सुविधाएं शहरी  संस्कृति ग्रामीण

 आज हमें ग्रामों में शहरी सुविधाएं उपलब्ध कराने की आवश्यकता है, ग्राम का शहरीकरण करने की नहीं| ग्रामों को सुविधाओं से परिपूर्ण करना पड़ेगा और साथ ही सामाजिक समरसता का वातावरण बनाना होगा| जो गलत बातें वहां चल रही हैं उन सभी को रोकने के प्रयास करने पड़ेंगे|

आ  ज सामाजिक स्तर पर कई प्रकार की समस्याएं दिखाई देती   हैं| इनमें जातिगत भेदभाव जैसे विषयों को लेकर अनेक समस्याएं उभरी हैं| औद्योगीकरण के कारण नगरों का विस्तार तेजी से हो रहा है| इस कारण जातिगत समस्या वहां बहुत ज्यादा दिखाई नहीं देती| लेकिन यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो दीखता है कि अन्त:करण से यह समस्या वहां भी अभी तक पूरी तरह खत्म नहीं हुई है| स्वाभाविक रूप से आवागमन व संवाद के साधन और समान काम-धंधे होने के कारण स्पृश्यास्पृश्य का असर नगरीय जीवन में कम होता जा रहा है| लेकिन नगरीय जीवन की अपेक्षा ग्रामीण जीवन में इसकी गंभीरता और तीव्रता ज्यादा ध्यान में आती है| क्योंकि ग्रामीण स्तर पर बस्तियां, मोहल्ले व गलियां जाति आधारित ही बनती हैं| इसलिए सभी इस बात से परिचित रहते हैं कि कौन किस जाति का व्यक्ति है| इसलिए वहां जाति भेदों से ऊपर उठ कर एकरस समाज बनाना एक चुनौती है|

गांव में प्राय: तीन प्रकार की समस्याएं रहती हैं| पहली है- मंदिरों में प्रवेश को लेकर| दूसरी है- श्मशान भूमि का जातियों के आधार पर अलग-अलग होना| अक्सर देखने में आता है कि दलित या अस्पृश्य समाज के लिए अलग श्मशान घाट की व्यवस्था होती है और उस जाति के लोग सामान्य श्मशान भूमि में जाकर शवदाह नहीं कर सकते| यह एक बहुत बड़ा भेद है| तीसरी समस्या है- पेयजल की व्यवस्था| इसमें भी जातिगत आधार पर संघर्ष बड़े स्तर पर दिखाई देता है| यह ठीक है कि कुछ स्थानों पर नगरीय वातावरण बनने के कारण इस संदर्भ में थोड़ी कमी आई है, परन्तु वहां भी यह पूरी तरह समाप्त हो गई है ऐसा नहीं  माना जा सकता| वहां पर उस प्रकार की उपेक्षा भी होती है और सामान्यत: यह अहसास भी कराया जाता है कि आप किस जाति के हैं| इसीलिए इसे लेकर हमारे मन में कई प्रकार के प्रश्‍न उठते रहे हैं|

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जब से इस क्षेत्र में कार्य करना आरंभ किया तो इसे बड़ी गंभीरता से लिया है| हमारा अनुभव है कि यदि सम्मानजनक बातें वहां की जाएं तो यह दूरी कम हो सकती है| तथाकथित अस्पृश्य समाज के साथ सम्मान का व्यवहार करें और जो अपने आप को अस्पृश्य मानते हैं उनमें से भी हीनता का भाव समाप्त होना चाहिए| इसलिए दोनों ही ओर से प्रयास होने चाहिए|

तमिलनाडु में हमारा एक प्रयोग चला| ग्राम के मंदिरों में पूजा करने वाले प्रशिक्षित पुजारी नहीं मिलते| चूंकि पुजारी को सम्मान की नजर से देखा जाता है, इसलिए ग्राम में रहने वाले ऐसे तथाकथित अस्पृश्य समाज के २०,००० से अधिक बंधुओं को पुजारी का प्रशिक्षण देकर उन्हें मंदिरों में पुजारी बनाया गया| इसका एक परिणाम यह दिखाई दिया कि पूरा गांव उस पुजारी का सम्मान करता है| इस प्रक्रिया के बहुत अच्छे परिणाम दिखाई देते हैं| एक और दूसरा प्रयोग किया गया| ग्राम में धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन हम इस प्रकार करते हैं, ताकि सभी जाति-बिरादारी के लोग आ सकें| कई स्थानों पर सत्संग, सुन्दर कांड या रामायण पाठ के कार्यक्रम होते हैं, जिनमें सभी प्रकार के लोग एक साथ बैठते हैं|

एक और प्रयोग चला है| गांव में तथातकथित अस्पृश्य समाज अपने बच्चों की शिक्षा की तरफ ध्यान नहीं दे पाता| इसलिए उनकी शिक्षा की तरफ हमने ध्यान देना आरंभ किया है| हम सब लोग इसी कोशिश में रहते हैं और इसका परिणाम भी काफी अच्छा आया| इससे कार्यकर्ताओं का बच्चों और उनके अभिभावकों के बीच आना-जाना आरंभ हो जाता है|

इसी प्रकार संस्कृत संभाषण का प्रयोग भी कुछ प्रांतों में कुछ स्थानों पर हुआ| कर्नाटक ने विशेष रूप से इसे आरंभ किया है| इसका ऐसा अनुभव रहा है कि ग्रामीण क्षेत्र में यदि संस्कृत संभाषण के वर्ग चलाए जाते हैं तो इससे समरसता का भाव शीघ्र निर्माण होता है| यह एक बहुत ही प्रभावी साधन है| ऐसे संस्कृत संभाषण वर्गों में हम सभी को प्र्रवेश देते हैं| इस प्रकार के वर्ग प्राय: ऐसे स्थानों पर नहीं होते, जहां सामान्यत: तथाकथित अस्पृश्य समाज को प्रवेश की अनुमति नहीं होती| ऐसे वर्गों में जो प्रशिक्षक होता है वह भी सभी जाति-बिरादरियों को जोड़ने की बात करता है| हमारा अनुभव रहा है कि संस्कृत संभाषण वर्ग समरसता निर्माण का एक प्रभावी माध्यम बन सकते हैं|

इसका एक और अनुभव है कि जब कथित निचली जातियों के बच्चे भी संस्कृत बोलने लगते हैं तो इससे स्वाभाविक रूप से पूरे परिवार के मन में एक सम्मान का भाव जगता है|

समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग घुमंतू जातियों का है| वह अत्यंत पिछड़ा हुआ है| विषमता केवल जाति आधारित नहीं है| यह व्यवस्थाओं पर आधारित भी है| देश की औपचारिक शिक्षा व सामाजिक तौर-तरीकों से वे दूर हैं, लेकिन उनके पास कई प्रकार के जातिगत कौशल हैं जैसे हैंडीक्राफ्ट व एथलेट आदि| इसीको आधार बना कर हमने उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी आंरभ की| हम मानते हैं कि केवल औपचारिक शिक्षा का प्रसार ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनकी कुशलता को आधार बना कर उसमें निखार लाने की जरूरत है| हम उनके भिन्न-भिन्न प्रकार के कला-कौशल को बढ़ावा दे रहे हैं| इस नाते भी कुछ प्रयोग कुछ स्थानों पर आरंभ हुए हैं| ऐसा तो नहीं कह सकते कि यह काम बहुत बड़े स्तर पर हुआ है लेकिन कुछ घुमन्तू जनजातियों में यह प्रयोग आरंभ हुआ है| महाराष्ट्र की ४५ ऐसी घुमन्तू जनजातियां हैं जो समाज से कटी हुई थीं| उनके बीच जाकर जब हमने काम आरंभ किया तो इससे स्वावलम्बन और संस्कार दोनों के माध्यम से पूरे समाज को जोड़ने में सफलता मिली है|

समरसता का दूसरो पहलू यह है कि सम्पन्न लोग भी अपने से निम्न माने जाने वाले समाज के बारे में सोचें| इसलिए कई प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिसमें समाज के सब प्रकार के लोग एकसाथ एक ही कार्यक्रम में शामिल हों| ध्यान में आया है कि सभी प्रकार की घुमन्तू जातियां शिवजी की बड़ी भक्त हैं| चूंकि शिवरात्रि शिवजी का सबसे बड़ा दिन माना जाता है इसलिए उस दिन समाज के विभिन्न वर्गों के साथ बड़े स्तर पर ऐसे कार्यक्रम आयोजित होते हैं| इसके परिणाम बहुत ही अच्छे मिलते हैं| ऐसे कार्यक्रम गत दस वर्षों से लगातार भिन्न-भिन्न स्थानों पर आयोजित हो रहे हैं| इनमें काफी संख्या में लोग एक साथ आकर दिनभर साथ रहते हैं| इससे दूरियां कम होनी आरंभ होती हैं| ऐसे प्रयोग कई स्थानों पर चल रहे हैं|

समाज जागरण और समरसता का एक बहुत बड़ा माध्यम सामूहिक भोज भी बनता है| कई स्थानों पर कुछ धार्मिक पर्वों को सामने रख कर या फिर किसी दिन विशेष को सामने रख कर सामूहिक भोज का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है| यह सही है कि ऐसे कार्यक्रम गांव में करना आसान नहीं है, लेकिन यह एकसाथ आने का साधन बनता है| इसमें यदि थोड़ा और आगे जाकर सोचा जाए तो हो ही सकता है लेकिन व्यक्ति इसे अपने व्यक्तिगत जीवन में भी स्वीकार करें| इससे हमने एक आधार बनाया है|

समाज के एक वर्ग में व्याप्त हीनता के भाव को दूर करना भी हमारे लिए एक चुनौती है| आज का जो युवक पढ़-लिख कर बाहर आ गया वह तो इस हीनता के भाव से बाहर आ जाता है लेकिन वह भी पूरी हिम्मत नहीं जुटा पाता| इस प्रकार के कुछ प्रयोग हमें करने पडते हैं ताकि युवा वर्ग इन बातों को समझें| हो सकता है कि पुरानी पीढ़ी एकदम बदलने को मन से तैयार नहीं होगी, लेकिन युवकों में ऐसी मानसिकता तैयार हो सकती है|

महिलाओं का इसमें बहुत योगदाान हो सकता है| इसलिए मातृ-मंडलियों का गठन किया जाता है| विशेषत: जब हमने ग्रामीण क्षेत्र में स्वयं सहायता समूह गठित किए तो ये समूह खास तौर से तथाकथित दलित महिलाओं के बीच ही बने| लेकिन इनमें मार्गदर्शन करने का काम पढ़ी-लिखी महिलाओं ने ही किया| इसके कारण भी आवागमन की प्रक्रिया बहुत अच्छी तरह से चल पड़ी| हमारा मानना है कि जब महिलाओं के बीच इस प्रकार की प्रक्रिया बढ़ेगी तो एक बहुत बड़ी समस्या आसानी से हल हो सकती है| इसी में हम सभी कार्यकर्ताओं को ले जाने की बात कर रहे हैं|

गांव में कुछ विकास कार्यों के लिए शासन से मदद मिलती है| लेकिन हमारे कार्यकर्ता शासन आधारित योजनाएं नहीं बनाते| किसी कार्य में शासन का सहयोग मिल जाए तो लेने में कोई आपत्ति नहीं लेकिन हमें स्वावलंबी रहना चाहिए| इसलिए अपने बल पर ही योजनाएं बनाते हैं| सरकार की योजनाएं प्राय: सरपचं के सहयोग से ही लागू होती हैं| इसलिए हम सरपंच का सहयोग करते हैं| ग्राम विकास को लेकर सरपंच के साथ हम प्रतियोगिता नहीं करते| सब मिल कर काम करें| खास तौर से पिछड़ी जातियों के लिए जो योजनाएं आती हैं उनमें बढ़-चढ़कर सहयोग करना चाहिए| हमारा अनुभव है कि समरस समाज ही समृद्धि की ओर अग्रसर होता है|

कुछ कार्यकर्ता पूछते हैं कि ग्राम विकास का कार्य कब तक प्रभावी बन जाएगा? ग्राम विकास जैसे कार्य को समय सीमा में नहीं बांधा जा सकता| हमारा कार्य पूर्ण रूप से कार्यकर्ता आधारित है| शासन तो कह सकता है कि पांच साल में हम कर लेंगे लेकिन एक स्वयंसेवी संगठन के नाते हम इस प्रकार का कोई दावा नहीं कर सकते| हम इतना जरूर कहते हैं कि जब चलना आरंभ किया है तो सफलता प्राप्त होनी ही है और इसी गति से चलते रहेंगे तो सफलता जरूर मिलेगी| शासन को छोड़ कर जो भी प्रयोग आज लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर किए हैं उनमें सफलता प्राप्त करनें में प्राय: बीस से पच्चीस साल लगे हैं, तब जाकर कुछ परिवर्तन का दृश्य दिखाई देता है| व्यक्ति केन्द्रित या संस्थागत कार्य में समयबद्धता की बात की जा सकती है लेकिन जब हम सामूहिकता के आधार पर परिवर्तन करना चाहते हैं तो उसकी गति धीमी रहती है| गति भले ही कम हो लेकिन परिवर्तन का कार्य स्थायी बने, यह हमारा लक्ष्य होता है|

 

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