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उत्तर प्रदेश की सन्त परम्परा

उत्तर प्रदेश की सन्त परम्परा

by ओम प्रकाश शर्मा
in सामाजिक, सितम्बर २०१३
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उत्तर प्रदेश की सन्त परम्परा भगीरथी परम्परा है । वाल्मीकि, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र जैसे ऋषि‡मुनियों के ज्ञान से पोषित परम्परा ने ‘भक्ति काल’ में जिस उत्कर्ष को छुआ, उसमें तत्कालीन परिस्थितियों, विषम राजनैतिक वातावरण के बीच जन-सामान्य की निराशा और विवशता की प्रतिक्रिया स्वरूप उपजी करुणा, दया, प्रेम की त्रिवेणी है। निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो, रामानंद, हरिदास, कर्नाट, तुलसी, सूर, केशव, जायसी, रसखान, रविदास (रैदास), मलूकदास, नन्ददास, कुम्भनदास, कृष्णदास जैसे अनगिनत सन्त हैं, जिन्होंने सन्त परम्परा को आगे बढ़ाया है। यह आलेख उन सब दिव्य विभूतियों का शब्दाभिषेक करने में सक्षम नहीं है; हां! उनकी चरण‡रज से तिलक करते हुए सामाजिक जीवन में बहुचर्चित कुछ सन्त महापुरुषों की शब्द‡आरती उतारने का अति लघु विनम्र प्रयास भर है।

स्वामी रामानंद

सन्त कबीर, रैदास, पीपाजी, सैणजी, यावानंद, धन्नाजी जैसे शिष्यों के गुरु स्वामी रामानंद सन 1423 में प्रयाग में जन्मे और काशी में शिक्षित‡दीक्षित हुए। उस समय के प्रसिद्ध योगी स्वामी राघवानंद के शिष्यत्व से ‘प्राण’ को संयमित‡दीर्घ‡लघु की विशिष्ट क्रियाओं से पारंगत हुए। वेद‡पुराण‡शास्त्रों के विशिष्ट ज्ञाता के रूप में प्रतिष्ठित रामानंद जी ने ‘आनंद भाष्य’, ‘भागवत गीता भाष्य’, ‘श्री रामाचरण पति’ जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थों का उपहार हमें दिया। गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति सम्बन्धी धारणाओं पर स्वामी रामानंद के भक्ति मार्ग का प्रभाव है, ऐसा विद्वानों का मत है। जातिगत भेद‡भाव को न मानने का उनका संकल्प कालांतर में कबीर‡रैदास‡तुलसी आदि सन्तों ने फलीभूत किया। 102 वर्ष की दीर्घायु का सम्पूर्ण जीवन वैष्णव सम्प्रदाय की भाव भूमि को समर्पित करने वाले क्रान्तदर्शी सन्त रामानंद की सम्पूर्ण मानवता सदैव ऋणी रहेगी।

तुलसीदास

‘श्री रामचरित मानस जैसे कालजयी, लोकप्रिय, मानव जीवन को समग्र रूप में प्रतिष्ठित करने वाले ग्रन्थ के रचयिता सन्त तुलसीदास भारतीय संस्कृति, आस्था और अस्मिता के दैदीप्यमान सूर्य हैं। संवत 1554 में चित्रकूट के राजापुर ग्रम में जन्मे हुलसी सुत तुलसी के बचपन को माता-पिता का लालन‡पालन तो नहीं मिला, पर सन्त नरहर्यानन्द से मिली ‘राम मन्त्र’ की दीक्षा, वैष्णवी संस्कार और ‘राम बोला नाम, सुन्दर पत्नी की सीख से संन्यासी हुए तुलसी ‘राम कथा’ वाचक से कविर्मनीषी, लोकहित और मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा से भाव प्रवण साधु श्रेष्ठ, ज्ञान, भक्ति, कर्म के समन्वय से दार्शनिक आर्य, राक्षसी और वनवासी संस्कृतियों के संगम से क्रान्तदर्शी विचारक देश, काल, सम्प्रदाय, अविश्वास से भरी मान्यताओं से अबाधित आदर्श जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा के प्रति प्रतिबद्धता से समाज सुधारक और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से निर्विकार रहने की सन्त परम्परा को नयी ऊर्जा देने से महान सन्त के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
समस्त संसार को ‘सियाराम मय’ देखना, ‘परहित’ को सबसे बड़ा ‘धर्म’ मानना, ‘पर पीड़ा’ को निकृष्ट अधमता कहना केवल सहृदयी सन्त को ही सम्भव है। ‘राम’ के प्रति उनकी ‘प्रतिबद्धता’ अनुपदेश है, पर उनके सन्त हृदय की ‘समत्व’ भावना उनसे ‘श्रीकृष्ण गीतावली’ और ‘पार्वती मंगल’ की रचना भी कराती है। तुलसी ऐसे सन्त हैं जो ‘सन्तत्व’ की ‘रामनामी’ ओढ़ते नहीं हैं, वरन सन्तत्व को जीते हैं। उनके द्वादस ग्रन्थों में सन्तत्व प्राप्ति के गुण बिखरे पड़े हैं शैव्य‡शाक्त‡एवं वैष्णवी सम्प्रदायों को ‘भक्ति’ की डोर में पिरोकर ईश्वरीय चेतना से जोड़ने का महान कार्य तुलसी ने किया है। तुलसी की रामकथा मंदाकिनी के प्रवाह में जाति, सम्प्रदाय, थोथी मान्यता मिलकर पतित पावनी गंगा बन जाते हैं। व्यष्टिवादी चिन्तन से जन्मे राग‡द्वेष से पोषित मानसिक रोग निष्काम कर्म, निर्मल मन, शील‡लज्जा के उदात्त भावों के समष्टि रूप के सामने सहज ही नष्ट हो जाते हैं। जन्म जन्मांतरों तक राम‡भक्ति की चाह करने वाले तुलसी मानवता को नैरास्य और प्रमाद से मुक्त कराने वाले अद्वितीय सन्त हैं।

सूरदास

‘सूरसागर’ के नाम से प्रसिद्ध श्रीमद्भागवत का 75000 पदों में सरल हिंदी अनुवाद करने वाले ‘सूरदास’ कृष्ण भक्ति के यशस्वी आचार्य हैं। अपने जन्म के नाम ‘मदन मोहन’ को सार्थक करने वाली सुन्दर देहदृष्टि के स्वामी ने यौवन की दहलीज पर आते-आते स्वयं को ‘सूरदास’ बना लिया। इस दन्त कथा का सत्य जो भी हो, पर यह सत्य है कि ‘सूरदास’ ने भीतर की आंखों से देखकर जो लिखा उसका विश्व साहित्य में सानी नहीं है। अकबर जैसे बादशाह के प्रिय याजन होकर, ‘हकिय’ के पद पर रहकर साधु-संतों की आवभगत पर मुक्त हाथों से धन लुटाने वाले ‘सूरदास’ की नियति सन्त होने की थी, न कि राज दरबारी सामन्त। संस्कृत, हिंदी, फारसी का विशद् ज्ञान, संगीत के रागों की विशिष्ट योग्यता गुरु वल्लभाचार्य के निर्देश पर श्रीकृष्ण की लीलाओं के रस में अहर्निश विभोर हुए सूरदास ने कोटि-कोटि वैष्णवों की आस्था को अपने मधुर पदों की संजीवनी से पिछले 500 वर्षों से जीवित रखा है। जातिगत व्यवस्था को इतने सहज ढंग से नकारना सूरदास का ही कमाल हो सकता है।

‘राम भक्त वत्सल निज नानौं।
जाति, गोत, कुल, नाम गनत नहीं एक वेर कै दानौं॥’

सूरदास शास्त्रों की मर्यादा को अक्षुण्ण रखते हुए गोपियों के कृष्ण‡प्रेम के माध्यम से ईश्वर को जन‡जन के हृदय में प्रतिष्ठित कर देते हैं। उनमें ईश्वर मन्दिर की प्रस्तर मूर्ति भर नहीं है, बाल गोपाल हैं, इन्द्र के प्रकोप को चुनौती देने वाला साहसी युवा हैं, गोधन की रक्षा करने वाला सड़ी-गली परम्पराओं की जगह लोक मंगलकारी नवीन व्यवस्था का प्रेरक, संरक्षक प्रेम के अलौकिक रूप को भाव‡शब्द देने वाला लोक सन्त हैं। सूरदास के कृष्ण ‘दीनन दु:खहरन देव सन्तन सुखकारी हैं’ इसीलिए वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं ‘विनती जन कासौं करै गुंसाई।’ स्वयं को ‘सब पतितन को राजा’ घोषित करने का साहस केवल सन्त में ही हो सकता है। सच्चा सन्त स्वयं तो सावधान रहता ही है, जन‡सामान्य को भी सावधान करता है ‘अजहूं सावधान किन होंहि’ कहने वाले सूरदास ‘सबै दिन नाहिं एक से जात’ का आश्वासन भी देते हैं। इस तरह जन‡मन से जुड़े सन्त हैं सूरदास, जीवन से जुड़े सन्त हैं सूरदास, मिट्टी से जुड़े सन्त हैं सूरदास।

कबीर

स्वामी रामानंद के मुख से निकले ‘राम राम’ शब्दों के ‘शक्तिपात’ से जो दिव्य सन्तत्व को प्राप्त हुआ, ‘मसि कागद’ छुए बिना जो शीर्षस्थ ‘कवि’ हो गया, काशी का निवासी होकर जो ‘मुक्ति’ की चाह से मुक्त हो काशी छोड़ ‘मगहर’ को राम की ‘बगिया’ हो गया, उस कबीर से सन्त शब्द सार्थक हुआ।

संवत 1455 में जुलाहे ‘नीमा’ के घर ‘नीरू’की कोख से जन्मे कबीर जन्म से तो मुसलमान थे, पर काशी के सनातनी वातावरण में सांस लेते-लेते ‘राम नाम’ के दीवाने बन गये थे। आठ साल की उमर में ‘सुन्नत’ के लिए मना करना और काजी को राम नाम भजने की सलाह देना; उस समय का एक क्रान्तिकारी कदम था। ‘छांड़ि कतेव राम भजु बड़ रे जुल्म करत है यारी’ कहने वाला बालक कबीर सचमुच कबीर नाम को (कबीर अर्थात बड़ा) सार्थक कर रहा था।

गरीब होने पर भी हाथ से बुने पूरे कपड़े की थान सन्तों को मुफ्त दे देना, अपने घर को सत्संग भवन बना साधुओं को भण्डारा कराना, निन्दा करने वाले पण्डितों को कहना कि ‘निन्दा हमरी प्रेम पियारू। निन्दा हमरा करे उद्धार॥’ अर्थात निन्दा करने वाला मेरा मित्र है और मेरे पापों को काटकर उद्धार करने वाला है सहज ही ‘शबद’ का उच्चारण करना और सामान्य बोलचाल में भी ब्राह्मण की बातों का उल्लेख करना कबीर के सन्तत्व की अलग पहचान है।

उस समय के तथाकथित पण्डित वर्ग को स्पष्ट शब्दों में कहना कि ‘जौ तूं ब्राह्मण, ब्राह्मण जाइआ, तउ आन वाट काहे नहीं आइआ।’ केवल कबीर को ही सम्भव था। ब्राह्मण कौन होता है, इसकी व्याख्या वे दो शब्दों में करते हैं : ‘कहुं कबीर जो ब्रह्म विचारे। सो ब्राह्मणु कहीं अतु हैं हमारे॥’

सिकंदर लोदी की मौत के फरमान से निडर कबीर ने गंगा की लहरों में जंजीरों से बंधे हुए डूबना स्वीकारा, आग की लपटों को गले लगाया, हाथी की सूड़ के आगे खुद को फेंकना मंजूर किया और सिद्ध किया कि जैसे स्याही और कागज को अलग नहीं किया जा सकता, वैसे ही कबीर को राम से अलग नहीं किया जा सकता ‘कहुं कबीर इह राम की असु। जस कागद पर मिटे न पसु॥’ कबीर क्रान्तदर्शी, व्यवस्था सुधारक, रचनात्मक सन्त हैं। वे परम्पराओं के लोभ को ढोते नहीं हैं, उन्हेें सहज, सरलता, समय सापेक्ष बनाने हेतु प्रश्न खड़े करते हैं, झकझोरते हैं, दिशा देते हैं। जन सामान्य के हित के लिए धार्मिक पाखण्डों की विधि‡विशेष व्यवस्था की बखिया उधेड़ना, जाति‡धर्म के भेद‡भाव की दीवारों को मिटान की मुहिम छेड़ना, शस्त्र और शास्त्र के तथाकथित विशेषज्ञों के स्वार्थ के किलोंको धराशायी करना कबीर की परम्परा है। यह आचरण का ज्ञान और कर्म की हर दिशा में ज्ञान और सद्आचरण का प्रयोग कबीर के ‘सन्तत्व’ के वे पाठ हैं, जो किसी शास्त्र के श्लोकों का प्रश्रय नहीं खोजते, जीवन की सहज धारा बन जाते हैं और यही कबीर का अनुपम योगदान है।

रविदास

स्वामी रामानंद के शिष्य के रूप मे प्रतिष्ठित, ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित जाति व्यवस्था को नया अर्थ देने वाले रविदास (रैदास) ने भक्तों और सन्तों को अपनी कर्मठता ईश्वरीय प्रेम एवं सेवा की शक्ति से गौरवान्वित किया है। अपने मन्दिर की मूर्तियों को गंगा के किनारे मनुष्यों की तरह चलते हुए दिखाने का रविदास का कोई चमत्कार नहीं था‡ यह तो था उनकी भक्ति की शक्ति का स्वरूप जो सहज ही प्रकट हो गया था उनके मनोभावों के सम्मान में:

‘बहुत जनम बिछुरे थे माधव, इहु जनम तुम्हारे लेखे।
कहि रविदास आस तामि जीवड चिर भइओ दरसनु देखे॥

चित्तौड़ के राजा की रानी भाला ने रविदास में सच्चे गुरु के दर्शन किये थे, पारस पत्थर को अपने लाभ के लिए उपयोग करने की बात तो दूर‡स्पर्श भी न करने वाले रविदास स्वयं पारसमणि थे, जिनके वाक्स्पर्श से अनगिनत शिष्यों का बेड़ा पार हो गया। ईश्वर के धाम को ‘बेगमपुरा’ मानने वाले (अर्थात जहां कोई गम न हो) रविदास हर हाल में खुश रहे। छोटी जाति में जन्म लेने से वे कभी कुण्ठित नहीं हुए, पैसों की कमी ने उन्हें कभी दुखी नहीं किया, अपितु महादानी बनाया।

‘बेगमपुरा सहर को नाउ। दु:ख अंदोहु नहीं तिहु ठाउ॥
आवादानु सदा मझर। ऊहां गनी वसहि मासूर॥

गुरु नानक के समकालीन रविदास ने वैष्णव भक्ति आन्दोलन को शक्ति दी; जन-मानस को जाति‡भेद, रुढ़िवाद, पाखण्ड से मुक्त किया और अपने आचरण से महान सन्त का स्थान अर्जित किया।

जायसी

मलिक मुहम्मद जायसी 15 वीं शदी के ऐसे महान सन्त हैं जिसने सूफी परम्परा की विचारधारा को नयी ऊंचाइयां दी हैं। सन 1540 में लिखा ‘पद्मावत’ हिंदी साहित्य की अमोल धरोहर है। रायबरेली जिले के ‘जायस’ गांव की इस शख्सियत ने रानी ‘पद्मावती’ के कथानक को प्रेम और रहस्यवाद के रंगों से रंगा है, जिनकी चमक सैकड़ों वर्षों के बाद आज भी जस की तस है। घर-बार छोड़कर त्यागी‡संन्यासी का जीवन बिताने वाले ‘जायसी’ ने ‘अखरावत’ और ‘आखरी कलाम’ लिखकर साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया है।

रसखान

उत्तर प्रदेश के अमरोहा गांव का पठान सरदार ‘सैय्यद इब्राहीम’ जमींदार घराने की शानो-शौकत के गुरूर को भूल गोस्वामी विठ्ठलनाथ के चरणों में बैठकर कृष्ण भक्ति के रंग में रंगेगा और आजीवन वृंदावनवासी हो श्रीकृष्ण प्रेम की लीलाओं के रस से पूरे भारत को रससिक्त कर देगा, इसकी कल्पना करना कठिन है।

‘था लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूपुर को तजि डारौ’

रसखान ने ऐसा कहा नहीं‡ किया भी। खग (पक्षी) के
रूप मेंकालिन्दी के कूल पर कदम्ब की डार पर,
पत्थर के रूप में गोवर्धन पर्वत का हिस्सा बनकर,
पशु के रूप में नन्द की धेनुओं के बीच धेनु बनकर और

मनुष्य के रूप में गोकुल गांव के ग्वालों के बीच ग्वाला बनकर रहने की रसखानी महत्वाकांक्षा अद्भुत भक्ति का शिखर है, जिसकी ऊंचाई और गहरायी दोनों अबूझ हैं। भागवत पुराण का पर्शियन भाषा में अनुवाद कर रसखान नें भारतीय संस्कृति का ध्वजारोहण विदेशी भाव‡जगत में कर अभूतपूर्व योगदान दिया है।

मलूकदास

‘जाति पाति पूछे नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई॥

जैसी लोक उद्धारक उक्ति कहने वाले ‘मलूकदास’ (सन 1574‡1692) इलाहाबाद में जन्मे ऐसे सन्त थे, जिनकी योग्यता का लोहा औरंगजेब जैसे कट्टरपंथी खूंखार बादशाह ने भी माना था। समता की भावनाओं को फैलाने वाले, भाईचारे के धागों को मजबूत करने वाले, प्रेम और दया का पाठ पढ़ाने वाले मलूकदास मीराबाई की सहजता, नानक की करुणा, चैतन्य की दीवानगी का संगम थे। ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। दास मालूका कह गये, सबके दाता राम।’उनका यह प्रसिद्ध दोहा ‘भाग्यवाद’ का पोषक नहीं एकनिष्ठा‡प्रतिबद्धता और विश्वास का प्रतीक है, जो धर्म को सनातन बनाता है और साधारण व्यक्ति को सन्त।

उत्तर प्रदेश की सन्त परम्परा ने ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों की अर्चना, वन्दना की। ज्ञान, भक्ति और कार्य के समन्वय से आदर्श‡जीवन जीने के दिशा-निर्देश दिये। निरास, संतप्त, त्रस्त, अभिशप्त मानवता को आस्था और विश्वास की संजीवनी से नया जीवन दिया। विषयों की असारता सिद्ध कर भौतिकता की विष वेल को फैलने से रोका। अतृप्त जिज्ञासु हृदयों में ज्ञान का प्रकाश बांटा। स्पष्ट किया कि ईश्वर के प्रति भक्ति‡भाव भाग्यवादी नहीं, निष्काम सेवी, परोपकारी और आदर्शोन्मुख जीवन जीने की कला सिखाता है, आक्रान्त मन को देता है आशाओं की शीतल छांव। धर्म को सनातन और कर्म को चिरन्तन बनाये रखने में सन्तों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। भूगोल की जड़ता को, सन्तत्व की प्राण‡शक्ति ही चेतना का देवत्व प्रदान करती है । भारत भूमि, सन्तों की जिजीविषा के प्रसाद से देवभूमि थी और रहेगी। बदलते सन्दर्भों में सन्त परम्परा भी अपने नये क्षितिज खोज रही है और हम सब उन क्षितिजों पर सन्तों की सूर्य‡चन्द्रमयी आभा देखने के लिए आतुर हैं।

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