस बारे में प्रसिध्द है। चेम्बूर के अपने आर के स्टूडियो में वह एक बड़ा हौद बनाता था और वहां होली खेली जाती थी। राजकपूर हो तो कभी ‘सीधी बात’ नहीं होती। सब कुछ प्रचंड उत्साह और धमाल करते हुए अन्य को भी उसमें सहभागी बनाते थे। राजकपूर खुद एक बड़ी स्वतंत्र इण्डस्ट्री थे। ‘जो करना है वह बड़ी शान से और धूमधाम से करना’ उनकी सांस्कृतिक दृष्टि का अंग था। इसी कारण आर. के. स्टुडियो की होली फिल्म उद्योग की शान बन गई। इसमें आर. के. शिविर के अलावा अन्य शिविरों के कलाकार भी अवश्य हाजिरी लगाते थे। इस होली का निमंत्रण पाने वाला अपने को भाग्यशाली समझता था। आर. के. रंगीन पानी के हौदे में हरेक को उतार कर पूरी तरह रंगा जाता था। साठ व सत्तर के दशक की अग्रणी अभिनेत्रियां व ललनाएं इस रंग में ेंरंगने को उत्सुक होती थीं। रंगों के साथ आलादर्जे की शराब और खान‡पान की भरमार होती थी।
राजकपूर के निधन के बाद आर. के. की होली रुक गई। उसकी केवल यादें रह गईं। लोग उसे याद भर करते रहते हैं।

लेकिन किसी भी बात को लेकर थमना हिंदी फिल्मवालों को कभी रास नहीं आता। होली जैसे मिले‡जुले रंगों की बौछार करने वाले इस त्योहार का फिल्म उद्योग ने अवश्य जतन किया है।

इसके बाद यश चोपड़ा, अभिताभ बच्चन, सुभाष घई, सुधाकर बोकाडे आदि ने अपने बंगलों पर एकाध‡दो साल होली का आयोजन किया, लेकिन उसमें निरंतरता नहीं रह सकी। शायद उनकी होली की आर. के. की होली से तुलना की जाने से उन्होंने रुकना बेहतर समझा होगा। सुधाकर बोकाड़े के ओशिवरा स्थित बंगले पर होली खेलने जाने का संजोग मुझे भी मिला। आने वाले हर मेहमान के हाथ में गुलाल और ठण्डी बियर की बोतल रखी जाती थी। ‘खलनायक’ जब पूरी हो रही थी तब सुभाष घई ने 1993 में अपने मढ़ आईलैण्ड स्थित बंगले पर होली के लिए चुनिंदा पत्रकारों को आमंत्रित किया था, जिसमें मैं भी एक था। इस होली में बहुत कम लोग थे, जिससे गतिशीलता भी नहीं थी। थोड़े बहुत रंग उछाले जा रहे थे कि दोपहर बाद अपनी मां के साथ सफेद साड़ी पहनी माधुरी दीक्षित आ पहुंची। लेकिन उपस्थित लोगों में से किसी ने उसे रंगने की हिम्मत नहीं की। यह केवल आदरभाव के कारण हुआ। लेकिन, माधुरी की सफलता, अस्तित्व व सौंदर्य होली के रंगों जैसा ही बहुरंगी है।

छोटे परदे ने अर्थात चैनलों ने अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए व्यावसायिकता के रूप में होली का उपयोग किया। कुछ चैनलों अथवा कुछ मालिकाओं ने जुहू‡वर्सोवा या मढ़ में दिनभर ‘होली है होली’ का खेल शुरू किया। कई छोटे‡बड़े कलाकारों को इस बहाने सामने आने या एक‡दूसरे में घुल‡मिल जाने का अवसर मिला। अपनी मालिकाओं की कहानियां भी यकायक होली की ओर मुड़ जाती हैं। कुछ मालिकाओं में होली की पूजा होती है, जलाई जाती है, कुछेक में ‘रंगपंचमी’ मनाई जाती है। रसिक दर्शक कहानी में आए इस अचानक मोड़ से परेशान नहीं होते। कोई निर्माता‡लेखक होली का महत्व विशद नहीं करता, शायद होली के बहाने दो‡चार भागों पर रंग चढ़ा देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। कुछ चैनल ‘रंग बरसे’, व्यंग्य आदि का इस्तेमाल कर होली के लिए भरपूर मनोरंजन देते हैं। कलाकारों की भेंट‡वार्ताओं से भी होली का रंग उजागर होता है। उन्हें अपने बचपन की होली याद आती है। शहर और गांव की होली की अपने‡आप तुलना हो जाती है।

हिंदी फिल्मों में होली के ये रंग चौतरफा है। ‘फैशन की दुनिया’ को भी अब रैम्प पर होली मनानी चाहिए और होली के रंगों से सने डिजाइनर कपड़े बाजार में लाने चाहिए। यह मनोरंजन की दुनिया में अगला कदम माना जाएगा!

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Tags: #holifestival of colorsheritagehindi vivekhindi vivek magazinehindu culturehindu festivalhindu traditions

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