गुरु-भक्त स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद मुस्कुराये और पाद वन्दन करते हुए विनीत भाव से बोले ‘‘गुरुवर! आप ही ने तो नरेन्द्र को विवेकानंद बनाया था। आप जैसे गुरु का पारस स्पर्श था, जो आपके समक्ष है। आपकी ही प्रेरणा से मैं यहां तक पहुंचा हूं।…’’

सन् 1892 में स्वामी विवेकानंद शिकागो (अमेरिका) में धर्म-संसद में दिये गये उद्बोधन से प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। भारत लौटने पर उनका स्थान-स्थान पर स्वागत हो रहा था। जन-मानस अपने श्रद्धास्पद स्वामी विवेकानंद का स्वागत पलक-पावड़े बिछाकर भिन्न-भिन्न प्रकार से कर रहा था। शोभा-यात्राएं निकाली जा रहीं थीं। यहां तक कि मद्रास प्रांत के रामानाडू के राजा ने बग्घी को खूब सजावाया, उस पर स्वामी विवेकानंद को बैठाया और घोड़े के स्थान पर स्वयं जुतकर उस विश्वविजयी संन्यासी का स्वागत-सत्कार किया।

आज से 120 वर्ष पूर्व अमेरिका से लौटने पर जब स्वामी विवेकानंद मद्रास प्रांत (तमिलनाडु) से सम्मानित और सत्कारित होकर अपनी जन्मभूमि कलकत्ता लौटे तो वहां की जनता ने विश्व विख्यात संन्यासी स्वामी विवेकानंद का भव्य और अभूतपूर्व स्वागत करने की तैयारी कर रखी थी। बंगाल की प्रथा के अनुसार घोड़ागाड़ी को खूब सजाया गया। उस पर स्वामी विवेकानंद को बिठाया गया और कलकत्ता की गली-गली में गाड़ी घूमने लगी। सुसज्जित गाडी पर बैठे स्वामी विवेकानंद निर्विकार भाव से जनता का स्वागत स्वीकार कर रहे थे। शोभायात्रा चलते-चलते एक गली के नुक्कड़ पर पहुंची तो स्वामीजी को अचानक ध्यान आया और घोड़ागाड़ी को रुकवा दिया। पलक झपकते ही वे उतर पड़े और लपक कर एक जीर्ण-शीर्ण मकान में प्रवेश करने के लिये उद्यत हुए।

कुछ नवयुवक स्वामीजी की इस भावना को भांपकर पहले ही दौड़कर उस मकान में रहनेवाले बुजुर्ग को आवाज लगाकर आगाह करने लगे- ‘‘स्वामी विवेकानंदजी आ रहे हैं, जल्दी आइये।’’ ऐसा सुनते ही निवास करनेवाले उस बुजुर्ग ने घबड़ाते हुए कहा, ‘‘स्वामी विवेकानंदजी आ रहे हैं, अरे मेरी चप्पल तो उठाओ।’’ वे सज्जन नंगे पैर ही स्वामीजी से मिलने के लिये आगे बढ़ना चाह रहे थे, तभी स्वामीजी ने उन वृद्ध सज्जन की बात सुन ली थी, ‘मेरी चप्पल तो उठाओ।’ और अति शीघ्र स्वामी विवेकानंद स्वयं चप्पलें उठाकर उन तक पहुंचे और विनम्र भाव से बोले, ‘‘गुरुजी! ये रहीं आपकी चप्पलें।’’

उन वृद्ध सज्जन ने डबडबाती हुई आंखों से देखा और कहा- र्‘‘अरे! आपने यह क्या किया? विश्व प्रसिद्ध स्वामी विवेकानंद मेरी चप्पल हाथ से उठाकर लाये!’’

स्वामीजी मुस्कुराये और पाद वन्दन करते हुए विनीत भाव से बोले ‘‘गुरुवर! आप ही ने तो नरेन्द्र को विवेकानंद बनाया था। आप जैसे गुरु का पारस स्पर्श था, जो आपके समक्ष है। आपकी ही प्रेरणा से मैं यहां तक पहुंचा हूं।…’’

इससे आगे स्वामीजी अपने गुरुजी से कुछ नहीं कह सके। भावुक हृदय विह्वल हो उठा। दोनों ओर से अश्रुधारा बह चली। गुरु के प्रति असीम श्रद्धा भाव आंसू बनकर व्यक्त हो रहे थे। गुरु श्री सुरेन्द्रनाथ दत्त भी अपने महान शिष्य के महामिलन से विलगित हो उठे थे।

उन्होंने अपने दुर्बल हाथों से श्रेष्ठ शिष्य को गले लगा लिया। महान शिष्य की गरिमा को गुरु सुरेन्द्रनाथ दत्त अनुभव कर कृतकृत्य हो उठे थे।
श्री सुरेन्द्रनाथ दत्त, कलकत्ता के एक विद्यालय में अध्यापक रह चुके थे और इन्होंने ही बालक नरेन्द्र की स्वामी रामकृष्ण परमहंस से भेंट करायी थी। धन्य है गुरु-भक्ति की भावना जो भारतीय संस्कृति की अनुपम देन है, जिस भावना का प्रत्यक्ष उदाहरण देकर स्वामी विवेकानंद ने अभिव्यक्ति दी।

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