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स्वतंत्रता के साढ़े छह दशक कहां से कहां तक पहुँचे हम

स्वतंत्रता के साढ़े छह दशक कहां से कहां तक पहुँचे हम

by विशेष प्रतिनिधि
in अगस्त-२०१२, सामाजिक
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स्वतंत्रता शब्द सुनते ही एक अलग प्रकार का आनंद होता है, इस आनंद को अभिव्यक्त करने का सभी का अलग-अलग अंदाज हो सकता है। 1857 से लेकर 1947 तक लगातार संघर्ष करने के बाद देश को अंग्रेजी हुकुमत से मुक्ति मिली । 65 वर्षीय स्वतंत्र भारत मे रहने वाले लोगों की दृष्टि में देश की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? जिदंगी की जद्दोजेहद में स्वतंत्रता दिवस का आनंद नहीं मनाने का दु:ख भी कम नहीं है। 15 अगस्त, 1947 से लेकर 15 अगस्त, 2012 तक भारत कहां से कहां तक पहुंचा, इसका गंभीरता से अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि बीते 65 सालों में भारत ने विकास के उतने सोपान नहीं चढ़े, जितने अपेक्षित थे।

देश ने बेशक विकास किया है, विकास की ओर निरंतर आगे बढ़ते भारत में विकास सरकारी सुविधाओं में वृद्धि के तौर पर नहीं देखा। विकास गैर सरकारी प्रतिष्ठानों, संस्थाओं का ज्यादा हुआ है, इस कारण सरकारी सुविधाओं की ओर जनमानस का ध्यान आकृष्ट नहीं हो पाया। स्वतंत्र भारत का विकास न होने की दलीलें देने वालों का मुंह यह कहकर बंद कर दिया जाता है कि हर दिन सर्व-सुविधायुक्त कंपनियां, मॉल खुल रहे हैं, पर ये सर्व- सुविधायुक्त मॉल, दुकानें, प्रतिष्ठान आम जनता की पहुंच के बाहर हैंं। ये विकास के ऐसे प्रतिष्ठान हैं, जहां धनाड्य वर्ग के लोगों का जमावड़ा होता है। 65 वर्ष की आजादी में हमने क्या खोया, क्या पाया? अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो ज्ञात होगा कि विकास, उन क्षेत्रों में हुआ, जहां ज्यादा जरूरत नहीं थी। अंतरिक्ष, विज्ञान, सूचना और तकनीक जैसे क्षेत्रों में देश ने प्रगति के कई सोपान चढ़े, पर सरकारी सुविधाओं, जनोपयोगी क्षेत्रों में हमारी प्रगति संतोषजनक नहीं रही है। आज भी देश के कई गांवों में बिजली नहीं पहुंची है, पक्के रास्ते नहीं हैं, कॉलेज नहीं हैं, लेकिन दूसरी ओर कई ऐसे गांव हैं, जहां विकास कार्य बड़ी तेजी से हो रहे हैं।

कृषि प्रधान इस देश में कर्ज से त्रस्त होकर किसानों की आत्महत्या का आर्तनाद है, तो गोदामों के अभाव में अनाज के सड़ने का अफसोस भी है। कहीं बिजली संकट से देश की जनता त्रस्त है, तो कहीं दिन-रात बिजली का अपव्यय किया जा रहा है। कहीं भ्रूण हत्या का दर्दनाक चित्र दिखाई दे रहा है, तो कहीं विवाहित महिलाएं दहेज की बलि चढ़ाई जा रही हैं। विकास को देखने की दृष्टि से अगर अब तक हुई प्रगति का मूल्यांकन किया जाए तो बीते 65 सालों में आर्तनाद तथा आह्लाद दोनों को सहजता से देखा जा सकता है। कभी सोने की चिड़िया कहा जाने भारत भले ही विकासशील से विकसित देशों की कतार में अभी तक न पाया हो, पर इस देश ने अंतरिक्ष, विज्ञान, सूचना-तकनीकी क्षेत्रों में आशातीत सफलता जरूर अर्जित की है। कुछ लोग देश में इन क्षेत्रों में हुई प्रगति को ही सबसे बड़ी प्रगति करार दे रहे हैं, वहां दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अधिकांश गांवों में 65 साल बीतने के बाद भी मूलमूल सुविधाओं के न पहुंच पाने, आपदा-आफत के समय हमारे प्रबंधों की हवा निकलने को देश की विफलता से जोड़कर देखते हैं। हर साल मानसून से पहले इस बात की दलीलें देने वालों की संख्या बहुत ज्यादा होती है कि इस बार बरसात में कहीं जल-जमाव नहीं होगा, पर हकीकत यह यह है कि कुछ पल की बरसात में इलाके-इलाके पानी में डूब जाते हैं, ऐसा क्यों होता है? अगर सवाल का उत्तर तलाशने की कोशिश की जाए तो हमारी प्रशासनिक लापरवाही तथा जिन पर जन सुविधाओं की पूर्ति का दायित्व सौंपा गया था, वे अपना काम जिम्मेदारी से नहीं कर रहे हैं, इस बात का खुलासा हो जाएगा।
मूलभूत सुविधाओं के अभाव में सर्व-सुविधायुक्त किसी मॉल के निर्माण को शहर के विकास के रूप में देखना बेमानी है। सरकारी संस्थाओं यथा कार्यालयों, अस्पतालों, स्कूलों में दी जाने वाली सुविधाओं को प्रगति की संज्ञा देना उचित नहीं है, क्योंकि जब तक आम जनता की जरूरतें पूरी नहीं होंगी, तब तक यह कहना गलत होगा कि देश प्रगति कर रहा है, क्योंकि निजी कार्यालयों में दी जाने वाली सुविधाएं कुछ खास लोगों तक ही सीमित होती हैं और सरकारी संस्थाओं में जो सुविधाएं दी जाती हैं, उससे सभी लाभान्वित होते हैं।

देश का सर्वांगीण विकास किए जाने का दावा करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर समय पर क्यों नहीं आते, मरीजों को दवाए क्यों नहीं दी जातीं?। गांवों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव क्यों हैं, जैसे अनेक सवाल हैं, जिनका उत्तर यह बताने के लिए काफी है कि पिछले 65 सालों में देश ने वास्तविक रूप से कितनी प्रगति की है। देश की आजादी का जश्न मनाने वालों के बीच कई लोग ऐसें हैं, जिनके पास प्रश्न तो अनेक हैं, पर उसका उत्तर किसी के पास नहीं हैं।
दिल्ली स्थित लालकिले की प्राचीरों से जो-जो आश्वासन दिए गए, अगर उनमें से 10 आश्वासनों को भी अगर पूरा किया जाता तो भी भारत की हरित क्रांति का सपना साकार हो जाता। मानसूनी वर्षा के विलंब से आने, जल स्तर बहुत घटने, 24 मेें से 20 घंटे भारनियमन के भेंट चढ़ने, आतंकवाद की बढ़ती घटनाएं, दिन-रात चौगुनी मंहगाई बढ़ने, हत्या, अपराध, लूटमार की बढ़ती घटनाओं के बीच विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत का हर व्यक्ति क्या स्वतंत्रता का वास्तविक सुख ले पा रहा है, यह सवाल अगर आज भी उठ रहा हो, तो हमें सोचना होगा कि देश की आजादी से लेकर अब तक का समय हमने कैसे बिताया? हम ऐसा कत्तई नहीं कह रहे कि बीते 65 सालों में देश की जरा भी तरक्की नहीं हुई। पेजर की जगह मोबाइल का युग शुरू हुआ, टाइप राइटर से हम कम्प्यूटर-लैपटॉप तक पहुॅचे, पर आफत के किसी मामले में हम पहले की तरह आज भी पंगु ही साबित हो रहे हैं।

कौन कहता है कि देश ने प्रगति नहीं की, देश ने प्रगति तो की, पर उसका लाभ कुछ खास लोगों को ही मिला, शायद इसीलिए हम लगातार लोगों को कहता हुआ पाते हैं कि जो गरीब था, वह और गरीब हो गया और जो अमीर था, वह और धनवान हो गया, यही सच भी है, क्योंकि वर्षों पहले जो सरकारी स्कूल बने, उनमें असुविधाओं का ऐसा अंबार है कि वहां कोई भी अपने बच्चे का प्रवेश नहीं कराता। महाराष्ट्र तथा दिल्ली में ग्यारहवीं में ऑनलॉइन प्रवेश की अनिवार्यता तो कर दी गई, पर इस व्यवस्था से गरीब जनता को कैसे जोड़ा जाए, इस ओर ध्यान नहीं दिया गया।

आज भी देश के लगभग 60 प्रतिशत से ज्यादा लोगों के पास खुद का मकान नहीं है, किसी के पास रोजगार नहीं है तो कोई दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहा है, इसलिए पहली जरूरत सबको रोटी, कपड़ा और मकान उपलब्ध कराना है, लेकिन दुर्भाग्य से 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी ज्यादातर भारतीयों को रोटी, कपड़ा और मकान से वंचित रहना पड़ रहा है।

व्यवस्था की खामियां जब तक सुधारी नही जाएंगी, तब तक भारत महाशक्ति के रूप में उभरकर सामने नहीं आएगा। मुंबई को शंघाई बनाने वालों के दावे तब फिसड्डी साबित हो जाते हैं, जब जरा सी बारिश पूरे महानगर को जलमग्न कर देती हैं। हम हर स्थिति से निपटने के लिए तैयार हैं, ऐसा कहने वालों के मस्तक पर पसीना तब, आसानी से दिखने लगता है, जब उन्हीं के सरकारी दफ्तर में आग लगती है और उन्हें अपनी जान बचाने के लिए लिफ्ट से नहीं, सीढ़ियों से नीचे उतरना पड़ता है। मतलब साफ है कि जिसे जो करना चाहिए था, वह उसे नहीं कर पाया। अंतरिक्ष, विज्ञान तथा सूचना तकनीक के वर्तमान युग में इन तीनों क्षेत्रों से जुड़े लोगों ने देश की प्रगति का जो सपना बुना था, वह पूरा इसलिए हुआ कि उसे पूरा करने के लिए उन्होंने लगातार कोशिशें कीं, उन्होंने अपने मिशन में कामयाब होने के लिए जो निरंतर कोशिशें कां, उसका नतीजा यह रहा कि उसने अपने-अपने क्षेत्र में सफलता अर्जित की और बाकी क्षेत्रों में हमारी प्रगति इसलिए नहीं हुई, क्योंकि उस क्षेत्र से जुड़े लोगों ने अपनी तरफ से कोई प्रयास ही नहीं किया।

तिरंगे के तीन रंगों में समूचा भारत बसता है, इन्ही रंगों में गरीबों का संघर्ष समाहित है। भूखों के लिए रोटी और बेरोजगारों के लिए रोजगार पाने का सुख भी समाहित है। कोई हर माह बड़ी मुश्किल से चार हजार रुपये कमा रहा है तो कोई हर माह चार लाख रुपये कमा रहा है, उसे श्रम करने से परहेज नहीं है, उसका कहना है कि रोटी तो मेहनत से ही मिलती है।

समाज का हर तबका स्वतंत्र भारत में सांसें ले रहा है, उसे अपने तरीके से जीवन जीने का अधिकार तो है, पर वह काम के बोझ का इतना मारा हुआ है कि उसे चंद पल भी आराम से बीताने के लिए नहीं मिलता। फुटपाथ पर छोटी-मोटी वस्तुएं बेंचकर अपना तथा अपने परिवार का पेट भरने वाले भी इसी देश के निवासी हैं और करोड़ों की एसी कार में आराम से घूमने वाले भी इसी देश के निवासी हैं। दोनों में जीवन-जीने की जिजीविषा है, पर दोनों के जीवन-जीने का अंदाज अलग-अलग है। कोई दिन में दसों बार चाय पीता है, तो कोई एक बार भी चाय नहीं पी पाता, पर इस सब के बीच तिरंगे की शान की सभी को फिक है।
भरी दोपहरी में सामानों से लदा ठेला ढ़ोने वाला मजदूर हो या फिर रेलवे स्टेशनों पर बूट पॉलिश करने वाला, उसकी जिंदगी हर दिन एक ही ढर्रे पर चल रही है और आगे भी चलती रहेगी, उसे तो फिक्र सिर्फ इस बात की रहती है कि हमारा आज का दिन अच्छा जाए, कम से कम इतना मिल जाए कि मैं और मेरे परिवार के लोग भूखे न रहें।

जीवन तो इन्हीं संघर्षो में बीत जाएगा, लेकिन देश के विकास के कार्य तो अनवरत चलते रहने चाहिए। स्वतंत्रता से पहले जिस भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, वह फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है। आज के दौर के भारत को फिर सोने की चिड़िया बनाना बेहद मुश्किल है, कुछ लोग तो यह भी दावा करेंगे कि चाहे कितनी भी कोशिश कर ली जाए, भारत फिर सोने की चिड़िया नहीं बन सकता। सौ में से अस्सी बेईमान, फिर भी कहते हैं कि मेरा भारत महान, लेकिन सच तो यह है कि जो बीस प्रतिशत ईमानदार लोग हैं, उन्हीं पर इस बात का दारोमदार है कि वे भारत को फिर से सोने की चिड़िया बनाने के कार्य में जुट जाएं। जितने लोग, उतनी बातें, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना, की तर्ज पर लोगों की बात पर अमल करके भय, भूख और भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने का संकल्प हर भारतीय को लेना होगा, तभी स्वतंत्रता दिवस मनाने का कोई सार्थक अर्थ रहेगा, अन्यथा हर साल सिर्फ ध्वजारोहण करके स्वतंत्रता दिवस मनाने की औपचारिकता पूरी की जाती रहेगी। यहां यह सवाल उठाया जा सकता है कि कौन है ऐसा, जो देश को भय, भूख तथा भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलवा सकता है, तो इसका सीधा उत्तर यही होगा

कि देश की जनता, देश की मेहनत कर तथा ईमानदार जनता जब तक एकत्र होकर देश से भय, भूख व भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था को प्रस्थापित करने के लिए सामूहिक कोशिश नहीं करेगी,तब तक व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो सकता और जब तक व्यवस्था में परिवर्तन नहीं होगा, तब तक भय, भूख और भ्रष्टाचार को खत्म कर पाना मुश्किल हैं। दरअसल, देश के घर नागरिक भी यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह देश में व्याप्त कुप्रवृत्तियों के खिलाफ जंग छेड़े, जब तक लोगों की मानसिकता में बदलाव नहीं होगा, तब तक देश का सर्वागीण विकास होना संभव नहीं है।

गरीबी, महंगाई तो उसी भय, भूख तथा भ्रष्टाचार का नतीजा है, जिसने समाज का ताना-बाना बिगाड़ कर रखा है। आम जनता तक हर सुविधा जिस दिन खुद- ब- खुद आसानी से पहुंचने लगेगी, सच्चे अर्थों में उसी दिन भारत को सच्ची आजादी मिलेगी। भ्रष्टाचारियों का भ्रष्टाचार, फरेबियों का फरेब, नेताओं का झूठ, अधिकारियों-कर्मचारियों की कामचोरी का खात्मा, जिस दिन होगा और उसकी जगह ईमानदारों की सत्ता, सच्चों की ताकत, अधिकारियों-कर्मचारियों के अच्छे कार्यों को पुरस्कार तथा सबसे बड़ी बात अधिकाधिक लोगों को आसानी से सरकारी सुविधाएं मिलने लगेंगी, उस दिन पूरे भारत से एक ही तरह का स्वर गूंजेगा-सौ में सौ ईमानदार, मेरा भारत महान, मुझे है अपने देश की आजादी पर अभिमान।

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