आशीष

-लगभग पंद्रह वर्ष पहले की बात है। मैं पीएच.डी. कर रही थी। मेरे पीएच.डी. के मार्गदर्शक श्री पाटील सर ने एक और उपन्यास का नाम सूची में बढ़ा दिया, ‘तत्सम’ लेखिका- राजी सेठ। उपन्यास पाने की कोशिश शुरू हो गयी। महीनों बाद रिश्तेदारों के माध्यम से उपन्यास की खरीदारी हो गयी। लेकिन वह उपन्यास मुझ तक पहुंचते-पहुंचते लगभग एक साल बीत गया। उपन्यास प्राप्त करने में जो मेहनत हुई थी, उस कारण उपन्यास का मूल्य मेरी नजरों में काफी बढ़ गया था। उपन्यास जिस रोज हाथ में आया था, उसी रात वह पढ़कर पूरा हो गया। अध्ययन के दौरान कई बार ‘तत्सम’ पढ़ लिया और आज भी मन करता है बार-बार पढती रहूं। कई उपन्यास और ‘तत्सम’ में बहुत अंतर था। इसी कारणवश् उपन्यास की लेखिका राजी सेठ और मुझमें एक रिश्ता सा बन गया। कई बार राजी सेठ जी से मिलने का मन हुआ। किंतु प्रत्यक्ष बात न हो सकी।

पीएच.डी. का कार्य पूरा होने वाला था, कि घर में बहुत बड़ी दुर्घटना हो गयी। अंतिम कार्य जैसे-तैसे पूरा कर लिया। लेखिकाओं से मिलने की आकांक्षा पूरी न हो सकी। पीएच.डी. की उपाधि मिली। मैं माधुरी से डॉ. माधुरी बन गयी। लेकिन मन में राजीजी से मिलने की जो बात थी, वह मेरे मन में ही रह गयी। न मिल पाने से भी रिश्ता पनपता है। यह मैंने जीवन में पहली बार अनुभव किया।

लगभग तीन साल पूर्व एक प्रकाशन संस्था से मन्नू भंडारीजी का फोन नंबर प्राप्त हुआ। मन्नूजी से राजी सेठ का फोन नंबर मिल गया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सवेरे के लगभग ग्यारह बजे मैंने नंबर मिलाया। एक अधेड़ उम्र की स्त्री की आवाज आयी, ‘‘राजीजी से बात कराती हूं, होल्ड कीजिए।’’ होल्ड फोन नहीं, मेरा दिल कर रहा था। राजीजी ने कहा, ‘‘हां बोलिए मैं राजी बोल रही हूं, आप?…’’ मेरी आत्मा मेरे कानों में आकर सिकुड़ गयी और आंखों में नीर…। मैं क्या कहूं? क्या बोलूं? मेरा परिचय क्या है? मुझे कुछ बोलना भी है? दूसरे छोर से ‘‘हैलो हैलो’’ की आवाज आ रही थी और मेरे कंठ से शब्द अक्षर ही क्या अ तक नहीं निकल रहा था। सब कहते हैं मैं गप्पे लडाने में माहिर हूं। बातें करना तो कोई मुझसे सीखें। किंतु उस पल मैंने जो पाया था उस खुशी के मारे मेरा कंठ अवरुध्द हो गया था और आंखें बह रही थीं। बाद में बात हो गयी। होती रही। मैं राजीजी से मिलने दिल्ली गयी। अपने स्वजनों के साथ जाकर मैं उनसे और उनके पति से (जो पहली मुलाकात में मेरे अंकल बन गये) मिलकर आ गयी। फिर भी मिलने की आस अधूरी रही। दो-तीन बार मुलाकात हो गयी। फोन के जरिए भी बातें होती रहती हैं। मन करता है एक बार और बात करूं। एक बार और मिलकर आ जाऊं। मेरे लिए वह अब केवल राजी सेठ नहीं राजी मां हैं।

महीने भर पहले की बात है। मैं राजी मां से मिलने के बारे में सोच रही थी। उसी वक्त मेरे गुरु स्वामी रामदेवजी द्वारा हरिद्वार में आयोजित योग शिविर का निमंत्रण मिला। आदेश हुआ ‘शिविर के लिए आना अनिवार्य है।’ शिविर के लिए सफेद पोशाक के साथ मेहरून रंग का स्वेटर, शाल जरूरी है। मेरे पास शाल तो मेहरून रंग की थी, लेकिन स्वेटर नहीं था। मैंने शिविर जाने के लिए सफेद रंग का स्वेटर दो दिन पहले ही खरीदा था। घर में चार-छह स्वेटर्स पहले से थे, लेकिन एक भी मेहरून रंग का नहीं था। तैयारी करते-करते हरिद्वार जाने का समय नजदीक आ गया था। हमारे गांव में मेहरून रंग का स्वेटर नहीं मिल पाया और मंगाने की फुरसत थी नहीं। तो यह खरीदारी अगले पड़ाव- अकोला में करना तय हो गया। हम अकोला पहुंच गये। वहां मेरी सहेली ने कहा, ‘‘जाने भी दो, यहां- कहां स्वेटर खरीदोगी? दिल्ली में बढ़िया मिलता है।’’ और बात टल गयी।

घना कोहरा छाया हुआ था। इस वजह से ट्रेन सवेरे सात बजे की जगह रात साढ़े नौ बजे दिल्ली पहुंची। खरीदारी की बात मन की मन में ही रह गयी। मैं सवेरे से सहेलियों के दिल्ली-दर्शन की व्यवस्था में व्यस्त रही। चाहती थी, सभी को दिल्ली घूमने के लिए भेज दूं और मैं राजी मां से मिलकर आ जाऊं। इसी कारण से हमने किराये पर टैक्सी ले ली। मुझे सहेलियों ने राजी मां के घर ड्रॉप कर दिया। बाकी सभी दिल्ली दर्शन के लिये चले गये।

टैक्सी से उतरते समय अच्छी खासी धूप खिली थी। मुझे स्वेटर-शाल पहनने से सख्त नफरत थी, किंतु दिल्ली की ठण्ड से डर कर और अभी दस दिन ठण्ड के मौसम में रहना है, यह सोच कर मैंने स्वेटर, शाल, स्कार्फ सभी पहन रखा था। मन में न जाने क्या बात आ गयी या फिर धूप के कारण मैंने स्वेटर वगैरह उतारकर टैक्सी में रख दिया था। मैं राजी मां से मिलने के लिए बेताब थी। घर का दरवाजा हमेशा की तरह राजी मां ने ही खोला बहुत प्यार से हंसते हुये गले लगाकर स्वागत किया।
देर तक बातें होती रहीं। अंकलजी भी बातों में शामिल थे। दोनों मिलकर कितना कुछ प्यार से खिला रहे थे। राजी मां कह रही थीं, ‘‘अरे, तुमने तो कुछ खाया ही नहीं। लड्डू तो खाकर देखो, तुम जरूर पसंद करोगी।’’ इतनी मिठास, इतना स्नेह, इतना प्यार मैं बटोर भी नहीं पायी थी कि सहेली का फोन आ गया। वे सब दिल्ली घूमते-घूमते दूसरे छोर तक पहुंच गये थे। वहां से मुझे लेने के लिए आना संभव नहीं था। हम जहां ठहरे हुए थे वहीं पर वे सभी पहुंचने वाले थे और मुझे भी सीधा वही पर ऑटो लेकर पहुंचना था। हरिद्वार जानेवाली ट्रेन घंटे भर बाद छूटनेवाली थी। मैं चाहकर भी रुक नहीं सकती थी। कितनी बेबस थी मैं…

राजी मां ने मुझे तुरंत जाने की सलाह दी और अंकल के साथ विदा करने गेट तक आ गयी थीं। मैं निकल रही थी कि राजी मां ने कहा, ‘‘अरे, तुमने तो स्वेटर भी नहीं पहना!’’ मैंने कहा, ‘‘मैंने टैक्सी में रख छोड़ा है। अच्छी खासी धूप है ऑटो से तो जाना है और मुझे ठंड भी नहीं लगती।’’ पर वह सुनने के लिए तैयार नहीं थीं। ‘‘यह दिल्ली की ठंड है, बर्फ की ठंड है, तुम बीमार हो जाओगी। रुको, मैं अभी तुम्हारे लिए स्वेटर लेकर आती हूं।’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं कोई आवश्यकता नहीं, मैं दस मिनट में…’’ पर वह सुन कहा रही थीं। पचहत्तर वर्ष आयु की वह यौवना दौंडती हुई सीढ़ियां चढ रही थीं। कुछ ही सेकेंड बाद राजी मां स्वेटर हाथ में लेकर दौड़ती-भागती मेरे पास आ गयीं। मैं ना-ना कर रही थी। मुझे अनसुना करते हुए उन्होंने मेरे कंधे पर स्वेटर केवल रखा नहीं, वह तो आस्तीन में मेरे हाथ डालने लगी। मुझे महसूस हुआ कि मैं, मां की गोद में खेलती दो-ढाई साल की बच्ची हूं और लाख मना करने पर भी वह ममतामयी मां मुझे स्वेटर पहना रही है। अब मेरी बोलती बंद हो गयी थी। अंकल कह रहे थे, ‘‘माधुरी पहन लो बेटा, यह राजी की गर्मी है सदा तुम्हारे साथ रहेगी आशीष बनकर।’’ मैं कैसे कुछ बोल पाती? आंखें भर आई थीं। मैं जाने के लिए मुड़ गयी या कपोलों पर गिरती गरम बूंदें छिपा गयी? पता नहीं। ‘आती हूं’ कहा पर पीछे मुड़कर देख न पायी। पिछे मुड़ कर देखती तो उनसे अपना राज कैसे छुपाती? ऑटो में बैठ कर मैंने स्वेटर की तरफ देखा, स्वेटर का रंग मेहरून था। राजी मां की स्नेह-ममता का प्रतीक वह धागा-धागा पक्का था। रेशमी, मुलायम, मेहरूनी…..।

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