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श्री गणेश तत्व

श्री गणेश तत्व

by आशिष शर्मा
in संस्कृति, सितम्बर २०१३
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गणेशं गाणेशाः शिवमिति च शैवाश्च विबुधा

रविं सौरां विष्णुं प्रथम पुरूषं विष्णु भजकाः।
वदन्त्येकं शाक्ता जगदुदयमूलां पर शिवां
न जाने किं तस्मै नम इति परं ब्रह्म सकलम् ॥
(पुष्पदन्त कृत गणेश महिम्नः स्तोत्रमः -2)

जिस एक तत्व को गणपति के उपासक ‘गणेश’, शैव विद्वान ‘शिव’, सूर्योपासक ‘सूर्य’, विष्णुभक्त आदिपुरुष ‘विष्णु’ तथा शक्ति के उपासक ‘परा शिव’ कहते हैं। वह वास्तव में क्या है? यह मैं नहीं जानता, किन्तु सब कुछ ब्रह्म स्वरूप है, इसलिए ब्रह्मभाव से ही उस अद्वितीय तत्व को मेरा नमस्कार है।

महर्षि वेद व्यास पुराणों के रचयिता हैं। पुराणों में निराकार ब्रह्म के ऐश्वर्यपूर्ण अंशरूप साकार रूप की प्रतिष्ठा है। वस्तुतः प्रत्येक पुराण का अलग-अलग देव एक ही ब्रह्म का रूपक है। गुण, प्रभाव, महिमा, कर्तव्य, स्तुति में साम्य रखते हुए हर पुराण के इष्ट देवत्व को ‘ब्रह्म’ के अंशरूप में प्रस्तुत करना महर्षि व्यास की अनुपम मौलिक वैचारिक दूर दृष्टि है। ‘रूचिनां वैचित्र्या द्यृजु कुटिल नाना पथ जुषाम्’ महिम्न स्तोत्र की श्री पुष्पदंत की उक्ति में मनोवैज्ञानिक कारण हैं। व्यक्तियों की रुचि विभिन्नता एवम् उसके तदनुकूल दैवीय तत्वों की प्रतिष्ठा जिससे अंततः एक ब्रह्म के गुणों का साक्षात्कार कर मनुष्य का बहुविधि कल्याण हो सके।

श्रष्टि के पूर्व कोई भूत नहीं- कोई गण नहीं। श्रष्टि से पूर्व केवल श्रष्टा- एक ब्रह्म- अद्वैत- दो की संभावनाओं का कारक। जब अद्वैत ब्रह्म ‘एकोऽहं वद्दुस्याम्’ का संकल्प करता है तो श्रष्टि होती है। एक रूप अनेक रूपों में परिणित होता है, व्यष्टि- समष्टि बन जाता है। भूत और गण के रूप में समाज बनता है। समाज के बाद समाजों को समन्वित- अनुशासित करने के लिए गणाधिपति आवश्यक हो जाता है। ‘गणेश’- व्यवस्था का दूसरा नाम है; जो व्यष्टि हित से समाज हित को प्रधानता देता है; व्यवस्था के तंत्र को गणतंत्र बनाता है; यत्र तत्र फैली शक्तियों को संयोजित करता है और समग्र उन्नति- सर्वोदय की भावना के संकेतों से लक्ष्य की उपलब्धि की दिशाएं दर्शाता है।

परम तत्व रूप श्री गणेश

श्री गणेश तत्व परम तत्व है, अष्टधा प्रकृति के समस्त तत्वों का सर्जक तत्व- ब्रह्म, ईश्वर, परमात्मा और आत्मा एक दूसरे के पर्याय हैं; गणेश रूप होकर वे पर्यायों से परय ‘परम तत्व’ कहलाते हैं।

‘ब्रह्म’ शब्द का एक अर्थ होता है विस्तार, फैलाव। ‘परम तत्व’ परमात्मा ‘ब्रह्मरूप’ बीज है, संसार के रूप में वृक्ष बन कर फैल जाता है। ब्रह्म और ब्रह्मांड, पिंड और ब्रह्मांड का यही रहस्य है, जो गणेश तत्वरूप को जानने से सहज ही स्पष्ट हो जाता है।

ब्रह्म के इस ‘तत्व’ रूप को वेदों- उपनिषदों में तत् कहा गया है। तत् का अर्थ होता है- वह; ‘दैट- ढहरीं’ । वह इसलिए कि ईश्वर को व्यक्तिवादी नाम देने से वह संकुचित हो जाता है और ‘वह’ ईश्वर तो विस्तार है, ब्रह्म है, ब्रह्मांड है। एक अन्य अर्थ से ‘तत्’ यानि ‘वह’ हमारे भीतर साक्षी की तरह बैठा है। तत् के उक्त रूप ही गणेश हैं।

प्राणरूप श्री गणेश

तत्व चिंतकों के अनुसार ‘ब्रह्म’ का अर्थ ‘आधार’, ‘गणेश’ एक प्राण हैं। वेदों में भी ‘आधार’ का दूसरा पर्याय ‘ब्रह्म’ है। श्रष्टि का आधार प्राणवायु है। इस प्रकार ब्रह्मस्वरूप ‘गणेश’ ही ‘प्राण’ है- या प्राणस्वरूप ‘गणेश’ ही ब्रह्म है। इन आधार रूप ‘गणेश’ को आधार बनाकर ही कूर्म प्राण, शेष प्राण, गंध प्राण, रस प्राण, रूप प्राण, स्पर्श प्राण विकसित एवं स्थित होते हैं। अतः यह प्राण (आधेय) अनेक प्राण गणों का पति (आधार) होने से ‘गणपति’ शब्द से अभिहित है। पृथ्वी को गणपति का स्थूलतम रूप माना गया है। इसीलिए तंत्र शास्त्र में पृथ्वी को गणपति मान लिया गया है।

आकाशरूप श्री गणेश

उपनिषद में ‘खं ब्रह्मं’ (आकाश ब्रह्म है) कहकर आकाश की ब्रह्मरूपता सिद्ध की गई है। सांख्य शास्त्र के अनुसार प्रकृति और पुरूष के संयोग से ‘महतत्व’ की उत्पत्ति होती हैऔर अहंकार तत्व से आकाश तत्व की। (श्री रामचरित मानस में अहंकार को ‘शिव’ रूप माना गया है, ‘अहंकार शिव बुद्धि अज मान शशि चित्त महान….. रामचरित मानस)।

शेष सभी तत्व आकाश से उत्पन्न होते हैं और उसीमें विलीन हो जाते हैं- इसलिए आकाश सर्वाधार है। ‘वैखानसगम’ आकाश तत्व को ‘गणेश’ मानता है। इस प्रकार श्री गणेश ही सबके आधार हैं, श्रष्टा हैं, संचालक हैं, पालक हैं, नियंता हैं। आकाशरूप होने से श्रीगणेश निष्कलंक, निरंजन, निर्गुण, निराकार, अनबद्ध, अकल, अनीह, अभेद, अखंड परब्रह्म हैैं।

वाङ्मयरूप श्री गणेश

गणपत्यथर्वशीर्ष उपनिषद के अनुसार ‘गणेश’ प्रत्यक्ष वाङ्मय रूप आनंद रूप चिन्मय ब्रह्म है।

त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ।
त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः।
-अथर्वशीर्ष ॥4॥

श्री गणेश सच्चिदानंद रूप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं, वे ज्ञान एवं विज्ञान का सम्पूर्ण साकार विग्रह हैं!

त्वं सच्चिदानन्दाद्वितियोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोसि ।
-अथर्वशीर्ष ॥4॥

हमारा शरीर पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों और अंतःकरण चतुष्ट्य का विग्रह है। इनके पीछे जो शक्तियां हैं वही चौदह देवता माने जाते हैं। श्री गणेश इन देवताओं की शक्ति की मूल शक्ति रूप हैं!

श्री अथर्वशीर्ष के अनुसार अव्यक्त से लेकर स्थूल देह तक समस्त जगत के निर्माता, पालक एवं हर्ता श्री गणेश हैं। वे ही परम तत्व हैं एवं वे ही ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, इंद्र, अग्नि, वायु, सूर्य, चंद्र और ब्रह्म रूप हैं।

त्वं केवल कर्तासि।
त्वं केवल धर्तासि।
त्वं केवल हर्तासि।
त्वं सर्व खल्विदं ब्रह्मासि।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रूद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वंग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्तवं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम
-अथर्वशीर्ष

शांडिल्य का सूत्र हैः ‘एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः’- अर्थात इससे विकल्प का नाश हो गया- अर्थात जहां न भक्त बचे न भगवान ऐसी हो भक्ति- ऐसी भक्ति कहलाएगी पराभक्ति; क्योंकि पराभक्ति में ही समाप्त हो जाते हैं विकल्प।

संसार के समक्ष अब समय है कि बुद्धि के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता हो- बुद्धि ही ऐसी पराभक्ति की स्थिति ला सकती है- और इसी बुद्धि का रूप ‘गणेश’ है- हमारे आज और कल के ईश्वर, जाति-धर्म, रंग और वादों से ऊपर। ‘देव भक्ति इतर अस्मिन् साहचर्य्यात’ शांडिल्य के इस सूत्र से स्पष्ट है कि ईश्वर में भक्ति के सिवाय और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है। भगवान में भेद मिटाने का समय है अब। केवल एक भगवान हो पूरी मानवता की यही सद्बुद्धि है। हम सद्बुद्धि (गणेश) वरण करें, अनुसरण, अनुगमन करें और सारे विकल्प छोड़ दें, यही वर्तमान समय की आवश्यकता है।

श्री गणेश चतुर्थी

भादौ मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी श्री गणेश के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र चतुर्थी को रिक्त तिथि मानता है। आध्यात्मिक अर्थों में चतुर्थी जीवन चक्र का प्रतीक है। श्री गणेशोत्सव का भी यही संकेत है। चतुर्थी को शुरू हुआ गणेश जन्मोत्सव कहीं कहीं केवल एक दिन का, कहीं कहीं तीन दिन का, पर सामान्यतः व्यक्तिगत रूप से अधिक से अधिक पांच तक मनाया जाता है। सात, आठ और दस दिन तक ‘श्री गणेश’ का सार्वजनिक उत्सव मनाने की प्रथा पूरे महाराष्ट्र में है। अनंत चतुर्दशी जैसे अनंत यात्रा का संकेत करती है और श्री गणेश विसर्जन जैसे जन्म-मृत्यु के चक्र को पूर्ण कर पुनः नए जन्मोत्सव की प्रतीक्षा के रंग बिरंगे सपने सजा देती है।

श्री गणेश भाद्र पक्ष की शुक्ल चतुर्थी को भक्तों की भाव भूमि के क्रीडांगण को उनके घर आंगन का ‘देवघर’ बनाने पधारते हैं। चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक के ग्यारह दिवस का हर क्षण गणेशमय- गरिमामय हो जाता है। अनंत का अनंत से मिलन अनंत लीला का अद्भुत रहस्य है, हम इस अनंत लीला के साक्षी होते हैं। इससे बड़ा हमारा सौभाग्य क्या हो सकता है? चतुर्थी तिथि में जन्म लेने का अर्थ यह है कि श्री गणपति बुद्धि प्रदाता हैं। जाग्रत, स्वप्न सुषुप्ति और तुरीय- इन चार अवस्थाओं में तुरीय ज्ञान अवस्था है, अतः ज्ञान प्रदान करने वाले श्री गणपति का जन्म चतुर्थी में होना भाव संगत है। श्री गणपति की कृपा से दृश्य जगत के लिए सिद्धि, बुद्धि, लाभ और क्षेम ये चार प्राप्त होते हैं और साथ ही चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष भी सिद्ध होते हैं।

स्वस्तिक चिह्न गणपति स्वरूप है जिसमें चार रेखाएं होती हैं जो गणेश के पत्नी-पुत्रों सहित पूर्ण परिवार की उपस्थिति से मंगल सूचक है।
श्री गणपति का बीज मंत्र ‘गं’ है। इसी ‘गं’ की चार संख्या को मिलाकर एक कर देने से स्वस्तिक चिह्न बनता है। इस चिह्न में चार बीज मंत्रों का संयुक्त होना श्री गणपति की जन्मतिथि चतुर्थी का द्योतक है।

श्री अथर्वशीर्ष के छठवें श्लोक में श्री गणेश को ‘अवस्थात्रयातीत’कहा गया है। अवस्थाएं तीन हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। इन तीनों अवस्थाओं को जब हमारा चेतन-मन पूरी तरह जान जाता है, तब चौथी अवस्था तुर्यो अवस्था का ज्ञान होता है। ‘स्वप्न’ को हम स्वप्न की अवस्था में नहीं जानते, न ही सुषुप्ति को सुषुप्ति की अवस्था में। जाग्रत अवस्था में लगता है हम जगे हैं, पर वह जगे होने का विचार सोते ही पूरी तरह टूट जाता है। दूसरे शब्दों में तीनों अवस्थाएं पूरी तरह अलग हैं। इस परतीति से चौथी अवस्था, तुर्यो अवस्था जुड़ी है। श्री गणेश चतुर्थी इसी तुर्यो अवस्था का संकेत है। श्री गणेश जन्म लेकर भी अजन्मा है, वे जन्म से जुड़ी तीनों अवस्थाओं से परय ‘तुर्यो अवस्था’ में सदैव रहते हैं। बाह्य जगत की ‘माया’ को वे स्पष्ट देखते हैं- समझते हैं, तुर्यो अवस्था है आत्मतत्व का साक्षात्कार। श्री गणेश चतुर्थी हर वर्ष हमें आत्म साक्षात्कार के अवसर देती है।
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