भारतीय दर्शन, भारत की राष्ट्र की अवधारणा अपने आप में समृद्ध और सम्पूर्ण है। इस प्रकार यह पुस्तक किसी भी राष्ट्र का भारतीय दर्शन समझाने वाले चिन्तक या जिज्ञासु के पुस्तकालय के लिए अत्यावश्यक है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि यह पुस्तक सभी विभूषित विद्वानों और तथाकथित विद्वानों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा भेंट की जानी चाहिए, ताकि उनकी आंखों और मस्तिष्क में जमी धूल कुछ तो साफ़ हो।
यह एक पुस्तक नहीं, भारत के राष्ट्रवाद का बीज मंत्र है। यह पहली पुस्तक होगी जो कि राष्ट्रत्व की परिभाषा और दर्शन को विशुद्ध भारतीय ग्रंथों के सन्दर्भ से बताती है। भारत का हज़ारों वर्ष पुराना राष्ट्रत्व स्वयंसिद्ध है, किसी नवयुग में जन्मी पाश्चात्य परिभाषा का मोहताज नहीं है, इसकी इससे स्पष्ट व्याख्या आज तक किसी विचारक ने नहीं की है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। भारत के राष्ट्रत्व की जड़ें भारत के हज़ारों साल के इतिहास में ही हैं।
इस पुस्तक के लेखक माननीय रंगा हरि जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख विचारकों की प्रथम पंक्ति में स्थान रखते हैं। मेरा सौभाग्य है कि जब हरि जी ने यह विषय उज्जैन और हैदराबाद में रखा तब मैं उन कार्यक्रमों में उपस्थित था। यह पुस्तक उसी एक घंटे के विषय प्रवेश का वृहद् रूप है। इस विषय प्रवाह को लेखक ने 19 अध्यायों में बांटा है और उन्हें तरंग कहा है। राष्ट्र, राष्ट्रत्व, राष्ट्रीय और राष्ट्रीयता और इस विषय से सम्बंधित लगभग प्रत्येक शब्द के मूल (etymology) और मूलभूत विचारों को बहुत ही गहराई से रखा गया है।
माननीय हरि जी की विशेषता है कि क्लिष्ट विषय को भी वे बड़े सरल अंदाज में रख सकते हैं। परन्तु, यह कहना होगा कि इस पुस्तक के प्रारम्भिक अध्याय, उनके प्राचीन सन्दर्भ और उनकी व्याख्या समझना पाठक को कुछ कठिन लगेगा। हमारी संस्कृत और वेद इत्यादि के बारे में कम जानकारी के कारण कम से कम प्रारंभिक 9 तरंगें या अध्याय बड़े धैर्य से और एक-एक करके पढ़ने होंगे वरना आप उनके मर्म को नहीं समझ पाएंगे। इस ज्ञान गंगा में उतरने का आनंद भी तभी आएगा जब आप इसमें एक-एक डुबकी धैर्य से लगाएं।
वेद काल से विषय प्रवेश होता है। पंडित सातवलेकर जी महाराज (जिनको यह पुस्तक समर्पित की गई है) और कई स्रोतों को सन्दर्भ सहित और आपको समाज, समिति, राष्ट्र के मूल, उनकी अलग-अलग युगों में बदलती अवधारणा और राष्ट्र का विकास इन सबको हर दिशा से समझाने और उसे भारत के इतिहास से जोड़ने, और उसे आधुनिक भारत तक लेकर आना – ऐसा एक लगभग 6000 वर्षों का लम्बा प्रवास लेखक पाठक को सहज करवाते हैं। हरि जी अथर्व वेद को उद्धृत करते हैं कि इस भूमि भाग में रहने वाले मानव ने पहले अपने आप को पृथ्वी का पुत्र और उसे अपनी माता माना (माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:) आगे वह यह मानते हैं कि सारे मानव, पशु-पक्षी सभी का यह मां लालन-पालन करती है। इस प्रकार उसने इस भूमि मां का सम्मान और प्रेम दिया। इस रिश्ते को देखते हुए, भारतीय देशप्रेम को अंग्रेज़ी में patriotism न कहते हुएmatriotism कहना ठीक होगा, ऐसा वे मानते हैं। आगे चल कर दृष्टाओं ने यह भी कहा कि पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वाले और रीति-रिवाज़ वाले सहवासी हैं जिन्हें पृथ्वी, माता के समान सम्मान, ममता और प्रेम से पालती है। भारत राष्ट्र के मूल को यदि समझना है, तो इस पुस्तक से उत्तम कोई स्त्रोत हो नहीं सकता। वास्तव में इस पुस्तक के लेखक इतने प्रगल्भ हैं कि इसे लेख को मैं पुस्तक समीक्षा कहने की धृष्टता नहीं कर सकता था, इसलिए इसे पुस्तक परिचय कहा है। इस पुस्तक में हिंदुत्व के सामाजिक आयाम, राष्ट्र के लिए चुनौतियां और हिंदुत्व के समग्र चिंतन के बारे में क्रमशः माननीय मनमोहन वैद्य, श्री मिलिंद ओक एवं प्राचार्य डॉ. भगवती प्रकाश के अत्यंत प्रभावी आलेख भी हैं। आपको आश्चर्य होगा कि रंगा हरि जी ने भारत राष्ट्र, राष्ट्रत्व इत्यादि की व्याख्या, इतिहास और दर्शन को प्रस्तुत करने के लिए किसी भी पाश्चात्य ग्रन्थ के सन्दर्भ के बिना सारे विचार रखे हैं। इससे यह और भी स्पष्ट होता है कि भारतीय दर्शन, भारत की राष्ट्र की अवधारणा अपने आप में समृद्ध और सम्पूर्ण है। इस प्रकार यह पुस्तक किसी भी राष्ट्र का भारतीय दर्शन समझाने वाले चिन्तक या जिज्ञासु के पुस्तकालय के लिए अत्यावश्यक है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि यह पुस्तक सभी विभूषित विद्वानों और तथाकथित विद्वानों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा भेंट की जानी चाहिए, ताकि उनकी आंखों और मस्तिष्क में जमी धूल कुछ तो साफ़ हो।