आजादी के 7 दशकों के बाद भी देश के तंत्र का भारतीयकरण करना शेष है। स्वदेशी, स्वभाषा और स्वाभिमान किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्रता के मुख्य स्तंभ होते हैं। जब तक इनके आधार पर हम अपना शासन तंत्र नहीं बदलते तब तक तो राज्य को सुराज्य में बदलना संभव नहीं होगा। जब तक भारत स्वदेश, स्वभाषा और स्वाभिमान के साथ उठकर विश्व के सामने खड़ा नहीं हो जाता, तब तक स्वतंत्रता प्राप्ति का अर्थ और लक्ष्य अधूरा ही रहेगा।
व्यक्ति, संस्था के जीवन में उन्होंने कौन-कौन सी मंजिल हासिल की है। उन्होंने क्या पाया, क्या खोया इस बात का लेखा जोखा उपस्थित करने का सुनहरा अवसर उस व्यक्ति या संस्था के जन्मदिवस अथवा स्थापना दिवस पर होता है। जन्मदिवस पर इसी प्रकार का लेखा-जोखा उपस्थित करना यह एक परंपराशी बनी हुई है। जिस प्रकार व्यक्ति के जीवन का लेखा-जोखा लिया जाता है , उसी प्रकार राष्ट्र के जीवन का भी लेखा-जोखा लिया जाता है। इस वर्ष स्वतंत्र भारत को 74 साल पूरे हो कर भारत देश स्वतंत्रता के 75 वे साल में प्रवेश कर रहा है। डेढ़ सौ साल संघर्ष करने के पश्चात भारत गुलामगिरी से मुक्त हुआ है। स्वतंत्रता के बाद वैभव संपन्नता आए इस प्रकार की मनीषा भारतीय जनता के मन में 1947 में निर्माण हुई थी। स्वतंत्रता के बाद 75 वर्षों के प्रवास में देश ने जो पाया है, खोया है उसका लेखा-जोखा उपस्थित करना यह एक उचित बात है। विकास की ओर मार्गक्रमण करते हुए भारत देश में बहुत कुछ बातें हुई है। विगत 8 सालों में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व मे भारत देश ने लिए हुए साहसी निर्णयों के कारण भारत एक बलशाली देश के रूप में दुनिया के सामने उपस्थित हो रहा है। साथ में सुनहरे भविष्य के संदर्भ में भारतीयों में आशा भी पल्लवित हुई है।
भारत जैसे पुरातन राष्ट्र के जीवन में 75 वर्षों की अवधि बहुत छोटा कालखंड होता है। लेकिन यह 75 वर्ष गुलामी से मुक्त होकर अपने आप भविष्य सुधार करने के हैं। अपने पैरों पर खड़े होकर आगे बढ़ने, दुनिया के साथ दौड़ लगाने के हैं। जब भारत देश स्वतंत्र हुआ तब बंटवारे के कारण 10 लाख से ज्यादा लोगों को प्राण गंवाने पड़े और 12 लाख से अधिक लोग बेघर हुए। लेकिन अपनी नियति से संघर्ष करने वाले इस भारत देश में अद्भुत जीवन संघर्ष दिखाते हुए फिर से अपना माथा विश्व मे ऊंचा करने का पराक्रम कर दिखाया है।
भारत के 75 साल का लेखा-जोखा इतिहास यानी अंधेरों – उजालों का सफर है। देश में हर दशक में तरक्की के साथ साथ ही तनाव और संघर्षों का दौर भी चलता रहा है। नए राज्यों के गठन को लेकर भाषाई विवाद, आर्थिक पाबंदियां, सांप्रदायिक झगड़ों, अपने पड़ोसियों से लड़ाईयों का सामना करना पड़ा है। इसी दरमियान देश का लोकतंत्र आपातकाल के भयानक दौर से भी गुजरा है। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और उसके अनचाहे तंत्र ने देश पर आतंकी जडे जमाने का प्रयास किया है। मुक्ति के नाम पर निर्दोषों की मारकाट और लूटपाट करने वाला लाल आतंक भी कई राज्यों में फैल गया है। राजनीतिक परिदृश्य पर कांग्रस जैसे एक ही राजनीतिक पक्ष के मजबूत शासन का धीरे-धीरे अंत हुआ है। दशक में चली आर्थिक उदारीकरण की लहर में पारम्पारिक व्यवसाय- उद्यम से मुक्त होकर दौड़ चले। लेकिन इस मुक्त विकास के साथ ग्राम व्यवस्था और स्वदेशी व्यवस्था लचर हो गई। करोना संक्रमण के जानलेवा संघर्ष से हमारी सारी व्यवस्था आज के वर्तमान मे प्रभावित हो गई है।
वास्तव में आजादी एक खूबसूरत अनूठा अहसास और विश्वास भी है। आजादी एक पड़ाव नहीं, सर्वांगीण विकास के ओर सतत यात्रा है। आजादी एक केवल भौतिक विकास ही नहीं मानसिक और बौद्धिक विकास भी है। और आजादी को केवल राजनीतिक आजादी तक सीमित नहीं किया जा सकता। आजादी इस प्रकार का एक पैकेज है, जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक ,बौद्धिक आजादी के सुनहरे पंख लगे हैं। जिसकी शक्ति और सामर्थ्य से ही राष्ट्र विश्व में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकता है।आज उसी दौर से भारत गुजर रहा है, जहां सभी को इन पंखों को मजबूत करने की चाह है। ताकि अधिकतम आजादी को हम सभी प्राप्त कर सके। लेकिन जब हम आजादी की बात करते हैं, तो उसमें केवल अधिकार ही नहीं जिम्मेदारी भी शामिल होती है। बिना कर्तव्य के अधिकार का कोई अर्थ नहीं होता। अनुशासन के बिना स्वतंत्रता अराजक हो जाती है।
75 वें स्वतंत्रता दिवस पर हमारे सामने यक्ष प्रश्न है कि क्या इन 75 वर्षों में आजादी का लाभ आखिरी पायदान पर खड़े आखरी व्यक्ति तक हम पहुंचा पाए हैं ? तमाम दावे प्रति दावे के बावजूद शिक्षा- स्वास्थ्य ,गरीबी- बेरोजगारी में हमारा स्थान किस क्रम में है? जब तक हम अपने देश को गरीबी, भुखमरी, बेकारी, सामाजिक, आर्थिक, अन्याय, असमानता, कुपोषण, धार्मिक कट्टरता, तुष्टिकरण, अलगाववादी जैसे अविकशीत कृतियों से पूरी तरह दूर न सही, पर दो तिहाई पहुचने मे भी सफल नहीं होते तो हमारी आज़ादी पर प्रश्नचिंह रहेगा।
आजादी निश्चित करना केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं हो सकती। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम सब को भी अपनी भूमिका के बारे में पूर्वाग्रहों से हटकर एक आजाद सोच के साथ चिंतन करना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण , प्रदूषण तथा नारी सम्मान एवं दहेज प्रथा के विरोध में हमारा खुद का व्यवहार कितना विरोधाभासी है।
आजादी के 7 दशकों के बाद भी देश के तंत्र का भारतीयकरण करना शेष है। स्वदेशी, स्वभाषा और स्वाभिमान किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्रता के मुख्य स्तंभ होते हैं। जब तक इनके आधार पर हम अपना शासन तंत्र नहीं बदलते तब तक तो राज्य को सुराज्य में बदलना संभव नहीं होगा। जब तक भारत स्वदेश, स्वभाषा और स्वाभिमान के साथ उठकर विश्व के सामने खड़ा नहीं हो जाता, तब तक स्वतंत्रता प्राप्ति का अर्थ और लक्ष्य अधूरा ही रहेगा। भारत में उभरते मिडिल क्लास समूह को अपनी चीजें और सेवाएं बेचने का माध्यम विश्व की ताकतवर शक्तियां समझती रहेगी। भारत की जनसंख्या पर आधारित मार्केट इकोनामी तय करेगा। इस बात को हमें कदापि स्वीकार नहीं करना है। आने वाले समय में विश्व की इकोनामी भारत पर टिकने वाली है, ऐसे समय में भारत ने अपनी समर्थता को पहचानना अत्यंत आवश्यक है।
भारत का राष्ट्रवाद नक्सली राष्ट्रवाद से भिन्न है। भारत के राष्ट्रवाद का उद्देश्य दूसरे देशों पर आक्रमण करना, लूटपाट करना और धर्मांतरण से अपना प्रभाव बढ़ाना इस प्रकार का कभी नहीं रहा है। हमारा राष्ट्रवाद साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद से भी बहुत दूर रहा है। जो अपनी नीतियों से दूसरे देशों को स्वयं पर निर्भर बनाकर उनका आर्थिक शोषण करते हैं ,ऐसे उद्देश्यों से भी भारत अब तक दूर रहा है। अपना भारत देश पुरातन काल से भारत नाम से जाना जाता रहा है। यह राष्ट्र सबसे पुराना और फिर भी नूतन है। पुरातन मूल्यों का रक्षण करते हुए समय के अनुसार चलना इसे आता है। अब तक विश्व की जितनी भी पुरातन सभ्यता, संस्कृति आती थी, वह सारी मध्यकाल की इस्लामिक आंधी में ढह गई है। केवल भारतीय संस्कृति ही इन आक्रमणों का सामना करते हुए आज भी अपने स्वरूप को बनाए हुए हैं।
भारत में रहने वाले मार्क्सवादी विचारों से जुडे लोग राजनीतिक व्यक्तियों से लेकर अपने लेखन तक इस राष्ट्र को अपमानित करने का सतत प्रयास करते हैं। स्वतंत्रता के उपरांत उन्होंने भारत को राष्ट्र मानने से इनकार कर दिया है। और भारत में हिंसक नक्सलवाद गढ़ा गया है। ऐसे को राष्ट्रभक्त कहा जा सकता है? आधुनिक प्रयोग दृष्टि से राष्ट्रवाद शब्द में वह संपूर्ण भाव निहित है, जिससे राष्ट्र की वैचारिक ,भाषिक , आध्यात्मिक परंपरा का संवेदन – आवेदन मूर्तिमंत होता है। यह भारतीय राष्ट्रवाद है जिसमें भूमि को माता का दर्जा दिया जाता है। लोकतांत्रिक पद्धति की शिक्षा के माध्यम से राष्ट्र को महान बनाने का संस्कार भारतीय राष्ट्रवाद में निहित है।इस बात को हमे भलीभांति समजणा है और देश के नागरिकों को भी समजाना है। वह हम कर रहे है?
जब भी विद्यार्थियों का अंतिम वर्ष का शैक्षणिक निकाल खुलता है, उस समय हमारे भारत में ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों के करियर को लेकर बहुतही सतर्क होते हैं। वे चाहते हैं कि अपने बच्चे अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी दुनिया खुद बनाएं। सुनने में यह अच्छा लगता है। लेकिन इसके पीछे दरअसल एक ऐसी सोच भी छुपी हुई है, जो हमें बेहद संकीर्ण दायरे में बांध रही है। वह अपने सिर्फ अपने बारे में सोचने का होकर रह जाती है। जिसका देश और दुनिया से कोई मतलब नहीं होता। कभी कबार ऐसे अभिभावक भी मिलते हैं अपने बड़े होते बच्चों के उज्जवल भविष्य की फिक्र करते नजर आए। किसी का बेटा या बेटी घर से बाहर निकल कर देश के बारे में कुछ सोचना या करना चाहता है , तो अभिभावकों को पसीने आने लगते हैं। ज्यादातर अभिभावक चाहते हैं कि देश निर्माण का काम कोई और करता रहे, लेकिन उनका लाडला या उनकी लाडली अपना भविष्य बनाती रहे। यह ठीक नहीं है। दुनिया के अनेक देशों में ऐसी व्यवस्था है कि नौजवानों को अपने जीवन के कम से कम 2 वर्ष देश की सेवा के लिए देने होते हैं। उनसे इस दौरान कोई भी काम लिया जाता है और वे लोग ऐसा खुशी से करते हैं। आजादी के बाद हमारे देश में एक बड़ा परिवर्तन यह आया है कि हम अपने में ही सिमट गये है। देश के बारे में अगर हमारी युवा पीढ़ी कुछ करने के इरादे आगे आना चाहती है, तो उसे अपने स्वार्थ के लिए रोकना कहां तक ठीक है?
ऊपर ऊपर हम ’जय हिंद’ , ’भारत माता की जय’ बोल रहे हैं। लेकिन हमारे दिल से निकलती आवाज कहती है कि.. मेरी मर्जी , मैं लाइन तोड़ो …मेरी मर्जी , भ्रष्टाचार से आगे बढ़ू… मेरी मर्जी, मैं रिश्वत दे दूं या रिश्वत ले लूँगा … मेरी मर्जी, मैं हर कानून को ठेंगा दिखाऊ…. मेरी मर्जी। हम सरकार चुनने के लिए चुनाव में हिस्सा लेते हैं और उसके बाद सारी जिम्मेदारियां सरकार पर छोड़ कर हम भूल जाते हैं कि हम एक जिम्मेदार नागरिक हैं। हम सरकार से अपेक्षा रखते हैं कि वह हमारे लिए सब कुछ करें जबकि हमारा योगदान पूरी तरह से नेगेटिव होता है। हम सरकार से सफाई की उम्मीद रखते हैं, लेकिन हम चारों तरफ कुड़ा- कचरा फेंकते रहेंगे। हम चाहते हैं कि रेलवे साफ-सुथरी बाथरूम से उपलब्ध होनी चाहिए लेकिन हम यह नहीं सीखना चाहते कि बाथरूम का सही इस्तेमाल कैसे किया जाए ? मेट्रो जैसी आधुनिक सुविधा हमे चाहिए लेकिन इस में चढ़ने के लिए कतार में खड़े होने का धैर्य कोई नहीं दिखाता। हर कोई एक दूसरे को धकेल कर आगे निकलने के चक्कर में रहता है। खुले में पेशाब करना, थूकना, नाक छिड़कना , फलों के छीलके, गुटके का पाउच कहीं भी फेंक देना यह तो आम बात हो गई है। हम कहते हैं कि हमें पूरे सिस्टम को बदलना होगा, लेकिन मैं अपने बेटे के लिए दहेज मांगने का हक नही छोडूंगा। जब सिस्टम में सकारात्मक योगदान करने की बात आती है तो हम अपने परिवार के साथ किसी सुरक्षित आवरण में छुप जाते हैं। और किसी ऐसे मिस्टर क्लीन के आने का इंतजार करते हैं जो एक झटके में हमारे लिए चमत्कार कर दे। हमें अपने आप से यह भी पूछना चाहिए कि हम भारत की स्वतंत्राता को बनाये रखने के लिए क्या कर सकते हैं?
आजादी के आंदोलन के दौरान ब्रिटिश सत्ता से असहयोग और नियम तोड़ने को एक हथियार की तरह नेताओं ने इस्तेमाल किया। आजादी हासिल करने के बाद भी लोगों में इसकी स्मृति समाप्त नहीं हुई है? आज प्रजातांत्रिक दिवस पर भी कुछ आंदोलनकारी लाल किले के प्राचीर पर चढ़कर झंडे और देश को अपमानित किया हैं। सरकार को अपना शत्रु और खलनायक की तरह देखने का भाव रखते हैं। नियमों का हो रहा उल्लंघन कहीं न कहीं इसी भाव की अभिव्यक्ति है। देश में जिस किसी को अपनी कोई मांग मंगवानी है। वह सबसे पहले सड़क पर जाम कर आम नागरिकों का जीवन कितना मुश्किल कर देता है। इसके बाद वह सार्वजनिक संपत्ति को अपना निशाना बनाता है। ऐसे अराष्ट्रीय विचारों से जुड़े संगठन और व्यक्तित्व को हम किस प्रकार से उनकी जगह दिखा सकते हैं? इस बारे में भी सोचना अत्यंत आवश्यक है, क्या हम सोच रहे हैं?
राजनीति के अतिरिक्त देश के विभिन्न समस्याओं की जड़ सात दशकों से चालती आ रही शिक्षा प्रणाली भी है। जो डिग्रीया तो देती है लेकिन रोजगार, व्यवहार नहीं देती। हाथ में मोबाइल लिए दिन भर उसमें आंखें गड़ाए रहने वाले सूट बूट वाले युवा तो देती है, पर उन्हे अपने माता पिता , अपने परिवार के लिए श्रम करने की मानसिकता नहीं देती। यह अपना दुर्भाग्य नहीं तो क्या है की आजादी के 75 वर्ष बाद भी देश के प्रधानमंत्री को स्वच्छता अभियान का नारा देना पड़ता है। किसी देश की सबसे बड़ी पूंजी वहां की युवा पीढ़ी होती है। हमारी लगभग आधी जनसंख्या युवा है लेकिन दुखद पहलू यह है? कि वह विदेशी संस्कृति, विदेशी भाषा, विदेशी जीवन शैली का अंधानुकरण कर रहे हैं। आखिर उन्हें कौन समझाएगा की आजादी का अर्थ अनुशासनहीनता नहीं सामंजस्य है।
यह पहली बार है जब भारत का कद आसमान छूने को मचल रहा है। ऐसे में दो ही बातें अब हो सकती, या तो हमे अपने बढ़ते कदम का एहसास हो और हम उसके हिसाब से अपने आप में परिवर्तन लाए। आज वर्तमान में विभिन्न मुद्दों पर हमारे यहां विभिन्न क्षेत्रों में जों हंगामा मचा रहा होता है , यह सब आने वाले कल के सामने फिजूल है। स्वतंत्रता कोई सिर खपाने या मजा लेने की चीज नहीं है। डॉक्टर अब्दुल कलाम का शुक्रिया हमें करना चाहिए कि उन्होंने हमें भविष्य पर नजर रखने की सलाह दी थी।और विजन 2020 पर सोचने को प्रेरित किया था। वरना इतनी दूर तक देखने- सोचने का चालाना हमारे यहां था ही नहीं। दुनिया भर में भारत को लेकर लॉन्ग टर्म प्रोजेक्शन पेश किये जा रहा है। रिसर्च हो रही है। वही बीते 6 दसक मे कोन्ग्रेस जैसे पॉलीटिकल पार्टी के पास 2030 का विजन क्यों नहीं था। 2030 तक भारत की इकोनामी की ताकत क्या होगी? भारत की आबादी उस समय किस तरह जी रही होगी? रोजगार कहां होंगे और उस तरक्की के दर्मियांंन किस तरह भारत दुनिया में लीडरशिप के उस रोल को निभाएगा ? नरेद्र मोदी सरकार ने वह वीजन देश को दिया है। इकानामिक कोई ऐसी चीज नहीं है कि अकेले में चलती रहे। अगर चलेगी भी तो भटक कर करप्शन, मुनाफाखोरी और घोटाले में फस जाएगी। उसे सही राह पर रखने और उनके तक पहुंचाने के लिए राजनैतिक विजन की जरूरत होती है। जो अब पिछले 8 सालों से हमारे समज मे आ रही हैं। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने लक्ष्य देने के कई बरस बाद भी कोन्ग्रेस की राज मे हम यह तय कर नहीं पाए थे कि हमें इकोनामी का कौन सा मॉडल अपनाना है।
आज के युवाओं और आने वाली पीढ़ी के सामने एक भयानक संकट खड़ा होता जा रहा है। वह संकट है संपन्नता का। हमारे पास पैसे होंगे, खर्च करने की भूख होंगी लेकिन संक्रती से दूर जाने के कारण भविष्य में उस संपन्नता को भी कायम नहीं कर रख पाएंगे। क्योंकि विश्व की बडी- बडी शक्तियां हमें ललकार रहे होंगे। सच्चाई यह है कि भारत को विश्व में ऊंचाई पर जाने से अब कोई नहीं रोक सकता। अपना देश दुनिया में वह मुकाम हासिल करने जा रहा है जो अब तक उसे कभी नहीं मिला। लेकिन क्या उंचाई पर हो जाना, एक कतार में जापान या अमेरिका की तरह समान जगह ले लेना भारत को सचमुच विकशित और महान देश बना देगा ? भारत तब ऐसा देश बन जाएगा जिससे दुनिया मिसाल लेती होगी ? क्या भारत इस मायने में दुनिया का लीडर बन पाएगा? आने वाले 20 सालों से जो हम कर रहे थे और आने वाले 10 सालों में जो हम करने वाले हैं, क्या वह भारत के इकोनामिक के साथ सर्व क्षेत्रों में
तरक्की के साल होंगे? लेकिन हमें यह सब करते हुए तरक्की और उस महानता के बीच का फर्क समझना चाहिए। जिससे भारत जैसा देश दुनिया का सरताज बन सकता है। महानता का मतलब नैतिकता की कोई बहुत बड़ी ऊंचाई से नहीं है। रोजमर्रा की उन बातों से है जो किसी दूसरे देशों अलग दिखाती है। आजादी के मायने क्या है ? यह प्रश्न आजादी के 75 वर्ष बाद पूछा जाना चाहिए या नहीं ? मन कहता है जब आजादी का जशन मनाने का अवसर हो तों ऐसे सवाल खड़े करना उचित नहीं है। लेकिन बुद्धि का तर्क है आजादी की बात करने का इससे बेहतर अवसर नहीं सकता। हम अपनी खामियों को आसानी से नहीं देखते और उसी खामियों के साथ जीना हम अपनी शान समझते हैं। हममें कुछ खास बात है , हमारी हो रही तरक्की और दौलत के साथ यह अकड़ दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। वही लोग सबसे ज्यादा बेताब और आक्रमक है। जिनके पास तमाम सहूलियत है। हम्हारा यह रवय्या शहरों को असुरक्षित बना रहा है। ग्रामो को तोड रहा है। स्वामी विवेकानंद जी ने सामाजिक परिवर्तन के लिए युवाओं का आह्वान किया था। उस समय उन्होने कहा था कि इसके लिए अत्यधिक ऊर्जा और धैर्य की जरूरत होती है। हर युग के युवाओं में न्याय और लाभ की कामना होती है। आजाद भारत को भले ही 75 साल पूरे हो रहे हैं लेकिन इसकी आधी आबादी युवाओं की है जो कथित वादों सिद्धांतों में यकीन नहीं रखती। जो नई प्रौद्योगिकी दीवानी है। और दुनिया भर के सुनहरे मौके की तलाश में है। अपने उधम में विकास का विश्वास रखने वाली यह पीढ़ी देश भक्ति का दिखावा नहीं करती, लेकिन उतनी ही देशभक्त है जितनी आजादी की लड़ाई में लड़ने वाली पीढ़ी थी। यह पीढ़ी जीवन के हर क्षेत्र में नए भारत की कहानी लिख रही है। भारत की युवा ऊर्जा आज उंची उछाले भर रही है जिसे सही गति दिशा और कल्पनाशील नेतृत्व की जरूरत है। भारत का यह सफर यकीनन भविष्य की दृष्टि में मददगार होगा।