भगवान् गणपति जी के दो स्वरूप हैं । एक आध्यात्मिक जो सूक्ष्म है, अदृश्य है और दूसरा सांसारिक जो स्थूल है और दृश्यमान । हमारे शरीर में कुल पाँच गण हैं, प्रत्येक गण में पांच सूत्र । इस प्रकार ये कुल 25 गणसूत्र कहलाते हैं जिनसे हम काम करते हैं, सोचते हैं, सोते हैं और जागते हैं । ये गण जिनमें पहला पंच महाभूत जिनसे शरीर बनता है, पांच कर्मेन्द्रियाँ, जिनसे हम कर्म करते हैं, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, जिनसे हम संसार को समझने का प्रयास करते हैं, पंच प्राण ये हमारी चेतना के विभिन्न आयाम हैं और पाँच मनोभाव । यह मन की विभिन्न अवस्था है। इन सब गणसूत्र में संवाहित केन्द्रीभूत शक्ति को गणेश कहा गया है ।
गणपति जी वैदिक देवता हैं । ऋग्वेद की विभिन्न ऋचाओं में इनका उल्लेख हैं । गणपति जी के इस स्वरुप की साधना के बिना कोई साधक सफल न होता । लेकिन गणपति जी का दूसरा स्वरूप जो संसार के लिये आराध्य हैं जिस स्वरूप का पूजन होता है, आराधाना होती है वह स्वरूप वह है जिसका वर्णन पुराणों में है और जिसकी मूर्तियाँ स्थापित हैं । यह स्वरूप संसार के लिये है । गणपति जी के इस स्वरूप में ही व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण का संदेश छिपा है । इसलिये संसार को और गृहस्थ को उसी स्वरूप की साधना का निर्देश सद्गुरू देते हैं । इस स्वरूप का पूजन अर्चन करके, उनके संदेश को समझा जा सकता है और अपने जन्म जीवन को सार्थक किया जा सकता है ।
व्यक्ति निर्माण
किसी भी राष्ट्र, परिवार और समाज का आधार व्यक्ति ही होता है इसलिये भारत में व्यक्ति निर्माण पर सर्वाधिक जोर दिया गया है । हम गणपति जी का स्वरूप देखें, उनका आसन या सवारी मूषक है, उनके चतुर्भुज स्वरूप में एक हाथ में शंख, दूसरे में गदा, तीसरे हाथ में मोदक हैं, चौथा हस्त आशीर्वाद की मुद्रा में होता है । वे लंबोदर हैं, शूर्पकर्णा हैं, उनकी आँखे छोटी हैं, गणपति जी की नाक सूंड के समान है, माथा चौड़ा है । इन प्रतीकों के देखियेे ये सभी प्रतीक व्यक्ति को सक्षम और सफल बनाने का संदेश देते हैं । इतना सफल कि वह असाधारण बन जाये, नेतृत्व कर सके, नायक बन सके ।
मूषक यनि चूहा अपनी धुन का पक्का होता है । वह अपने लक्ष्य को पाने के लिए प्राणपण संघर्ष करता है । कितनी भी बाधायें आ जायें वह लक्ष्य नहीं बदलता । यह उसकी लगन और क्षमता है कि वह पहाड़ो में छेद करके भी अपना मार्ग बना लेता है । गणपति जी अपनी सवारी से व्यक्ति को और समाज को यह संदेश दे रहे हैं कि समस्याओं और बाधाओं से घबराना नहीं, रुकना नहीं, बढ़ते जाना है । यदि आपके भीतर संकल्प शक्ति है तो पर्वत जैसी समस्या भी आपका मार्ग नहीं रोक सकती । मंजिल मिलना तय है । प्रवाह के अनुकूल तो मृत देह बी यात्रा कर लेती है । जिवन्त वह है जो विषम और विपरीत परिस्थितियों में अपना मार्ग बनाता है । यह सीख मूषक प्रवृत्ति से मिलती है जो गणपति जी का वाहन है ।
उनके स्वरूप में हमें शंख के दर्शन होते हैं । शंख अपनी ऐसी ध्वनि के लिये प्रख्यात है जो व्यक्ति की एक विशिष्ट पहचान बनाता है । मसाभारत के युद्ध से समझें कि प्रत्येक शंख की अपनी धवनि थी जिससे योद्धा की पहचान होती थी । शंख यनि व्यक्ति को अपने अपने स्वाभिमान और अस्तित्व का पृथक आभास करना चाहिए । जो व्यक्तित्व की भी हो सकती है और धाक साख की भी । अस्तित्व का यह आभास, यह पहचान ही समाज में व्यक्ति का सम्मान सुनिश्चित करती है । और इस स्थान के अनुरूप ही व्यक्ति के मुख से निकली बात का महत्व निर्धारित होता है शंख ऐसे ही व्यक्तित्व निर्माण का प्रतीक है ।
गणपति जी के दूसरे हाथ में गदा है । यह सशक्त और सशस्त्र रहने का संकेत है । स्वयं की रक्षा, समाज की रक्षा और राष्ट्र रक्षा के लिये वही व्यक्ति सफल हो पायेगा जो सशक्त होगा और सशस्त्र होगा । स्वयं की, परिवार की, समाज की और राष्ट्र की रक्षा ही नहीं परंपरा संस्कृति और पूर्वजों की विरासत सहेजने के लिये भी शक्ति चाहिए और कभी कभी शस्त्र भी । यदि दुष्ट अतिक्रमण करते हैं, आक्रमण करते हैं, इनमें चोर डाकू हिंसक पशु आदि कोई भी हो सकता है, समाज या देश पर हमले भी हो सकते हैं । इन सबसे रक्षा शस्त्र से होगी, शक्ति से होगी । इसलिये गणपति जी के दूसरे हाथ में गदा है । वे हमें सशक्त और सशस्त्र होने का संकेत दे रहे हैं ।
गणपति जी के तीसरे हाथ में मोदक अर्थात मिष्ठान्न है । इसका संकेत व्यक्ति के शिष्ठ और मिष्ठ व्यवहार से ।
मोदक पहली दृष्टि में किसी भी व्यक्ति को आकर्षित करता है फिर उसका स्वाद भी मुग्ध करता है । मोदक के माध्यम से गणपति जी यह संकेत है कि एक सफल व्यक्ति वही होगा जिसका व्यक्तित्व सौम्य हो और व्यवहार मधुर हो । यदि कोई व्यक्ति सक्षम है, सशक्त है, सशस्त्र है तो उसे अहंकार आता है । यह अहंकार उसे लोगों से दूर करता है एकाकी बनाता है । इसलिये कहा गया कि जिस तरह फलदार वृक्ष झुक जाते हैं उसी प्रकार उपलब्धियां मिलने के बाद व्यक्ति को अहंकार न हो, वह सबके लिये सहज हो मधुर बना रहे । उसका व्यवहार ऐसा हो मानों लड्डू बाँट रहा हो । गणपति जी के हाथ के मोदक यही संदेश दे रहे हैं ।उनका चौथा हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में है । गणपति जी समाज को वरदान दे रहे, आशीर्वाद दे रहे । गणपति जी की यह मुद्रा संदेश दे रही है कि व्यक्ति सदैव समाज को परिवार केलिये दाता के रूप में रहे, शोषक न बने, । इसीलिये भारतीय दर्शन में मनुष्य को प्रकृति का सेवक माना है, स्वामी नहीं । आशीर्वाद की मुद्रा सेवा और परोपकार का भाव है, दाता का भाव है ।
अब गणपति जी की आँखो को देखिये । उनकी आँखे छोटी हैं । आँखो का छोटा होना एकाग्र दृष्टि का प्रतीक होता है । जब भी हम किसी वस्तु या व्यक्ति को ध्यान से देखते हैं, एकाग्रता से देखते हैं तो हमारी आँखे सिकुड़ती हैं, छोटी होती हैं । आँखो को फैलाकर हम किसी अस्तित्व, व्यक्ति या वस्तु का बारिक विश्लेषण नहीं कर सकते । इसलिये गणपति जी की आँखो से संकेत है कि हम जिस से मिल रहे हैं जो नयी परिस्थिति, वस्तु या व्यक्ति हमारे सामने आ रही है उसे गौर से देखिये और देखकर विश्लेषण कीजिए । गौर से देखने पर ही यह बात समझ आयेगी कि जो वस्तु हमारे सामने आई है उसका वास्तविक स्वरूप क्या है । हमारे सामने व्यक्ति जो बात कह रहा है वह कितनी सच है या कुटिलता से भरी हुई है । यदि पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी की क्षमा याचना करती हुई भाव मुद्रा को ध्यान से देखते तो भारत का इतिहास अलग होता चूंकि जब व्यक्ति बनावटी बातें करता है तब शरीर के अंग उसका साथ नहीं देते । जिव्हा जो कह रही है उसका मन से तालमेल नहीं होता, यह भंगिमा शरीर से झलकती है । यह तथ्य हम तभी समझ पायेंगे जब हम कहने वाले व्यक्ति को ध्यान से देखते हैं । गणपति जी की लघु आँखे इसी समझ विकास का संदेश दे रहीं है ।
गणपति जी के कान बड़े हैं, वे शूर्पकर्णा हैं यनि उनके कान बड़े तो हैं लेकिन उनका आकार सूपे के समान है । इसके दो संकेत है एक कानों का बड़ा होना यह संकेत दे रहा है कि अपने सुनने की क्षमता बढाइये । सबकी सुनिये और खूब सुनिये, ध्यान से सुनिये । । आप जितना सुनेंगे उतने सक्षम बनेंगे । अब सूर्पाकार को देखिये । कान का सूर्पाकार होने का अर्थ है कि कानो से सबकी सुनिये तो अवश्य पर सारी बातें मस्तिष्क में न बिठाइये । जिस तरह सूपा हल्के दानों को बाहर फेक देता है और भारी दानों को सहेजता है उसी प्रकार व्यक्ति को चाहिये कि वह सुने तो सबकी लेकिन अर्थहीन कचरा बातों को वहीं छोड़ कर चल दे । केवल काम की बातों को ही मस्तिष्क में रखे । गणपति जी के बड़े और सूपे के समान कानों का यही संदेश है ।
गणपति जी लंबोदर हैं । अर्थात उनका पेट एक सामान्य व्यक्ति से बहुत बड़ा है । लंबोदर होने का आशय यह है कि जो बातें सुनी जा रहीं हैं उन्हे गुप्त रखना अपने पेट में रखने की क्षमता भी होनी चाहिए । जो लोग सब बातों को सुनकर केवल अपने तक रखते हैं वही समाज में सम्मानीय होते हैं । सुनी हुईं बातों को इधर उधर कहने वाले लोग सम्मानित नहीं होते, उपहास का पात्र बनते हैं । न वे सक्षम नेतृत्व ही कर पाते, और न समाज़ मे सम्मान जनक स्तान बना पाते हैं । यह नेतृत्व भले परिवार का हो, समाज का हो अथवा राष्ट्र का । अतएव व्यक्ति को अपनी श्रवण क्षमता बढ़ाने के साथ उन्हे पचाने की क्षमता भी बढ़ाना चाहिए गणपति जी का लंबोदर यही प्रतीक है । गणपति जी की नाक लंबी है । वे हस्थसुँड कहलाते हैं यनि हाथी की सूँड के समान, यह घ्रांण शक्ति का प्रतीक है । जो दूर से सूंघ ले, समझले वही व्यक्ति सफल होगा सफल नेतृत्व कर सकेगा । यदि मध्यकालीन भारतीय समाज बाहर हमले और लूट की तैयारी को सूंघ समझ लेता तो संभवतया भारत को उतना कष्ट न होता जितना झेला गया ।
परिवार और समाज निर्माण
गणपति जी का परिवार देखिये । इसे हम दो रूप में देख सकते हैं । एक तो शिव परिवार और दूसरा उनका परिवार । शिव परिवार में गणपति जी का वाहन मूषक और शिवजी का आसन मृगछाला । मृगछाला मूषक को प्रिय होती है । शिवजी का वाहन नंदी और देवी पार्वती का वाहन सिंह । सिंह के लिये नंदी प्रिय भोजन होता है । शिवजी का श्रृंगार नागों से । कुमार कार्तिकेय का वाहन मयूर । नाग मयूर का प्रिय भोजन है । गणपति जी शिव परिवार के समन्वयक हैं । परिवार में सबकी प्रियता एक दूसरे के विपरीत है फिर भी यह गणपति जी की विशेषता है कि न तो माता पार्वती का वाहन सिंह नंदी को कोई क्षति पहुंचाते और न मयूर से शिवजी के नागो को कोई अहित और न मूषक शिवजी के आसन को नुकसान पहुंचाते । इन सबको समरूप, स्नेह का समन्वय गणपति जी ही प्रदान करते हैं । गणपति जी की यह भूमिका समाज को संदेश देती है कि परस्पर विषमताओं के बीच भी कैसे समरस रहा जाये कैसे संगठित होकर प्रतिष्ठित बना जाये । यदि गणपति जी नंदी महाराज, सिंह, मयूर और नागदेव में समरसता बना सकते हैं तो उनके अनुयायियों में यह विशेषता आनी चाहिए कि परिवार और समाज में तालमेल बिठायें वही परिवार समाज में सम्मानीय माने जाते हैं जिनमें संगठन है एक जुटता है ।
अब दूसरा विन्दु गणपति जी का निजी परिवार । पुराणों में उनकी पत्नियों के दो नाम आते हैं ऋद्धि और सिद्धी । उनके दो पुत्रों के नाम भी हैं शुभ और लाभ । एक पुत्री है संतोषी । यह परिवार एक नायक का है, नेतृत्व कर्ता का है, गण नायक है । भारतीय वाड्मय में पत्नि को पति की आंतरिक शक्ति और परिवार की रीढ़ माना जाता है । ऋद्धि सिद्धि का आशय यह है कि यह विशेषता नायक की आंतरिक शक्ति के रूप में होना चाहिए । उसकी नीतियां कल्याणकारी होना चाहिए । जबकि पुत्र शुभ और लाभ हैं । अर्थात निर्णय लाभकारी हों । लाभ भी शुभ हो सकारात्मक हो । नेतृत्व कर्ता की नीतियाँ आत्मकेन्द्रित न हो । निर्णय सर्वहितकारी हों । जो सकारात्मकता के साथ जीवन की सुविधाओं में वृद्धि करे ।
गणपति जी गण नायक हैं लेकिन नायकत्व का यह भाव शिवपरिवार में प्रकट नहीं होता । वहां वे केवल समन्वयक हैं, सेवक के रूप में हैं । कितनी बार माता पार्वती ने उन्हे द्वार सुरक्षा का दायित्व सौंपा । तब गणपति जी ने यह न कहा कि मै तो गण नायक हूँ यहाँ किसी सेवक की डियूटी लगा दीजिये । गणपति जी चाहते तो स्वयं भी किसी गण की या सेवक को द्वार पर खड़ा कर सकते थे लेकिन वे स्वयं खड़े हुये । द्वार की सुरक्षा व्यवस्था के दौरान ही उनका परशुराम जी से युद्ध हुआ । उनका एक दांत टूटा । लेकिन माता का आदेश था । वे स्वयं ही द्रार पर तैनात हुये । इस घटनाक्रम से गणपति जी समाज को यह संदेश दे रहे हैं कि बालक कितना बड़ा, कितना सक्षम न हो जाये उसे अपने माता पिता के आदेश को शिरोधार्य करना ही चाहिए ।
राष्ट्र निर्माण और गणपति जी
आज भारत यदि स्वतंत्र है, दासता के घोर अंधकार में भी यदि भारतीय समाज और संस्कृति सकुशल रहा है और इस सकुशलता के संघर्ष के लिये जो राष्ट्र जागरण हुआ उसके केन्द्र में गणपति जी ही हैं । यह महिमा गणपति जी की ही है कि विषम परिस्थितियों में भी भारतीयों ने एकजुटता दिखाई और दुष्ट शक्तियों का अंत हुआ । कल्पना कीजिए सत्रहवीं शताब्दी के भारत की । वह घोर अंधकार का युग था । कोई भारतीय सुरक्षित और सम्मानित न था । अधिकांश भारतीय अपने प्राण बचाने और पेट भरने के संघर्ष से जूझ रहे थे । ऐसे में सबसे पहले जीजाबाई ने गणपति पूजन से समाज जागरण का काम आरंभ किया । वह पूजन घरों में थी । चूंकि बाहर पूजन संभव न था । राष्ट्र और समाज की सुरक्षा के लिये गणपति जी के पूजन का पहला वर्णन विदर्भ में जीजाबाई द्वारा किये जाने का ही मिलता है ।
देवी जीजा बाई ने बाल्यकाल में गणपति जी का पूजन किया था । उनके परिवार में समर्थ स्वामी रामदास जी का आना जाना था । उनके अनुसार ही यह पूजन प्रारंभ हुआ था । देवी जीजावाई जब विवाह होकर पति के साथ आदिलशाही पहुँची तब भी एक छोटी गणपति जी की मूर्ति अपने साथ ले गयीं । शिवाजी महाराज जब चौदह साल के थे तब जीजा वाई उन्हे लेकर पुणे आईं और पहली सार्वजनिक गणेश पूजन आरंभ हुआ । शिवाजी महाराज जैसे जैसे बड़े हुये, सक्षम हुये वैसे वैसे गणेशोत्सव का विस्तार हुआ । उनका मानना था कि यदि औरंगजेब के कार्यकाल में ही हिन्दुपद पादशाही की स्थापना हुई तो वह गणपति पूजन के ही प्रताप से ही संभव हो सकी । इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि मराठों की सेना ने ईरान की सीमा तक भगवा ध्वज फहराया, मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया, दिल्ली के मुगलो और दक्षिण के सुल्तानों को सीमित किया । यह सब राष्ट्र जागरण से हो पाया और इस राष्ट्र जागरण का आधार गणपति जी रहे हैं । पहले जीजाबाई और फिर शिवाजी महाराज ने सामाजिक जागरण के लिये घरों पर ही पूजन प्रारंभ किया । बाद में सार्वजनिक पूजन आरंभ हुई ।
अंग्रेजी काल में स्वतंत्रता के आधुनिक संघर्ष के लिये जन जागरण अभियान में गणपति पूजन और उत्सव की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । लोकमान्य तिलक 1890 में गणोत्सव की परंपरा आरंभ की थी । यह वह काल था जो 1857 के सार्वजनिक दमन के बाद भारतीयों का मनोबल गिरा हुआ था । तब तिलक जी ने पुणे में गणेशोत्सव आरंभ किया । आगे चलकर डा मुंजे और डा हेडगेवार ने इस सार्वजनिक पूजन को आगे बढ़ाया । देश में यदि स्वतंत्रता के अधिकार का भाव जाग्रत हुआ तो वह गणेशोत्सव के कारण ही जागा । चूंकि गणपति जी व्यक्तित्व, उनका देवत्व एक व्यापक प्रेरणादायक है । व्यक्ति विकास के लिये भी, परिवार विकास के लिये भी, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण के लिये भी इसलिये उन्हे प्रथम पूज्य माना गया । देवताओं ने म सबसे पहले उनकी ही अभ्यथर्ना की है ।