आतंकवाद की आग में झुलसता फ्रांस

आज पूरी दुनिया युद्ध के मोड़ पर खड़ी है। फ्रांस आतंकवाद की आग में जल रहा है। वहाँ हो रहे आतंकवादी वारदातों और उनके विरुद्ध फ्रांसीसी सरकार की कार्रवाई एवं रुख़ को लेकर इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें पूरी दुनिया में अमन और भाईचारे का माहौल बिगाड़ने का काम कर रही हैं। भारत में भी भोपाल, बरेली, अलीगढ़, मुंबई आदि में मज़हबी प्रदर्शन हो रहे हैं। शहर-शहर, गली-गली ऐसे प्रदर्शनों की बाढ़ अत्यंत चिंताजनक है। होना यह चाहिए था कि फ्रांस में हो रहे आतंकवादी वारदातों के विरुद्ध इस्लाम के अनुयायियों के बीच से आवाज़ उठनी चाहिए थी। उन्हें मज़हब के नाम पर हो रहे ख़ून-खराबे का खंडन करना चाहिए था। उसे सच्चा इस्लाम न मानकर कुछ विकृत मानसिकता का प्रदर्शन माना-बतलाया जाना चाहिए था। पर हो उलटा रहा है। गला रेते जाने वालों के समर्थन में जुलुसें-जलसे निकाली आयोजित किए जा रहे हैं। सैमुअल मैक्रो की तस्वीरों पर पाँव रखकर कट्टरपंथी ताक़तें अपनी घृणा का सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही हैं। मलेशिया जैसे देशों के प्रधानमंत्री सरेआम उसके समर्थन में शर्मनाक बयान ज़ारी कर रहे हैं।

अब समय आ गया है कि इसका सही-सही मूल्यांकन हो कि इन कट्टरपंथी ताक़तों की जड़ में कौन-सी विचारधारा या मानसिकता काम कर रही है? दुनिया के किसी कोने में कोई घटना होती है और उसे लेकर भारत और अन्य तमाम देशों में विरोध, हिंसक प्रदर्शन, रैलियाँ-मजलिसें समझ से परे है? क्या यह पहली बार हुआ है? पंथ-विशेष की चली आ रही मान्यताओं, विश्वासों, रिवाजों के विरुद्ध कुछ बोले जाने पर सिर काट लेने की सनक सभ्य समाज में कभी नहीं स्वीकार की जा सकती। आधुनिक समाज संवाद और सहमति के रास्ते पर चलता है। समय के साथ तालमेल बिठाता है। किसी काल विशेष में लिखे गए ग्रंथों, दिए गए उपदेशों को आधार बनाकर तर्क या सत्य का गला नहीं घोंटता। चाँद और मंगल पर पहुँचते क़दमों के बीच कट्टरता की ऐसी ज़िद व जुनून प्रतिगामी एवं क़बीलाई मानसिकता है।

ऐसी मानसिकता का उपचार क्या है? याद रखिए बीमारी के मूल का पता लगाए बिना उसका उपचार कदापि संभव नहीं! शुतुरमुर्गी सोच दृष्टि-पथ से सत्य को कुछ पल के लिए ओझल भले कर दे पर समस्याओं का स्थाई समाधान नहीं दे सकती। आज नहीं तो कल सभ्यताओं के संघर्ष पर खुलकर विचार करना ही होगा। अमन और भाईचारे का पैगाम बता-बताकर मज़हब के नाम पर किए जा रहे खून-खराबे पर हम कब तक आवरण डाले रखेंगें? दीन और ईमान के नाम पर देश-दुनिया में तमाम आतंकवादी वारदातों को अंजाम दिया जाता है, सैकड़ों निर्दोष लोग मौत के घाट उतार दिए जाते हैं और तंत्र एवं मीडिया उसे कुछ सिरफिरे चरमपंथियों की करतूतें बता अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। क्या यह सवाल पूछा नहीं जाना चाहिए कि आतंकवाद या इस्लामिक कट्टरता को वैचारिक पोषण कहाँ से मिलता है? क्यों सभी आतंकवादी समूहों का संबंध अंततः इस्लाम से ही जाकर जुड़ता है? क्यों अपने उद्भव काल से ही इस्लाम ने अपनी कट्टर और विस्तारवादी नीति के तहत दुनिया की तमाम सभ्यताओं और जीवन-पद्धत्तियों को नेस्त-नाबूद किया? क्यों एक पूरा-का-पूरा समूह भीड़ की तरह व्यवहार करने पर उतारू हो उठता है, क्यों वह उत्तेजक नारों में मुक्ति-गान का आनंद पाता है, क्यों वह दूसरों के साथ घुल-मिल नहीं पाता, दूसरों के आचार-विचार रीति-नीति पर वह क्यों हमलावर रहता है, क्यों वह अल्पसंख्यक रहने पर संविधान की दुहाई देता है और बहुसंख्यक होते ही शरीयत का क़ानून दूसरों पर जबरन थोपता है, क्यों वह संख्या में कम होने पर पहचान के संकट से जूझता रहता है, क्यों वह स्वयं को अखिल मानवता से जोड़कर नहीं देखता? क्यों वह पूरी दुनिया को एक ही ग्रंथ, एक ही पंथ, एक ही प्रतीक, एक ही पैगंबर तले देखना चाहता है? क्या पूरी दुनिया को एक ही रंग में देखने की सोच स्वस्थ और सुंदर कहला सकती है? कम-से-कम इक्कीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक एवं आधुनिक युग में तो इन सवालों पर खुलकर विमर्श होना चाहिए! कट्टरता को पोषण देने वाले सभी विचारों-शास्त्रों-धर्मग्रन्थों की युगीन व्याख्या होनी चाहिए, चाहे वह कितना भी महान, पवित्र और सार्वकालिक क्यों न मानी-समझी-बतलाई जाय। किसी काल-विशेष में लिखी और कही गई बातों पर गंभीर मंथन कर अवैज्ञानिक, अतार्किक और दूसरों के अस्तित्व को नकारने वाली बातों-सूत्रों-विचारों-विश्वासों-मान्यताओं-रिवाज़ों को कालबाह्य घोषित करना चाहिए। यही समय की माँग है और यही अखिल मानवता के लिए भी कल्याणकारी होगा। अन्यथा रोज नए-नए लादेन-अज़हर-बग़दादी जैसे आतंकी पैदा होते रहेंगे और मानवता को लहूलुहान करते रहेंगे।

किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्मांधों का कोई धर्म नहीं होता, वे किसी आसमानी-काल्पनिक ख्वाबों में इस कदर अंधे और मदमत्त हो चुके होते हैं कि उनके लिए अपने-पराये का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उनके लिए हरे और लाल रंग में कोई फ़र्क नहीं। क्या यह सत्य नहीं कि इस्लामिक कट्टरता के सर्वाधिक शिकार मुसलमान ही हुए हैं? और इस मज़हबी कट्टरता का कोई संबंध शिक्षा या समृद्धि के स्तर-स्थिति से नहीं। मज़हबी कट्टरता एक प्रकृति है, विकृति है, कुछ लोगों या समूहों के लिए यह एक संस्कृति है। इसका उपचार मूलगामी सुधार के बिना संभव ही नहीं। क्यों अमेरिका और यूरोप जैसे समृद्ध देशों के नौजवान आइसिस या अन्य कट्टरपंथी ताक़तों की ओर आकृष्ट हो रहे हैं? अशिक्षा और बेरोजगारी को इनकी वज़ह मानने वाले बुद्धिवादियों को यह याद रहे कि ज़्यादातर आतंकवादी संगठनों के प्रमुख खूब पढ़े-लिखे व्यक्ति रहे हैं। पेट्रो-डॉलर को इन सबके पीछे प्रमुख वज़ह मानने वालों को भी याद रहे कि जब अरब-देशों के लोगों को अपनी धरती के नीचे छिपे अकूत तेल-संपदा का अता-पता भी नहीं था, तब भी वहाँ मज़हब के नाम पर कम लहू नहीं बहाया गया था। आज सचमुच इसकी महती आवश्यकता है कि इस्लाम को मानने वाले अमनपसंद लोग आगे आएँ और खुलकर कहें कि सभी रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं, अपने-अपने विश्वासों के साथ जीने की सबको आज़ादी है और अल्लाह के नाम पर किया जाने वाला खून-ख़राबा अधार्मिक है, अपवित्र है। और मज़हब के नाम पर इतना लहू बहाया जा चुका है कि कहने मात्र से शायद ही काम चले, बल्कि इसके लिए उन्हें सक्रिय और सामूहिक रूप से काम करना पड़ेगा। मदरसे और मस्ज़िदों की तक़रीरों में अखिल मानवता एवं सर्वधर्म समभाव के संदेश देने पड़ेगें। कदाचित यह प्रयास वैश्विक युद्ध एवं मनुष्यता पर आसन्न संकट को टालने में सहायक सिद्ध हो और मज़हब के नाम पर किए जा रहे नृशंस एवं भयावह नरसंहार के लिए प्रायश्चित की ठोस और ईमानदार पहल भी!

This Post Has 2 Comments

  1. SHOKINKUMAR JAIN

    saman nagrik kayda , family planning, NRC, LAGU KARO. WOH MINORITY NAHI HE.

  2. Dr Rajesh Khatri

    Thera is Urgent need to bring the Common Civil Code Bill, Pop Control Bill & NRC.

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