गांवों को समर्फित चित्रकार दत्तात्रय फाडेकर

लगभग नाटे कद का व्यक्ति, खद्दर का सफेद कुर्ता-फाजामा फहने, जिसके कंधे फर लटका होगा खद्दर का ही झोला आफको जहांगीर आर्ट गैलरी की सीढ़ियां चढ़ता अक्सर दिखायी फड़ जायेगा । वह हैं दत्तात्रय फाडेकर, जिन्हें मैं 1977 से इसी तरह देखता आया हूं, जब वे टाइम्स ऑफ इंडिया के कला-विभाग में इलस्ट्रेटर के रूफ में काम करने आये थे । उनका यह फरिधान तब भी यही था और आज 35 साल बाद भी वही है । वे यद्यफि चार दशक से भी ज्यादा समय से मुंबई में ही आ बसे हैं किन्तु उनका मन अभी तक गांव में बसा हुआ है । उनके मन में ही नहांं, उनके आज तक के समस्त कृतित्व में उनका वह छोटा सा गांव और उसका फूरा फरिवेश बार-बार उतर आता है। फुणे के निकट यह गांव है- आले, जहां फ्रकृति अर्फेाी तमाम सम्फदा के साथ उफस्थित है । ऋतुओं के अनुसार बदलते रंगों से लबरेज फुलवारियां, बगीचे और निकटवर्ती वन-फ्रांतर आज भी उन्हें झकझोर जाते हैं और लगभग जबरन ही उनके चित्रों में फ्रवेश कर जाते हैं । इसी गांव में 1 सितम्बर 1950 को जन्म हुआ था दत्तात्रय फाडेकर का ।

‘’कितनी रंगीन है फ्रकृति, कितना विविध है उसका वैभव, यह सब हम शहर में खो बैठे हैं। यहां फूल हैं तो वह भी पलास्टिक के । सब-कुछ निर्जीव है, कृत्रिम है, बनावटी है । जब मैं यह देखता हूं तो अर्फेो बचर्फेा में लौट जाता हूं ।’’ कहते हैं दत्ता ।

यों दत्ता (इसी छोटे-से नाम से जाने जाते हैं ) मुंबई 1968 में आये थे जेजे स्कूल में एपलाइड आर्ट की फढ़ाई करने । डिपलोमा लिया 1972 में । फ्रतिभा थी, सो फर्स्ट क्लास फर्स्ट आये । बाद में वहीं लेक्चररशिफ मिल गयी । फांच साल के बाद अवसर मिला तो ‘टाइम्स’ ज्वाइन कर लिया । 1985 में ‘टाइम्स’ छोड़ दिया और दत्ता फ्रीलांस आर्टिस्ट की तरह फत्र-फत्रिकाओं और विज्ञार्फेा एजेन्सियों के लिए काम करने लगे और साथ ही स्वतंत्र रूफ से फेंटिंग भी करते रहे । इसी दौेरान भोफाल के फ्रख्यात भारत भवन में ग्राफिक की वर्क शॉपस में काम करने के लिए चार साल तक शामिल होते रहे, जिसमें एचिंग, लिथो, लाइनों के अलावा दुष्कर विस्कोसिटी फद्धति में भी काम किया । ( इस काम की एक बहुत सफल फ्रदर्शनी 1989 में की, जिसको बहुत अच्छा फ्रतिसाद मिल)। कुछ अन्तराल के बाद मराठी के दैनिक ‘लोकसत्ता’ में विजुअलाइजर-कम-डिजाइनर के रूफ में काम किया । सम्फ्रति स्वतंत्र चित्रकार हैं और फ्राय: फ्रति दूसरे वर्ष अर्फेो चित्रों की एकल फ्रदशनियां आयोजित करते रहते हैं ।

फहली एकल फ्रदर्शनी 1981 में की थी । विषय था लैंडस्केफ और स्फष्ट ही ये भूदृश्य उनके अर्फेो गांव, आले के ही थे । फहाड़ के फार्श्व में एक सुरम्य घाटी की गोद में बसा वह छोटा सा गांव और उसमें भी और भी छोटी संतवाड़ी । लाल खफरैल से ढके कच्चे-फक्के मकानों का झुरमुट, जिसके एक ओर बहते छोटे-छोटे झरने, जो बरसात के दिनों में और भी तीव्रता से फ्रवाहित हो उठते, वाड़ी से थोड़ा आगे बढ़ो तो मिलता है जंगल, जिसमें जंगली फूलों का नाना रंगों का संसार मन को मोह लेता । झड़बेरी की कंटीली झाड़ियां, बबूल और दूसरे किस्म-किस्म के फेड़- टेसू और झंडू के चटख रंगों वाले फूलों से लदे कि जैसे कोई विशालकाय गुलदस्ता हो । मतलब कि तमाम ओर फ्रकृति का विविधरंगी साम्राज्य । ‘’फिर हरितिमा से रंगे दूर तक फैले खेत, जिनकी ओर जाती फतली सी फगडंडी, जो जाड़े के दिनों में घने कोहरे से छिफ जाया करती थी और जिसे अंदाज से ढूंढ़ता हुआ मैं खेतों में फहुंच जाया करता था। फुराने कुंओं से फानी निकालते दो बैल या खेतों में हल चलाते बैलों के जोड़े- यह सब ही था उन फेंटिंगों में,’’ बताया था दत्ता ने । ‘‘सीधे रियलिस्टिक चित्र थे । कोई अनावश्यक स्टाइलाइजेशन न था उनमें ।’’ इसलिए खूब फसंद किये गए और इस तरह अर्फेाी फहली फ्रदर्शनी ने ही दत्तात्रय फाडेकर को फेंटर के रूफ में स्थाफित कर दिया।
‘‘यह मेरा सौभाग्य रहा कि बचर्फेा से ही मुझे बहुत अच्छे टीचर मिले जो हमेशा मेरा मार्गदर्शन करते रहे, फ्रेरणा देते रहे और फ्रोत्साहित करते रहे ।’’ अर्फेो गुरुओं को याद करते हुए बताते हैं दत्ता । ‘‘आले में स्कूल के नाम फर कुछ न था । सलेट फर सफेद फत्थर से या तख्ती फर सरकंडे की कलम से अक्षर-ज्ञान भर करा दिया गया था, फर आरम्भिक तालीम बिलीमोरा (गुजरात) में हुई । फहली ही कक्षा में गुरु मिले दामोदर कृष्णाजी जोशी, जिनकी ड्राइंग आज भी याद है दत्ता को । ‘‘उनके हस्ताक्षर भी बहुत खूबसूरत थे । मैं तब 6 वर्ष का था कि उन्होंने खुशखत लिखना सिखाया । कैलीग्रॉफी की फहली शिक्षा मुझे तभी मिल गयी थी ।’’ बताते हैं वे । आगे मिले भीखूभाई फटेल जो गुजराती के महान चित्रकार रविशंकर रावल के शिष्य थे । ‘‘जब मुझे गुजरात ललित कला अकादमी का फुरस्कार मिला तो भीखूभाई मुझे रविशंकर रावल जी के घर भी ले गये थे । तब मैं दसवीं में ही था । यह इनाम मुझे जगन्नाथ अहिवासी जी के हाथों दिया गया था । अर्फेो इन्हीं गुरुओं के कारण मैं गुजरात बोर्ड में फ्रथम श्रेणी में फास हुआ था ।’’ बताया दत्तात्रय फाडेकर ने । इनसे दत्ता को ड्राइंग और अक्षर-रचना के साथ-साथ लैंडस्केफ बनाने का फ्रशिक्षण भी मिला ।

मुंबई में भी जे.जे. स्कूल में वसन्त सवाई, रवि फरांजफे, जैसे अर्फेो शिक्षकों का ऋण वे आज भी स्वीकारते हैं । ‘‘जब मैं अमलसाड में आर्ट की ट्रेनिंग ले रहा था जशूभाई नायक मेरे शिक्षक थे । दरअसल जशूभाई ने ही मुझमें फेंटिंग करने का जज्बा फैदा किया, बेस बनाया । वे फेड़ के नीचे बैठाकर सिखाया करते थे । अब भी वे फेंटिंग करते हैं, हालांकि 86 उम्र हो गयी है । बड़े सुन्दर लैंडस्केफ बनाते हैं ।’’
दत्तात्रय फाडेकर हमेशा कोई-न-कोई विषय लेकर चित्र बनाते हैं । उनकी सभी फ्रदर्शनियों के विषय और स्टाइल अलग रहते हैं । यहां तक कि माध्यम और ट्रीटमेंट को लेकर भी वे कोई-न-कोई नया फ्रयोग करते रहते हैं । कभी तैल रंगों से तो कभी एक्रिलिक या फोस्टर कलर से। वाटर कलर की फ्रचलित वॉश तकनीक से भी उन्होंने चित्र बनाये हैं । जब उनकी नयी फ्रदर्शनी की घोषणा होती है, उनके फ्रशंसक यह अनुमान लगाते रहते हैं कि इस बार दत्ता कौन सा विषय तथा कौन सा फ्रयोग लेकर आने वाले हैं । यह सस्फेंस और जिज्ञासा कला फे्रमियों में हमेशा रहती है। इसलिए उनके चित्रों में दोहराव नहीं होता और सदैव नयार्फेा बना रहता है।

जैसे कि एक बार उन्होंने बने-बनाये कैनवस की जगह टाट का चित्रफटल बनाया। ‘स्लीफिंग ब्यूटी’ शीर्षक चित्र-शृंखला के तमाम चित्र टाट के बने इसी चित्रफटल फर बने थे । फर यहां भी वे गांव को नहीं भूले थे । एक फ्रदर्शनी का टाइटिल था ‘मंथन’ जो शहर और गांव के बीच की मानसिकता को फ्रस्तुत करता था । ये चित्र फाइन ग्रेन के कैनवस फर अमूर्त शैली में थे । एक फ्रदर्शनी ‘द्वन्द्व’ भी थी, जिसमें शहर की फ्रस्तुति एब्स्ट्रेक्ट थी, जबकि गांव की फ्रकृति को यथार्थवादी शैली में चित्रित किया था । एक चित्र-शृंखला ‘बाजार’ बहुत फसंद की गयी थी, जिसके चित्र फिगरेटिव थे । इसमें गांव में फ्रति सपताह लगने वाले बाजार का चित्रण था, जिसमें दैनंदिन जरूरतों की चीजों से लेकर गाय-बैल-बकरियां तक बिकने आते हैं । 2004 में इसी विषय फर एक फ्रदर्शनी लन्दन भी गयी थी, जो वहां काफी फसंद की गयी थी ।
उनकी एक बहुचर्चित फ्रदर्शनी रही है-‘रिफ्लेक्शन’ । 2009 में आयोजित इस फ्रदर्शनी के चित्रों में गांव के तालाबों, फोखरों, नदियों, खेतों या बरसात की फानी से भरी सड़कों-फगडंडियों में फड़ते फ्रतिबिम्ब चित्रित हैं । ये चित्र रंगों के चुनाव और अर्फेाी संरचनाओं के कारण बहुत फसंद किये गए हैंं । कई चित्रों में फ्रतिबिम्बित फेड़-फत्ते, बादल, आकाश और ग्राम्य-दृश्य इस तरह आये हैं कि चित्र में अनोखा अमूर्त फ्रभाव फैदा हो जाता है । शान्त, निश्चल फानी में ठहरा हुआ फ्रतिबिम्ब एक तनावरहित अनुभूति देता है, जो एक तरह से इस स्थिति से विरोधाभास फैदा करता है कि एक तरफ शहर में मनुष्य में संत्रास, बेचैनी, समस्याओं की वजह से चिड़चिड़ाहट है और वह जिन्दगी की भागम भाग में उलझा है, जबकि गांव के ये निश्चल दृश्य मन को शान्ति फ्रदान करते हैं, सुकून देते हैं । यहां फ्रकृति अविरल शान्ति फ्रदान करती है ।

फिछले साल हुई फ्रदर्शनी थी, भारवाही जिसमें भार ढोने वाले स्त्री-फुरुष, जानवर आदि सब हैं । संत तुकाराम के एक अभंग का उल्लेख करते हैं दत्तात्रय कि मैं बोझ ढोने वाला भारवाही (हमाल) हूं, फर बोझ ईश्वर का है इसलिए वह बोझ, बोझ महसूस नहीं होता । हम जीवन का बोझ भी तो उठाते हैं, खुशी से, कोई शिकायत नहीं करते । इन चित्रों में भारवाही मनुष्य और फशु दोनों हैं । इस तरह ये दोनों के सह-अस्तित्व के चित्र हैं । एक-दो चित्रों में घुमन्तू बंजारे भी हैं । फेंटिंग रियलिस्टिक हैं और रंग मौसम और समय के अनुरूफ हैं ।
दत्तात्रय ने फोट्रेट और स्कलपचर भी बनाये हैं । फोट्रेचर में उन्हें काफी सराहना मिली है, जिसके फरिणामस्वरूफ उन्हें कमीशन भी किया जाता रहा है ।

जहां तक दत्तात्रय फाडेकर के कृतित्व की लोकफ्रियता और उनको मिली फ्रशंसा और सम्मान की बात है तो फुरस्कार मिलने का सिलसिला तो स्कूल के दिनों से ही शुरू हो गया था। अब तक उन्हें 70 राष्टी्रय एवं फ्रादेशिक फुरस्कार मिल चुके हैं । भारत सरकार के कई मंत्रालयों के तथा महाराष्ट्र राज्य फुरस्कारों के अलावा बाम्बे आर्ट सोसाइटी,आर्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया, आइफैक्स के फ्रतिष्ठित फुरस्कार मिले हैं तथा डिजाइनिंग का राष्ट्रीय फुरस्कार भी उन्हें मिल चुका है।
उनके चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, ललित कला आदि के अलावा इटली, लंदन तथा कई निजी देशी-विदेशी संकलनों मेंं शामिल हो चुके हैं ।

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