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पर्यावरण परिवर्तन एक वैश्विक संकट

पर्यावरण परिवर्तन एक वैश्विक संकट

by डॉ. दिनेश प्रताप सिंह
in मार्च-२०१४, सामाजिक
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पृथ्वी के चारों ओर कई सौ किलोमीटर की मोटाई में व्याप्त गैसीय आवरण को ‘वायुमण्डल’ कहा जाता है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के कारण ही यह वायुमण्डल उसके साथ टिका हुआ है। पृथ्वी की सतह पर विभिन्न प्रकार के जीवों का अस्तित्व इसी वायुमण्डल के कारण ही सम्भव होता है। जीवीय तत्वों के विकासीय चक्र के ऊपर पड़ने वाले सभी बाहरी दशाओं और उनके प्रभावों के कुल योग को पर्यावरण कहा जाता है।

प्रकृति के दो तत्व-वंशानुक्रम एवं पर्यावरण पृथ्वी के जीवों तथा उनकी क्रियाओं को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। इसलिए जब पर्यावरण में किसी प्रकार का परिवर्तन होता है, तो उससे सबसे अधिक पृथ्वी के जीव-जन्तु, वनस्पति और अन्य अजैविक पदार्थ प्रभावित होते हैं। विगत् लगभग आधी शताब्दी से पृथ्वी के पर्यावरण पर विभिन्न प्रकार के परिवर्तनकारी बड़े प्रभाव पड़ रहे हैं। इन प्रभावों में मनुष्य द्वारा उत्पन्न किये गये कारक अधिक जिम्मेदार हैं। वर्तमान समय में पर्यावरण परिवर्तन इस सीमा तक होने लगा है कि उसके भयंकर दुष्परिणाम प्रत्यक्ष रूप से दिखायी देने लगे हैं। वैश्विक ऊष्माकरण, हिमनदों का पिघलना, महासागरों का बढ़ता जलस्तर, बढ़ता प्रदूषण और इन सबके कारण प्रभावित होता मानव जीवन इस पर्यावरण संकट के सम्मुख एक गम्भीर चुनौती के रूप में उपस्थित है। पूरी दुनिया के पर्यावरण शास्त्री, वैज्ञानिक, विशेषज्ञ और राजनेता जलवायु में हो रहे परिवर्तन और उसके प्रभाव को लेकर चिंतित हैं और इससे उबरने के लिये प्रयासरत हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों का आयोजन किया जा रहा है और संकट से बचने का कोई सर्वमान्य हल निकालने का प्रयत्न किया जा रहा है।

पर्यावरण संकट के कारण

पर्यावरण के वर्तमान वैश्विक संकट के लिये मनुष्य की जीवन शैली जिम्मेदार है। पश्चिमी उपभोगवादी सोच के चलते प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध एवं अविवेकपूर्ण दोहन, खनिज पदार्थ, वनस्पति और भूमिगत जल का अधिकाधिक उपयोग और औद्योगिक तथा यांत्रिक गतिविधियों के कारण पर्यावरण सर्वाधिक प्रभावित हुआ है। पश्चिमी जगत की देखादेखी दुनिया के अन्य भागों में भी वही जीवनशैली और उसके दुष्प्रभाव के रूप में पर्यावरण संकट सामने आ रहा है। कार्बन का उत्सर्जन, मिथेन जैसी गैसों का निष्क्रमण, वृक्षों तथा जलाशयों का शोषण इत्यादि ऐसे बड़े कारण हैं, जिनके चलते वातावरण में तापमान की वृद्धि होती जा रही है। प्रदूषित गैसों के निकलने से और भूगर्भ में प्रदूषित जल पहुंचने से वातावरण में मूलभूत बदलाव हो रहा है। प्राकृतिक रुप से उत्सर्जित कार्बन डाई आक्साइड, मिथेन तथा ओजोन गैसों और मानवीय क्रियाओं से निकलने वाली क्लोरोफोरो कार्बन, सल्फरडाई आक्साइड, नाइट्रेस आक्साइड एवं कार्बन मोनो आक्साइड गैसों के कारण हरित गृह प्रभाव का निर्माण होता है। इसके परिणाम स्वरूप वायुमण्डल में स्थित ओजोन गैसों का क्षरण होता है और सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी तक पहुंचने लगती हैं। इससे तापमान में वृद्धि होने लगती है।

पर्यावरण संकट के परिणाम

वैश्विक रूप से तापमान की वृद्धि के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही बड़े घातक परिणाम सामने आ रहे हैं। प्रत्यक्ष परिणामों में पर्यावरण में परिवर्तन, समुद्री जलस्तर का बढ़ना, हिमनदों का विनष्ट होता, ध्रुवीय क्षेत्र का सिकुड़ना, कृषि क्षेत्र में बदलाव इत्यादि तथा अप्रत्यक्ष परिणामों में मौसम में आकस्मिक बदलाव, ऋतुओं में उतार-चढ़ाव, अर्थव्यवस्था में बदलाव, स्वास्थ्य पर दुष्परिणाम, शुद्ध जल पर प्रभाव इत्यादि हैं।

पर्यावरण परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव वायुमण्डल पर पड़ रहा है, जिसके कारण चरम घटनाएं, प्रकोप, अपदाएं इत्यादि में वृद्धि हो रही हैं। चक्रवात, हरिकेन, टारनैडो जैसे वायुमण्डलीय विक्षोभ, ओलापात, आकाशीय बिजली का गिरना, तड़ित झंझा, हिमपात, बादल फटना, अतिवर्षा, सूखा, शीत लहर, गर्म लहर इत्यादि समय-असमय उत्पन्न हो रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से विश्व में जिस तरह की प्राकृतिक घटनायें हो रही हैं, उनके पीछे पर्यावरण परिवर्तन ही कारण है। भारत के उत्तराखण्ड में स्थित केदारनाथ में बादल फटने से अपार जन-धन की क्षति हुयी। दुनिया के उष्ण कटिबंध (30 उत्तरी तथा 30 दक्षिणी अक्षांश) में निम्न वायुदाब वाला क्षेत्र होता है, जहां पर औसतन साढ़े छ: सौ किलोमीटर की गति से हवायें चलती हैं। ये हवायें समुद्री भाग से आगे बढ़कर जब थलीय भाग से टकराती तो उनकी शक्ति और गति कम हो जाती हैं, किन्तु तापमान में वृद्धि हो जाती है। जिसके कारण मार्ग में एक चक्र बन जाता है। इससे निर्मित विनाशकारी झंझावात हरिकेन (अमेरिका), चक्रवात (भारत, बांग्लादेश), टाइफून (चीन), टैफू (जापान), विली-विली (आस्ट्रेलिया) अपने मार्ग में विनाशलीला उत्पन्न करते हैं। अमेरिका के कई क्षेत्रों, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश (भारत), यागांव (बांग्लादेश) में इनके प्रभाव चौंकाने वाले होते हैं। अमेरिका में हरिकेन के प्रभाव में लुसियाना, टेक्सास, अलबामा, फ्लोरिडा आते हैं। भारत में चक्रवात के साथ ही सागरीय लहरों का प्रकोप सुनामी के रूप में आ चुका है। तड़ित झंझा की उत्पत्ति का कारण भी यही हवाओं की प्रकृति में बदलाव ही है, जिससे मेघ फटन होता है और चन्द घण्टों में 250-300 मिलीमीटर जलवर्षा हो जाती है। यह वर्षा भीषण आपदा का कारण बनती है।
पर्यावरण परिवर्तन का प्रभाव पृथ्वी के तापमान पर भी पड़ता है। तापमान बढ़ने से जल का अवशेषण तेजी से होता है। वनस्पतियों का विनाश होने लगता है, फसल चक्र बिगड़ जाता है। उष्ण हवायें तेज हो जाती हैं। उनके मार्ग बदल जाते हैं। वनीय क्षेत्रों से गुजरती तेज उष्ण हवाओं के कारण वनस्पतियां सूखती हैं, उनमें तेजी से घर्षण होता है और आग उत्पन्न हो जाती है। आस्ट्रेलिया के जंगलों में, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के उत्तरी भागों में लगी भीषण आग वर्षों तक बुझ नहीं पाती है। वर्षा का अभाव आग की भीषणता को बढ़ाता है। सवाना घास के मैदानों की आग अधिक ऊंची न होने के कारण बादलों का अवशोषण नहीं कर पाती और वर्षा होने से बुझ जाती है, किन्तु जंगली आग अपनी ओर आते बादलों की नमीं सोखकर उन्हें नष्ट कर देती है।

जलवायु में हो रहे बदलाव के कारण ऋतुओं की अवधि भी प्रभावित हो रही है। बिना मौसम के हिमपात, जलवर्षा, सूखा पड़ने लगा है। फरवरी महीने में अमेरिका, ब्रिटेन, जापान इत्यादि देशों में हिमपात इसके परिणाम हैं। वर्षा और शीतकाल की अवधि सिकुड़ रही है, जबकि ग्रीष्मकाल लम्बा होता जा रहा है। यद्यपि कम अवधि में अधिक वर्षा और अत्यधिक जाड़ा पड़ने लगा है। भारत सहित अनेक देशों में वर्षा का प्रकोप बढ़ने से भयंकर हानि हो रही है। शीत अधिक पड़ने से हिमपात अधिक होता है, किन्तु बर्फ कच्ची होने के कारण हिम तेजी से पिघलता है, परिणामस्वरूप पहाड़ी नदियों में गर्मी में बाढ़ आ जाती है।

पर्यावरण संकट से बचाव

पर्यावरण संकट से उबरने के लिए दुनिया भर में चिंता व्याप्त है, किन्तु दुर्दैव से कोई भी देश जिम्मेदारी लेने से बच रहा है और विनाशकारी तत्वों के उत्सर्जन पर प्रतिबंध लगाने से भाग रहा है। क्षेत्र और कानकुन सम्मेलनों में कोई सार्थक निर्णय नहीं लिया जा पा रहा है। भौतिकताप्रधान देश अपनी सुख-सुविधा में कटौती सहन नहीं कर पा रहे हैं। फिर भी हम सबका दायित्व है कि स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक रूप से जल, वनस्पति, मृदा का संरक्षण करें। उन्हें प्रदूषित होने से बचायें। जैविक कृषि अपनायें और रसायनों का प्रयोग करें। जलवायु को क्षति पहुंचाने वाली गैसों का उत्सर्जन बंद करें। प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन रोकें। समग्र रूप में विनाश के पथ पर चलकर विकास की संकल्पना का परित्याग करें। ऐसा करने से ही पर्यावरण, पृथ्वी और मनुष्य सहित सभी जीव-जन्तु सुरक्षित रह सकेंगे।
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