रंग बरसे

फिराक, गैंग्स ऑफ वासेपुर, भाग मिल्खा भाग, मद्रास कैफे, स्पेशल छब्बीस जैसी फिल्मों के द्वारा हिंदी सिनेमा कितने भी अलग मोड़ ले लें, परंतु वह अपनी परम्परागत विशेषताएं छोड़ देगा ऐसा नहीं लगता है।

इसी तरह की हिंदी सिनेमा की संस्कृति की एक विशेषता है होली का रंग, नृत्य और मस्ती।

महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ से लेकर संजय लीला भंसाली की ‘गोलियों की रासलीला’ तक और वी शांताराम की ‘नवरंग’ से लेकर अयान मुखर्जी की ‘ये जवानी है दीवानी’ तक हिंदी सिनेमा में भरपूर होली खेली गई।

पिछले कुछ फिल्मों को देखकर होली का यह रंग फीका पड़ने का अंदेशा होने लगा था। मुख्य रूप से ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे’, ‘कुछ-कुछ होता है’, ’दिल तो पागल है’ जैसी चमचमाती फिल्मों ने जब एनआरआय नायक या विदेशी पृष्ठभूमिवाली कहानियों को अपनाया तो ऐसा लगने लगा था कि हिंदी फिल्मों में त्यौहार मनाने की संस्कृति शायद पीछे रह जायेगी। वास्तविकता में ऐसा हुआ नहीं। हमारे दर्शकों को भी फिल्मों में अपने समाज की प्रथा, परम्परा, सभ्यता, संस्कृति, उत्सव, त्यौहार, फिल्मों में देखना पसंद करते हैं। इस वजह से हमारी फिल्मों में फिर से होली, गणेश इत्यादि उत्सव दिखाई देने लगे हैं।

हिंदी फिल्मों में होली के खूब रंग उड़ाये जा रहे हैं। परंतु यहां धुलिवंदन और रंगपंचमी का फर्क नहीं दिखाया जाता। उत्तर भारत में मनाई जानेवाली होली मुख्य रूप से धुलिवंदन के रूप में जानी जाती है। यहां अनेक रंगों के गुलाल से एक दूसरे को जी भरकर रंगा जाता है। भांग पीकर खूब मौजमस्ती की जाती है।

महाराष्ट्र में रंगपंचमी मनाने की प्रथा है। पिचकारी से रंगीन पानी डालकर किसी को भिगोने का आनंद उठानाही इसकी पद्धति है। अब रंगपंचमी और धुलिवंदन में अंतर नहीं रह गया है। दोनों को एक ही नाम (होली) से जाना जाता है। यह फिल्मों के ही माध्यम से आया सत्य है।

बड़े पर्दे पर दिखाई जानेवाली होली में मुख्य रूप से गाने ही रंगे गये हैं। कुछ रंगीन गानों पर नजर डालते हैं- होली आयी रे (मदर इंडिया), अरे जा रे हट नटखट (नवरंग), फागुन आयो रे (फागुन), आज ना छोडेंगे (कटी पतंग), होली के दिन सब मिल जाते हैं (शोले), जख्मी दिलों का बदला चुकाने (जखमी), मल दे गुलाल मोहे (कामचोर), अपने रंग में रंग दे मुझको (आखिर क्यों), ओ देखो होली आयी (मशाल), अंग से अंग लगाना साजन (डर), मोहे छोड़ ना (डर), रंग बरसे भीगे (सिलसिला), अरे होली खेले रघुवीरा (बागबान), देखो आयी होली (मंगल पांडे), कोई भीगा है रंग से (बम्बई से आया मेरा दोस्त), रंग दी प्रीत ने रंग दी (धनवान) आदि… आदि।

रमेश सिप्पी दिग्दर्शित ‘शोले’ में होली का रंग खूब चढ़ा। अत्यंत जिज्ञासा के क्षणों में इस फिल्म में होली आती है। डाकू गब्बर सिंह के तीन सहकर्मी जय और वीरू से डरकर वापिस आ जाते हैं। इस बात से नाराज गब्बर उन तीनों को मार देता है और कहता है ‘जो डर गया वो मर गया’। इसके बाद वह पूछता है ‘होली! कब है होली’। होली के गीत को रंगीन बनाने के लिये रंगों पर बहुत खर्च किया गया। इसकी चर्चा भी बहुत हुई। होली के गीतों में यह सबसे लोकप्रिय गीत है।

ओ.पी. मेहरा द्वारा निर्देशित ‘फूल और पत्थर’ में भी अलग रंग में होली आती है। नायक धर्मेन्द्र बस्ती में होली खेलते-खेलते घर में प्रवेश करता है और विधवा मीना कुमारी को रंग लगा देता है। इस अनपेक्षित व्यवहार के कारण वह सहम जाती है। वह भी डर जाता है। इसी घड़ी से उनके बीच रिश्ता आकार लेने लगता है।

वी शांताराम के नवरंग में तो महिपाल और संध्या ने इंद्रधनुषी छटा बिखेरी है। दोनों का ही नृत्य नैसर्गिक, आकर्षक और चपलता से परिपूर्ण है। इसके कारण ऐसा लगता है मानो पूरे परदे पर रंगों की बरसात हो रही हो। वी. शांताराम नृत्य और गायन के चित्रीकरण में कुशल होने के कारण ‘नवरंग’ कमाल का नेत्रसुख देती है।

हाल में प्रदर्शित रांझना, अग्निपथ, यारियां आदि फिल्मों में भी हमने होली का रंग देखा। परंतु दो-तीन फिल्मों में तो यह पूरे परदे पर फैला। अयान मुखर्जी द्वारा निर्देशित ‘ये जवानी है दीवानी’ में रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण ने बलम पिचकारी गीत में खुद के साथ ही दूसरों को भी खूब रंगाया। संजय लीला भंसाली निर्देशित ‘रामलीला’ में रणबीर सिंग और दीपिका पादुकोण ने ‘लहू में लग गया’ गीत में अनेक रंगों को उंडेला है। दीपिका नीले, पीले, लाल रंगों में भी दिखी भी बहुत सुंदर है। इसमें भी दीपिका ने इशारों इशारों में रणबीर कपूर को आव्हान दिया और रणबीर ने भी उसे स्वीकार किया। इसी से उनके प्रेमरंग में और निखार आ गया।

राजकुमार संतोषी निर्देशित ‘दामिनी’ में होली का बिलकुल अलग ही रंग है। एक धनाढ्य परिवार में होली के खेल का रंग चढने के दौरान रंग के नशे में कुछ युवक घर की नौकरानी के साथ जबरजस्ती करते हैं। तब इस परिवार में आई नई बहू दामिनी (मीनाक्षी शेषाद्री) उस नौकरानी को न्यान दिलाने के लिये बहुत प्रयास करती है।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की होली का जब भी जिक्र होता है तो राज कपूर की उत्साह वर्धक और जोशपूर्ण होली याद आती है। आर. के. स्टूडियो के मैदान में एक बड़े हौदे में रंगीन पानी भरकर वहां होली मनाई जाती थी। राज कपूर स्वयं अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को उस हौद में डुबो देते थे। राज कपूर के भिगोने में अनेक लोगों को थ्रिल लगता था। उसके साथ स्कॉच आदि उच्च दर्जे की शराब और भरपूर मात्रा में शाकाहारी-मांसाहारी पदार्थों की रेलपेल रहती थी। इसके कारण होली स्वादिष्ट भी होती थी। राज कपूर के निधन के बाद आर.के. स्टूडियो की होली बंद हो गयी, जिसे अब पच्चीस वर्ष पूर्ण हो चुके हैं।
सुभाष घई भी खुद को राज कपूर के जैसा शोमैन मानते हैं। उन्होंने भी मड आयलैंड के अपने बंगले पर होली मनाई। यश चोपडा भी अपने जुहू के बंगले पर होली का खेल खेलते हैं। यह भी फिल्म इंडस्ट्री में प्रसिद्ध होने के कारण कई बडी हस्तियां यहां आती हैं। अमिताभ बच्चन के प्रतीक्षा बंगले पर भी दो-तीन साल खूब होली रंगी। परंतु वह उन्होंने क्यों बंद कर दी यह तो वह ही जाने।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कई छोटे-बडे कलाकारों के घर होली मनाई जाती है। शराब और खाना-पीना इसके साथ-साथ चलता था।

अर्थात होली मतलब उत्साह, एक-दूसरे को मिलने का, रंगाने का मुक्त अवसर कहा जाये तो फिल्मी परदे की और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की वास्तविक होली के संदर्भ में किसी को भी कुछ गलत नहीं लगेगा।
वैसे भी कहा ही जाता है- ‘बुरा न मानो, होली है।’
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