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मन को झंकृत करने वाले गीत

मन को झंकृत करने वाले गीत

by ज्वाला प्रसाद मिश्र
in अप्रैल -२०१३, फिल्म, सामाजिक
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हिंदी फिल्मों की सफलता में गीतों की महती भूमिका रही है। गीत अब भी होते हैं लेकिन उनमें वह माधुर्य, वह कशिश नहीं होती। गत शताब्दी के तीसरे दशक में, जब सवाक फिल्मों का युग आरम्भ हुआ, तब से लेकर साठ-सत्तर के दशक तक फिल्मों के प्राय: सभी गाने सदाबहार होते थे, क्योंकि उनकी धुनें मधुर और कर्णप्रिय होती थीं। गीतकार शब्दों से जो शानदार ढांचा तैयार करते थे, संगीतकार उसमें जान डाल देते थे।

राजेंद्र कृष्ण, प्रदीप, भरत व्यास, इंदीवर, साहिर, शैलेंद्र, जोश, हसरत जैसे उम्दा गीतकार थे, तो खेमचंद्र प्रकाश, रोशन, हुस्नलाल-भगतराम, अजय विश्वास, सचिन देव बर्मन, नौशाद आदि ने संगीतकारों की ऐसी पुष्ट परम्परा की नींव रखी, जिसे शंकर-जयकिशन, ओ. पी. नैयर, जयदेव, कल्याणजी-आनंदजी, मदन मोहन इत्यादि ने आगे बढ़ाया। गीतकार और संगीतकार जो परिश्रम करते हैंं, उसे जन-जन तक पहुंचाने का माध्यम गायक व गायिकाएं होते हैं। हिंदी फिल्मों का यह सौभाग्य रहा है कि उसे कुंदन लाल सहगल, के. सी. डे, पंकज मलिक, जगमोहन, मन्ना डे, मुकेश, मो. रफी, तलत महमूद, हेमंत कुमार और किशोर कुमार जैसे गायक मिले तो खुर्शीद, नूरजहां, उमा शशि, सुरैया, अमीरबाई कर्नाटकी, राज कुमारी, शमशाद बेगम, लता, आशा एवं गीता दत्त जैसी स्वर कोकिलाएं भी मिलीं।

इस विषय का कैनवास बहुत बड़ा ही नहीं, अनन्त है, इसलिए अभी तो कुछ ऐसे गीतों की चर्चा करना चाहूंगा, जिनमें काव्य, मौसिकी और स्वर ने मिलकर वो कमाल कर दिया जिससे दर्शकों-श्रोताओं की मन-वीण के तार झनझना उठे तथा आंखें आंसुओं को रोक न पायीं, याने तलत का गाया वह गीत साकार हो उठता है, ‘‘हैं सब से मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं।’’ यह आलेख मैंने अपनी याददाश्त के आधार पर लिखा है। अत: हो सकता है कहीं फिल्म के कथानक से सम्बन्धित कोई गलती हो गयी हो, परन्तु उसके मूल तत्व या सन्देश में कोई त्रुटि नहीं हुई होगी, इसका मुझे विश्वास है। इन चुनिन्दा गानों की बानगी इस प्रकार है:-

फिल्म ‘बंदिनी’ के इस गीत को याद करें- ‘‘अब के बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लीजो बुलाय रे।’’ एक जवान लड़की को किसी अपराध के लिए जो या तो उसने नहीं किया था, या करने पर मजबूर हो गयी थी, जेल में राखी के मौके पर गाती है। एस. डी. बर्मन का संगीत और आशा भोसले की दर्दीली आवाज का युग्म जिसे रुला न दे, वह इंसान नहीं हो सकता।

राज कपूर की फिल्म ‘बूट पालिश’ में दो बच्चे जो भाई-बहन हैं, मलिन बस्ती में रहते हैं और जैसे-तैसे दो वक्त की रोटियों का जुगाड़ करते हैं। लड़की (बेबी नाज) खो जाती है- एक धनवान दंपत्ती उसे गोद ले लेते हैं। लड़का (मास्टर रतन) उसे जहां-तहां ढूंढ़ता है। एक जगह एक लड़की एवं एक व्यक्ति गाते हुए भीख मांगते हैं, ‘‘चली कौन से देस, गुजरिया तू सज-धज के। जाऊं पिया के देस, ओ रसिया मैं सज-धज के।’’ मास्टर रतन को ऐसा लगता है कि ये लड़की तो उसकी बहन ही है। इस परिस्थिति का फिल्मांकन अतुलनीय है। गाना तो दर्शक को भाव-विह्वल कर ही देता है।

राज कपूर की ही एक अन्य फिल्म ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ में भी एक दर्दनाक परिस्थिति को बड़ी शिद्दत से दर्शाया गया है। एक साधारण, हंसते-खेलते परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ता है। छोटे बच्चे के बेकसूर पिता (मोतीलाल) को जेल हो जाती है। मां दम तोड़ देती है। बदहवास बच्चे को एक भला आदमी (याकूब), इंसाफ दिलाने के लिए, लेकर दिल्ली के लिए प्रस्थान करता है। पृष्ठभूमि में, खुशहाली के दिनों में, बच्चे के जन्म दिवस के अवसर पर गाया गीत ‘जियो लाल, मेरे तुम लाखों बरस। तुझ पे मैया निसार करे बाबा का प्यार’, चलता है तो दर्शन की आत्मा भी वेदना से भीग उठती है।

बहुत पुरानी फिल्म ‘भक्त सूरदास’ में के. एल. सहगल ने सूरदास का किरदार निभाया था। एक दृश्य में नेत्रहीन सूरदास बड़ा ही मार्मिक गाना गाते हुए, लाठी टेकते हुए चलते हैं- ‘‘नैन हीन को राह दिखा प्रभु, पग-पग ठोकर खाउं मैं’’ं सामने दो चट्टानों के बीच बड़ा फासला आ जाता है। दर्शकों का दिल कांप उठता है कि बेचारा सूर गढ्ढे में गिर पड़ेगा। तभी भगवान श्रीकृष्ण अपनी विराट हथेली दोनों चट्टानों के बीच रख देते हैं, जिस पर चलकर सूरदास आगे बढ़ जाते हैं। दर्शकों की जान में जान आती है तथा मन में भक्ति भाव की हिलोरे उठने लगती हैं।
मुजफ्फर अली की फिल्म ‘गमन’ भी करुण रस से लबरेज थी। इसके सभी गाने मारक थे, पर अभी एक विवाह गीत का जिक्र करूंगा। एक अत्यन्त निर्धन यू. पी. का मुस्लिम (फारूख शेख) मुंबई में टैक्सी ड्राइवर है। देश में उसकी बहन की शादी हो रही है। गरीबी के कारण वह शामिल नहीं हो पाता है, किन्तु टैक्सी चलाते हुए कल्पना करता है कि घर में क्या हो रहा होगा। गीत के बोल और परिस्थिति का कंट्रास्ट देखिए। गीत के बोल हैं ‘‘बड़ी धूम गरज से आयो रे नौशा अमीरों का। सेहरा जो तेरा लाख का, फलगी हज़ारों की। बांधो-बांधो दूल्हे राम नौशाएं तेरी शान अमीरों की।’’

फिल्म का नाम तो याद नहीं, किन्तु उसमें बलराज साहनी और निरूपा रॉय की प्रमुख भूमिकाएं थीं। बलराज साहनी सिद्धांतवादी वकील है, जो दुष्कृत्य करने वालों के केस नहीं लेता, इसलिये उसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त साधारण है। खुद उसकी ही सगी बहन का बलात्कार हो जाता है और वह दोषी के जुर्म को सिद्ध नहीं कर पाता। बहन आत्महत्या कर लेती है। फिजा बहुत पुरानी फिल्म नहीं है, लेकिन बड़े अरसे के बाद लगान और फिजा दो ऐसी फिल्में बनीं, जिनके सभी गाने उच्च कोटि के थे। हीरो (ऋतिक रोशन) की मां (जया बच्चन) खुदकुशी कर लेती है। उसका जनाजा निकलता है, तब उसकी पड़ोसन सहेली का गीत साथ-साथ चलता है- ‘‘न लेके जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है। अभी तो गर्म है मिट्टी, ये जिस्म ताजा है।’’

हिंदी सिनेमा की मील का पत्थर बनी फिल्म ‘गाइड’ का हर गीत आज तक पुराना नहीं हुआ। जिस खास गीत की हम चर्चा कर रहे हैं, उसे लिखने में जहां शैलेंद्र ने जैसे कलम तोड़ दी तो उसे संगीत में ढालने में सचिन देव बर्मन ने अपना सारा कौशल झोंक दिया है और अच्छा हुआ कि इस गीत को उन्होंने स्वयं गाया है। हीरो (देव आनंद) जेल से रिहा होता है। वह नहीं जानता कि कहां जाये, क्या करे, उसका भविष्य क्या है। वह निरुद्देश्य गिरता-पड़ता, भूखा-प्यासा दर-दर की ठोकरे खाता हुआ चल पड़ता है और बैक ग्राउंड यह गीत चलता है, ‘‘वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां।

गुरुदत्त हिंदी फिल्मों के एक सर्वकालिक महान फिल्मकार थे। उनकी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल, लेकिन भाव प्रवण दर्शकों के मन पर गहरा असर डालने वाली, भारत की यह पहली सिनेमास्कोप फिल्म ‘कागज के फूल’ में गीता दत्त द्वारा गाये इस दर्दीले गीत का स्मरण करें, ‘वक्त ने किया, क्या हंसी सितम, हम रहे न हम, तुम रहे न तुम।’ निर्देशक (गुरुदत्त) और अभिनेत्री (वहीदा रहमान) एक दूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन हालात उन्हें मिलने नहीं देते।

फिल्म जोगन भी दुखान्त थी, जिसमे नर्गिस ने जैसा अभिनय किया, वैसा वे कभी नहीं कर सकीं- यहां तक मि ‘मदर-इंडिया’ में भी नहीं। वे सामाजिक व पारिवारिक हालातों के चलते साध्वी बन जाती हैं। फिल्म के सभी गीत वस्तुत: मीरा के भजन हैं जिन्हें गीता दत्त ने बड़ी कुशलता से गाया है। हीरो (दिलीप कुमार) साध्वी के प्रेम में डूबा है किन्तु उन्हें पा नहीं सकता। अन्तिम दृश्य में उसे जब पता चलता है कि साध्वी ने समाधि ले ली है तो वह टूट जाता है।

फिल्म ‘आखिरी खत’ में एक बहुत ही प्यारा बच्चा है जिसकी अन ब्याही मां गलतफहमी के चलते हीरो (राजेश खन्ना) के घर पर छोड़ कर आत्महत्या कर लेती है। वह नन्हा बालक अपनी मां को जहां-तहां ढूंढता फिरता है। हालाकि निर्देशक ने अतिशयोक्ति से काम लिया है लेकिन वह दर्शकों के मन में अबोध शिशु के प्रति करुणा और वात्सल्य का भाव जगाने में सफल हुआ है।

ऐसे अनेक गीत हैं, जैसे फिल्म बॉर्डर में राठौर द्वारा गाया गीत ‘ऐ जाते हुए लमहों’ या ‘भाभी की चूड़ियां’ में मुकेश का गाया गीत ‘तुमसे ही घर, घर कहलाया’ अथवा ‘सीमा’ में मो. रफी द्वारा गाया गीत ‘कहां जा रहा है, तू ऐ जाने वाले, अंधेरा है मन का दिया तो जला ले, ये सब अत्यन्त मार्मिक थे। इन सभी गीतों के बारे में यदि यह कहा जाये कि सभी गीत भारतीय जनमानस को झंकृत करने ंवाले हैं, तो गलत नहीं होगा।

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