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नई शिक्षा नीति आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ता कदम

नई शिक्षा नीति आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ता कदम

by अमोल पेडणेकर
in आत्मनिर्भर भारत विशेषांक २०२०, शिक्षा
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लगभग 35 वर्षों बाद नई जीवनानुकूल शिक्षा प्रणाली आ रही है। नई शिक्षा नीति में ऐसे छात्रों का निर्माण होगा, जो भारत की जड़ों से जुड़े रहें और आधुनिकता के साथ भी कदम मिलाए। इसलिए इस नीति का स्वागत ही किया जाना चाहिए, क्योंकि यह आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ा एक और महत्वपूर्ण कदम है।

नई शिक्षा नीति 2020 का स्वागत करना चाहिए। नई शिक्षा नीति निश्चित ही दूरगामी परिणाम का प्रारंभ है। परिवर्तन चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, वह यदि सकारात्मक हो तो आनंद का विषय होता है। भारतीय शिक्षा प्रणाली में कोई 35 सालों बाद परिवर्तन आया है। इस घोषणा का स्वागत ही किया जाना चाहिए। यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण कदम है। इसके साथ लक्ष्य भी जुड़ा है और लक्ष्य के पहुंचने के साधन भी जुड़े हैं।

नई शिक्षा नीति का स्वागत करते समय अपनी अब तक चली आ रही शिक्षा प्रणाली के संदर्भ में भी कुछ विचार मन मे उभरते हैं। हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था तीन चरणों में बंटी है- पाठ्यक्रम तय करना, उसके अनुसार विद्यार्थियों को पढ़ना, और अंत में प्रश्नों के आधार पर परीक्षा लेना। पाठ्यक्रम तय करने वाले, उसे पढ़ाने वाले और उसे ग्रहण करने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति होते हैं। उनमें आपस में कोई तालमेल नहीं होता है। शिक्षा नीति को तय करने वाली इस संपूर्ण प्रक्रिया में हमें जिस विद्यार्थीयों को शिक्षित करना है उसकी रूचि, प्रतिभा, स्थानीय परिस्थिति और उसकी आवश्यकता इन सब बातों का कहीं कोई मेल अथवा विचार ही नहीं होता है। प्राप्त शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थियों में अपनी संस्कृति परंपराओं से जुड़े मूल्यों, आधुनिकता और भारतीय सामाजिकता की चेतना के संदर्भ में निष्ठा कैसे निर्माण की जा सकती है? विद्यार्थियों में निर्माण हुई उन उच्च मूल्य शिक्षा को और किस प्रकार से विकसित किया जा सकता है? इस प्रकार का योजनाबद्ध दृष्टिकोण भारत की स्वतंत्रता के बाद आज तक विकसित नहीं किया गया है।

शिक्षा के माध्यम से मनुष्य में आधुनिक मूल्यों के प्रति संवेदनशीलता, विश्वास और उसका अनुकरण करने की निष्ठा कैसे विकसित की जा सकती है, इसके लिए हमारी वर्तमान शिक्षा कौन से प्रयास कर रही है? क्योंकि शिक्षा ऐसी प्रक्रिया है जिसे पाकर जब विद्यार्थी बाहरी व्यावहारिक जीवन में प्रवेश करता है, तब उसमें प्राप्त शिक्षा से स्वतंत्र विवेक शक्ति की वृद्धि होनी चाहिए। क्या ऐसा होता है? क्या उस शिक्षा से सामाजिक समरसता का भाव उस विद्यार्थी निर्माण होता है? क्या सामाजिक व्यवहार में अहिंसा -भाईचारा जैसे विचारों का वह कोई उपयोग कर पाता है? क्या हमारी वर्तमान शिक्षा नीति सामाजिक सहयोग की मानसिकता का विद्यार्थी में विकास कर रही है? जब गहराई से सोचें तो इन सब सवालों के हमें संतोषजनक जवाब नहीं मिलते हैं। इसका मतलब यह है कि आज हम जो शिक्षा ले रहे हैं वह राष्ट्रीय एवं सामाजिक जीवन को उन्नत करने में व्यक्ति को प्रोत्साहित नहीं कर रही है।

कोई विद्यार्थी किसी अन्य कला में विशिष्ट प्रतिभा रखता हो, लेकिन गणित, वाणिज्य, विज्ञान जैसे विषयों में उसे गति न हो फिर भी उसे ऐसे रुचिहीन विषयों की ओर जबरन ढकेलने की चेष्टा की जाती है अथवा उसे आगे की शिक्षा से वंचित होना पड़ता है। यह बात उस विद्यार्थी के प्रति अन्याय ही है। जो शिक्षा प्रक्रिया वर्तमान में चल रही है वह मनुष्य की स्वतंत्रता और गरिमा को बेदखल करने वाली है। वर्तमान शिक्षा प्रक्रिया अपने गलत स्वरूप और व्यवहार के कारणों से विद्यार्थियों को विपरीत दिशा में ले जा रही है। यह विपरीत दिशा भारत स्वतंत्र होने के बाद 70 सालों से निरंतर चल रही है। यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि सभी विद्यार्थियों का सामान्य ज्ञान अति उत्तम श्रेणी का ही हो। उसका ज्ञान तो रटेरटाए जवाबों से तय होता है। इसी आधार पर हम विद्यार्थियों की योग्यता व अयोग्यता तय करने में लगे हुए हैं। विद्यार्थियों की क्षमता और योग्यता पर सवालिया निशान नहीं लगने चाहिए। सवाल तो उस शिक्षा प्रणाली के औचित्य पर लगना चाहिए जो परीक्षा में अच्छे अंक पाने का ही ज्ञान विद्यार्थियों को देती है।

भारत के नागरिकों को रोजी-रोटी के लिए सक्षम बनाने का प्रयास भारत की शिक्षा नीति करती है। इस प्रकार की शिक्षा का अर्थ यह नहीं है कि हम भारत के नागरिकों को अपनी शिक्षा के माध्यम से सर्वांगीण तरीके से विकसित कर रहे हैं। शिक्षा का अर्थ होता है विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास करना। शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब विद्यार्थी अपने व्यवहारिक जीवन में आता है, तो वह जीवन की संपूर्ण चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए तैयार होना चाहिए। हमारी संपूर्ण शिक्षा प्रणाली इस बात पर खड़ी हुई है कि विद्यार्थी अपने शिक्षा जीवन में प्रश्नपत्रिका में आने वाले सवालों के जवाब हल करने के लिए सिर्फ रटीरटाई पढ़ाई करते हैं।

लॉर्ड मैकाले ने इस देश में सिर्फ क्लर्क बनाने की शिक्षा प्रदान की थी। मैकाले की शिक्षा नीति के माध्यम से देश में ऐसे शिक्षितों की पैदाइश तो बढ़ाई है, जिनका शरीर भारतीय है लेकिन दिमाग अंग्रेजी है। लेकिन भारत देश स्वतंत्र होने के बाद हमने क्या किया? यह भी सवाल निर्माण होता है। स्वतंत्रता के बाद पिछले 70 सालों में भारत देश में स्कूलों, कॉलेजों की संख्या बहुत बढ़ी है। ग्रामीण स्तर से लेकर शहरों तक साक्षरता का अनुपात भी बढ़ा है। लेकिन यह सवाल बार-बार उठता है कि क्या हमारी वर्तमान शिक्षा से पूरी तरह भारतीय व्यक्तित्व तैयार होकर बाहर आता है? हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य क्या है? हमारा दुर्भाग्य यह है कि भारत देश की स्वतंत्रता के बाद भी हम शिक्षा के क्षेत्र में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन ला नहीं सके। हमने आने वाली पीढियों को सिर्फ इन सवालों में उलझाए रखा कि परीक्षा में आने वाले सवालों का जवाब सही तरीके से देने पर जीवन की परीक्षा में हम सफल हो सकते हैं। लेकिन जीवन की सही परीक्षा में सफलता पाने में यह मददगार होते नजर नहीं आ रहा है। सरकार के इस रवैए पर अनेकों बार कई माध्यमों ने, शिक्षा से जुड़े विचारकों ने चिंता प्रकट की थी। लेकिन हमारे देश के राजनैतिक नेताओं को शिक्षा का यह विषय चिंता करने योग्य कभी नहीं लगा, यह हमारा दुर्भाग्य है।

शिक्षा को अपने सांस्कृतिक जीवन मूल्यों का ठोस आधार और भारतीयता का व्यापक संदर्भ देना यह प्रमुख मुद्दा है। शिक्षा को सिर्फ परीक्षाओं में आने वाले सवालों के जवाब देने तक सीमित रखने के बजाय जीवन उन्मुखी बनाने का प्रयास होना अत्यंत आवश्यक है। विद्यार्थी को मनुष्य बनाना यही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। व्यक्ति को मनुष्य बनाना इसका मतलब यह होता है कि राष्ट्र और समाज के प्रति संवेदनशील बनाना। यही संवेदनशीलता मनुष्य को सामाजिक एवं राष्ट्रीय मुद्दों से जोड़ती है। गत 70 सालों से चली आ रही शिक्षा प्रक्रिया को हम देखते हैं तो वह हमारी मानवीय स्वतंत्रता और संवेदनशीलता का दमन करने वाली महसूस होती है। समाज में अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा को उकसाने वाली, मनुष्य को निर्जीव अंक एवं आंकड़ों से जबरन जोड़कर रखने वाली मालूम पड़ती है। इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों में भारतीय मूल्य और जीवन से जुड़े मूल्यों के प्रति वास्तविकता और व्यवहार में निष्ठा का विकास करने वाली कैसे संभव हो सकती है?

ज्ञान की प्रतिष्ठा विद्यार्थियों में बेतुके सवालों के जवाब देने से पैदा होती है या शिक्षा के कारण मन में आनंद का जो स्रोत निर्माण होता है उससे मिलती है। अपनी शिक्षा की सारी प्रकिया में अत्यंत आवश्यक बात यह है कि शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच एक गहरा रिश्ता निर्माण हो। वह शिक्षा विद्यार्थियों के लिए जीवन में अस्मिता और आनंद का स्रोत अनुभव करने का माध्यम हो। कैसे शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी की जीवन-निष्ठा में आधुनिक एवं भारतीय मूल्यों के प्रति चेतना जागृत हो? शिक्षा का मूल्य क्या है? हम विद्यार्थियों को जो शिक्षा दे रहे क्या वह वर्तमान के अनुकूल है? क्या हमारी शिक्षा से आधुनिकता और अपनी जड़ों से जुड़े रहने का एहसास विद्यार्थियों को हम दे पाते हैं? हमारी पारंपरिक, सांस्कृतिक आदर्शता और आधुनिकता का मेल हमारी शिक्षा से प्रसारित होता है? इस प्रकार के ढेर सारे सवाल आज की शिक्षा प्रणाली पर उठ रहे हैं।

भारतीय परंपरा में शिक्षा देने वाला जो शिक्षक है उसे अत्यंत आदर का स्थान होता है। अपनी भारतीय परंपरा में हमारे शिक्षकों का लक्ष्य सदा अपने छात्रों के कल्याण का होता था। भारतीय परंपरा में ऐसे गुरुओं की भरमार हैं, जिन्होंने कड़ी कसौटी पर खरे उतरने वाले गुणवान विद्यार्थियों का निर्माण किया है। उन्होंने तत्कालीन भारत को विकसित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन आज वह एक पौराणिक कथा सी लगती है और ऐतिहासिक कथाओं में जमा होकर रह गई हैं। शिक्षा की गुणवत्ता सुधार में महत्वपूर्ण सहभाग अध्यापक का होता है। क्या आज हमारा अध्यापक इस तरह की शिक्षा देने में सक्षम है? आज अपने अध्यापक उनकी क्षमताओं और चारित्रिक गुणों की कल्पना किस प्रकार से करते हैं? वह तो सरकारी या निजी शैक्षणिक संस्थाओं के आदेशों से पूरी तरह से बंधा हुआ नौकर लगता है। स्वतंत्रता के बाद हमारी शिक्षा व्यवस्था ज्यादातर अप्रशिक्षित अध्यापकों की समस्या से जूझ रही है, जिस वास्तविकता को हमें स्वीकार करना ही होगा। जब हमारी वास्तविक चिंता शिक्षा का फिसड्डी स्तर यह है, तब शिक्षा से जुड़े इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर प्राप्त किए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।

भारतीय जनमानस में अपनी शिक्षा नीति को लेकर जब चिंता निर्माण हो रही थी, तब मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 के प्रस्तुत की हुई है। इस शिक्षा नीति में मानवीय मूल्यों से युक्त नागरिक बनाने की कोशिश महसूस होती है। इसमें ऐसा लचीलापन महसूस होता है जो वर्तमान शिक्षा की जड़ता को तोड़ सके। शिक्षार्थियों ने जो भी अपना समय शिक्षा के लिए दिया है उसका कोई ना कोई लाभ उसे मिल सकता है। इन बातों को सुनिश्चित करने का प्रयास इस नई शिक्षा नीति में किया गया है। जैसे एक विज्ञान का विद्यार्थी संगीत की पढ़ाई कर सकता है। विज्ञान और संगीत दोनों विषय उस विद्यार्थियों को रचनात्मक बना सकते हैं। संगित से आत्मिक आनंद मिल सकता है और विज्ञान से व्यवसायिक लाभ भी हो सकता है। पश्चिमी देशों की शिक्षा व्यवस्था के साथ भारतीय शिक्षा व्यवस्था के गहन संवाद स्थापित करने की कोशिश शिक्षा नीति 2020 में महसूस होती है। संपूर्ण देश में पांचवीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से, आठवीं तक वरीयता के आधार पर और उसके बाद ऐच्छिक आधार पर मातृभाषा और स्थानीय भाषा से छात्रों को शिक्षा लेने का प्रावधान है। जिसके कारण मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं से अपने सामाजिक अनुभव, संवेदना, मूल्य और भावनात्मकता से जोड़े जा सकते हैं। आज की शिक्षा प्रणाली में छोटासा शिशू अपनी शिक्षा का प्रारंभ करते ही उसका स्व-संस्कृति से सबंध कटना शुरू हो जाता है। शिक्षा पूरी करके जब वह सांसारिक जीवन में प्रवेश करता है, तब तक तो वह अपने सामाजिक, सांस्कृतिक अनुभवों और संवेदनाओं की परंपरा से बहुत बड़ा अंतर रखता है। शिक्षा के विभिन्न द्वारों के माध्यम से प्रवेश की व्यवस्था और विषय से बाहर निकलने की लचीली व्यवस्था बनाने की योजना इस नई शिक्षा प्रणाली में है। कोई कहीं से भी किसी भी कोर्स में आ सकता है, बाहर जा भी सकता है। कोई भी कोर्स छोड़कर जाने के बाद में उसका उसमें गुजरा समय बेकार नहीं जाएगा ऐसी व्यवस्था नई शिक्षा नीति के विकसित होने जा रही है। वैश्विक विश्वविद्यालयों के देश में आगमन और निजी क्षेत्र के उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों के प्रसार से नई व्यवस्था आसान बनने की संभावना दिखाई दे रही है। इस शिक्षा नीति को आकार देने वाली मोदी सरकार ने इसे व्यावहारिक और भावनात्मक जामा प्रदान करने में भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है।

बाजार और समय की जरूरतों के अनुसार शिक्षा को ढालने की एक समय आलोचना की जाती थी। लेकिन अब रोजगार और बाजार एक दूसरे से जुड़ते जा रहे हैं। अब विदेशी संस्थानों से उनसे मुकाबला कर भारतीय उच्च शिक्षा को विश्व स्तर पर स्थापित करने की जरूरत है। अब देखना है कि अपनी सामाजिक संपदा, देश का ज्ञान और लोग भावनात्मकता को आधुनिकता से जोड़कर यह नई शिक्षा नीति क्या भारत में परिपूर्ण नागरिक के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर पाएगी? आत्मनिर्भर भारत बनाना है तो ऐसी ही शिक्षा उसकी आधारशिला बन सकती है। इसलिए नई शिक्षा नीति का स्वागत करना अत्यंत आवश्यक है। नई शिक्षा नीति भविष्य में एक दूरगामी परिणाम का प्रारंभ है। लेकिन दो बातों में सतर्कता आवश्यक है। पहली बात तो यह है कि उत्कृष्ट संकल्पना और योजनाएं तैयार करने में हम सदैव अग्रसर रहे हैं। लेकिन जब उस योजना को अमल में लाने का समय आता है तो उन योजनाओं में बहुत सारी खामियां महसूस होने लगती हैं। दूसरी बात यह है के इस नई शिक्षा नीति के तहत शिक्षा ग्रहण करके जब लाखों विद्यार्थी निकलेंगे, तब उनके योग्यता के अनुसार उन्हें रोजगार के अवसर उपलब्ध होने आवश्यक है। सकारात्मक, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन, कृषि, उद्योग, व्यापार जैसे क्षेत्रों को गति देने की जरूरत है। नई शिक्षा प्रणाली से निर्माण होने वाले विद्यार्थियों को उनकी नवप्रतिभा के अनुसार सापेक्ष अवसर निर्माण करने होंगे। पाठ्यक्रम सुधारने या बदलने से शिक्षा में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। मूल्यहीन पूरी शिक्षा प्रक्रिया को बदलना अत्यंत आवश्यकता था। मोदी सरकार में इस परिवर्तन प्रक्रिया को प्रारंभ किया हुआ है। सत्तर साल से चली आ रही जो स्कूली प्रक्रिया थी उस प्रक्रिया को बदलना प्रारंभ हुआ है। विद्यार्थियों के आचरण में भारतीय मूल्यों के संदर्भ में हीनता और विरोधाभास का भाव निर्माण करने वाली मैकाले की शिक्षा प्रणाली को बदलने का प्रारंभ हो रहा है। नई शिक्षा नीति से भारत को आत्मनिर्भर बनाने वाली नई पीढ़ी भारत में अग्रसर होनी आवश्यक है।
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