नन्दा उनकी कैलाश शिव को ब्याही हुई लाडली कन्या है, जिसे अपने ससुराल औघड़ शिव के यहां असह्य कष्टों और अभावों का सामना करना पड़ता है। मायके की याद में दुखी नन्दा कैलाश में रोती-बिलखती कहती है ’मेरी सभी बहनों में से मैं अप्रिय हूं इसलिए मुझे बिवाया गया इस वीरान कैलाश में। वह भी भांग फूंकने वाले जोगी को, जिसके लिए भांग घोटते-घोटते मेरे हाथों पर छाले पड़ गए हैं।’ नन्दा के प्रति लोक मानस का यही भाव संसार इसे लोकप्रियता की ऊंचाइयों तक लेे जाता है।
मध्य हिमालय के चार धामों बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के अलावा एक पांचवा महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धाम है जिसे नन्दा धाम कहते हैं। नन्दा देवी राजजात बारह वर्षों में मंचित की जाने वाली मायके से ससुराल जाने की अनुष्ठानिक यात्रा है। इस यात्रा में नन्दा के मायके वाले लोग लाखों की संख्या में ससुराल जाने के यात्रा पथ पर खड़े होकर नन्दा को अश्रुपूर्ण विदाई देते हैं और हजारों की संख्या में नन्दा के ससुराल कैलाश तक उसे विदा करने जाते हैं। नन्दा का मायका उत्तराखंड के पूर्वी छोर चम्पावत, पिथोरागढ़, बागेश्वर, अल्मोड़ा, नैनीताल, चमोली, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और टिहरी जिले तक फैला हुआ है। उत्तराखंड के तेरह में से नौ जिलों की अधिष्ठात्री देवी नन्दा है। शेष चार जिलों उत्तरकाशी, देहरादून, हरिद्वार एवम् उधममसिंह नगर में भी नन्दा के भक्तों ने उसकी मूर्तियों की स्थापना एवम् अनुष्ठान आरंभ कर दिए हैं।
नन्दादेवी राजजात में संपूर्ण हिमालय का जनमानस अपनी छोटी बहन नन्दा को उसके कैलाश निवासी पति महेश्वर के पास भेजने जाते हैं। सम्पूर्ण यात्रा पथ पर वे गीत, नृत्य एवम् अनुष्ठानों से उसका उत्सवमय स्वागत करते हैं उसे एक कन्या की तरह दक्षिणा देते हैं और उसके पाथेय के लिए मौसम के फल, चूड़ा, पूड़ी, हलवा, मालपुवे, पकौड़ी, ककड़ी इत्यादि भी भेंट करते हैं। न केवल मानवीय समाज बल्कि विभिन्न समुदायों के इष्ट देवता भी इस दैवीय बहन को विदा करने निकल पड़ते हैं। इन देवताओं में उसके धर्म भाई लाटू, बिनसर हीत, द्यो सिंह , सोलदाणु, केदारू तथा उसकी समकक्ष अलग-अलग रूपों में प्रतिष्ठित नन्दा देवी के चल विग्रह भी उसे विदा करने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा का उत्कर्ष 2014 में देखा गया जिसमें 502 देवी देवताओं की डालियों एवम् निशानों ने नन्दा को विदा करने के लिए नन्दा त्रिशूल पर्वत के नीचे 16500 फीट की ऊंचाई पर स्थित होमकुंड तक यात्रा की।
इस देवी की यात्राओं की तीन प्रमुख धाराएं हैं। प्रथम धारा राजजात है। जो कर्णप्रयाग से तीस किलोमीटर ऊपर दक्षिण पश्चिम दिशा में नौटी गांव से उत्सृजित होती है। चूकिं इस परम्परा की शुरुवात नौवीं सदी में राजा शालीपाल ने की थी और राजकोष से इसका संचालन किया था जो लगभग चौदहवीं सदी तक लगातार चलता रहा इसलिए इसे राजजात का नाम दिया गया। इस यात्रा की पृष्ठभूमि हिमालयी गांवो में मौजूद थी जहां हर वर्ष तीसरे छठवें और बारहवें वर्ष में नन्दा की ससुराल विदाई के प्रतीक के रूप में एक दिवस से लेकर पंद्रह दिवस तक भिन्न-भिन्न यात्राओं का आयोजन होता था। राजा शालिपाल ने अपने राज्य के सांस्कृतिक एवम् राजनीतिक सुदृढ़ीकरण के लिए एक रणनीति अपनाई। उसने घोषणा की कि बारह वर्षों तक सभी समुदाय अपने तरीके से नन्दा की विदाई यात्रा निकालते रहेंगे किन्तु हर बारहवें वर्ष इन यात्राओं का परिपथ गांव से निकलकर राजजात की मुख्य धारा में समाहित होकर आगे बढ़ेगा। इस रणनीति से उसने न केवल गढ़वाल में अपने राज्य को सुप्रबंधित किया अपितु कुर्मांचल क्षेत्र के सम्पूर्ण अंचलों में भी अपनी सांस्कृतिक पैठ बनाई।
दूसरी धारा नंदाकिनी घाटी में कुरूड गांव से प्रवाहित होकर नंदकेशरी में राजजात में मिल जाती है। कुरुड गांव नन्दा जात परम्परा की ऐतिहासिक थाती है। यहां पर दो क्षेत्रों बधाण और दशोली की मूर्तियों के स्थान हैं। प्रति वर्ष ये दोनों मूर्तियां यात्रा का स्वरूप प्राप्त कर दो अलग-अलग लक्ष्यों के लिए निकल पड़ती हैं। बधाण की नन्दा चरबन, कुस्तोली, लांखी, भेंटी, बूंगा, बर्सोल इत्यादि गांवों से होते हुए आमावस्या को निश्चित रूप से सोना गांव पहुंचती है जहां उसकी काली के रूप में विशेष पूजा होती है। सोना से आगे बढ़ते हुए यात्रा पिंडर नदी के किनारे-किनारे थराली, चेपड़यों, नंदकेशरी, फलदिया गांव, कोठी, कांडई, उलंग्रा, ल्वाणी, मुंडोली, लोहाजंग, वाण, गैरोलीपातल होते हुए बेदनी बुग्याल(अल्पाइन जोन का घास का मैदान) पहुंचती है जहां पर वेदनी झील के किनारे अंतिम पूजा कर वापसी में ग्वालदम कस्बे के पास स्थित देवराडा गांव में मकर संक्रांति तक रुकती है और वहां से चलकर फिर कुरुड़ गांव पहुंच जाती है। कुरूड़ गांव से दशोलि नन्दा की यात्रा प्रति वर्ष घोणा रामणी होते हुए बालपाटा बुग्याल तक जाती है और पुनः कूरूड लौट आती है।
तीसरी मुख्यधारा अल्मोड़ा नन्दा देवी मंदिर से निकलकर तल्ला और मल्ला कत्यूर होते हुए कोट, भ्रामरी की कटार के साथ ग्वाल्दम होते हुए नंदकेशरी पहुंचती है। नौटि की राजजात और अल्मोड़ा की जात दोनों का नेतृत्व पूर्व कालीन राजाओं के वंशज करते हैं जिनमें कांसुवा गांव के राजकुंवर और अल्मोड़ा के चंदवंशी राजाओं के वंशज पंद्रहवीं सदी से आजतक करते आ रहे हैं। इन तीनों धाराओं के साथ अलग-अलग स्थानों पर असंख्य छोटी-छोटी धाराएं मिलकर आती हैं और नंदकेशरी में इस यात्रा का स्वरूप कुंभ के शाही स्थानों के सदृश हो जाता है। आगे चलकर देवाल, फल्दिया गांव, मुंदोली होते हुए वाण में भी इस धारा से कुछ पचास और छोटी-छोटी यात्राएं मिलती हैं जिनमें लाता की नंदादेवी, कोट कंडारा की नन्दा, ल्वाणी की नन्दा और दशोली की नन्दा प्रमुख हैं।
नन्दा देवी के अनुष्ठान और गाथाएं भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। यहां का लोक नन्दा देवी को एक किशोरी मानता है जिसकी कम उम्र में ही कैलाशवासी महेश्वर के साथ शादी हो गई थी। ससुराल में नन्दा के वही संघर्ष, पीड़ा और अभाव हैं जो यहां की किशोरियों के ससुराल में होते थे। अपने समस्त दुखमय संसार का प्रक्षेपण यहां की स्त्रियों ने अनगढ़ भाषा में गीतों में ढालकर नन्दा देवी के गीत(जागर) रच दिए। यह आर्किटाइप आज भी उनके अवचेतन को गहरे तक छू देता है। ससुराल में कष्ट और अभावों को झेलने वाली कन्या का रूप भी नन्दा देवी की अगाध लोकप्रियता का कारण है। नन्दा देवी यात्रा का दृश्य बहुत प्रभावी होता है। कपड़े से बने रंग बिरंगे छत्र, देवताओं के निशान, तुरियां, ढोल की गूंज, भंकोरियों की गरजना, महिलाओं के गीत, पग-पग पर स्वागत के लिए खड़ी भक्तों की पंक्तियां, पहाड़ों की ऊंची चोटियों व गहरी घाटियों से गुजरते हुए हजारों लोग नन्दा देवी राजजात का दृश्यविधान करते हैं। चूंकि नन्दा देवी नाम की बेटी ससुराल जा रही है तो रास्ते में भावुक तो होगी ही। वह अपने भक्त जमन सिंह जदोड़ा के गांव बनाणी जाती है जहां उसे ससुराल जाते हुए विशेष आतिथ्य मिला था। लौटकर फिर नौटि आती है। अब नौटि से उतरते हुए बार-बार पीछे लौटकर अपने मायके को निहारती है। कांसुवा राजवंशियों के घर में विशेष आतिथ्य पाने के बाद नन्दा चांदपुर गढ़ी में थोड़ी देर के लिए रुकती है क्योंकि यह एक जमाने में उसके मायके के राजाओं का महल था। यहीं पर टिहरी राज्य के वंशज आकर नन्दा को विदाई देते हैं। सेम गांव में रात्रि विश्राम कर नन्दा धारकोट की चढ़ाई चढ़ते हुए बार-बार अपने मायके नौटि की तरफ नजर दौड़ाती है क्योंकि इसके बाद उसके मायके का क्षेत्र दिखता नहीं है। कोटि गांव में विशाल आयोजन के बाद बगोली से आए हुए धर्म भाई लाटू की अगुवाई में नन्दा आगे बढ़ती है और बीहड़ पहाड़ियों से आगे बढ़ते हुए भगोती गांव में रात्रि विश्राम करती है। आगे बढ़ते हुए थोड़ी दूर पर क्युर नाम की नदियां (गदेरा) आती हैं। जहां से आगे नन्दा का ससुराल क्षेत्र माना जाता है। नन्दा ससुराल के प्रति अनिच्छा दिखाने के लिए बार-बार पुल तक जाती है और फिर वापस आती है।
अगला पड़ाव कुलसारी होता है और यह पड़ाव आमावस्या के दिन ही आता है। यहां पर काली की पूजा होती है। जिसके लिए एक जमाने में अष्ठबली का विधान होता था। सन 1987 की यात्रा में आयोजकों द्वारा बलि देने से इंकार करने पर बधाण क्षेत्र के लोग बिफर गए थे और उन्होंने राजजात के साथ जाने से मना कर दिया था और अपनी नन्दा की यात्रा वेदनी बुग्याल से ही लौटा दी थी।
इस यात्रा के आयोजकों में राजवंशी कुंवर अध्यक्ष, राजपुरोहित नौटियाल सचिव का कार्यभार संभालते हैं। मार्ग में कई स्थलों पर दस्तूर देने या भेंट लेने की जिम्मेदारी भी यही लोग संभालते है।
इस यात्रा मार्ग में पूजा करने वाले ब्राह्मण भी अलग अलग होते हैं; नौटि से कांसुवा तक मैठाणी और नौटियाल, कांसुवा से नंदकेसरी तक ड्योंडी और उसके बाद की यात्रा में उनियाल ब्राह्मण पूजा का भार संभालते है। कुल मिलाकर यह यात्रा मध्य हिमालय का महाकुंभ बन जाती है।
धारा आगे बढ़ते हुए हिमालय के निर्जन क्षेत्र में प्रवेश करती है और गैरोली पातल के घने जंगल में रात्रि विश्राम करते हैं। तदोपरांत वृक्ष विहीन अल्पाइन झोन में स्थित अत्यन्त मनमोहक वेदनी कुंड, आली और वेदनी बुग्याल के दर्शन होते हैं। वहां से निकलकर जात पातर नचौण्यों, कैलुवा विनायक, बगुवा बासा, रूपकुंड, जुंरागली होते हुए नंदकिनी के जलागम में उतरती है और शिला समुद्र नाम के विशाल ग्लेशियर में रात्रि विश्राम करती है। रातभर त्रिशूल पर्वत की खड़ी चट्टानों से नीचे गिरते हुए ग्लेशियर के शिलाखण्डों की डरावनी आवाज आती रहती है। पूरे मार्ग में अल्पाइन की जीवनदायनी औषधियां और नशीली खुशबू वाले फूल खिले रहते हैं। दूसरे दिन शिला समुद्र के ग्लेशियर की ऊंचाई पर चढ़ते-चढ़ते यात्रा होमकुंड पहुंचती हैं जहां पर किसी भी कल्पित स्थान को होमकुंड मानकर विदाई कर दी जाती है। इस पूरी यात्रा का एक महत्वपूर्ण पात्र चार सींग वाला मेंढा होता है जिसकी कमर पर राशन लेे जाने वाले थैले बंधे होते हैं। इन्हीं थैलों में यात्रा मार्ग पर भक्तजन अपनी भेंट व खाद्य पदार्थ रखते जाते हैं। होम कुंड पहुंचकर यह माना जाता है कि भार वाहक इस मेंढे के साथ ही नन्दा देवी अपने ससुराल को चली गई है। मे़ंढा ग्लेशियर की ढालों पर बढ़ता हुआ आंखों से ओझल हो जाता है और सभी यात्री रात्रि विश्राम के लिए चननिया घट के जंगल में पहुंच जाते हैं। इस यात्रा में मुख्य धारा की कपड़े के बने हुए सभी छाते तोड़कर प्रसाद के रूप में बांट दिए जाते हैं जबकि कुरुड के भोजपत्र के बने हुए छत्र व डोलियां सुरक्षित वापस सुतोल गांव पहुंचा दी जाती है। वहां पर उनियाल ब्राह्मणों द्वारा फूल दूर्वा प्रदान करने के बाद सभी धाराएं अपने अपने उद्गम स्थानों को लौट जाती हैं।
नन्दा देवी राजजात का ऐतिहासिक पक्ष भी है। यशवंत सिंह कटौच द्वारा अभिलेखीय सातवीं से नौवीं शताब्दी के बीच में लिखे गए ताम्र पत्रों में गढ़वाल कुमाऊं के शासक कत्यूरी राजा जैसे पद्ममट देव, शुभेक्ष राज देव, वासुदेव, ललित शूर देव अपने आपको नन्दा का परम भक्त घोषित करते हैं। नन्दा देवी के बारे में पौराणिक संदर्भ दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य अध्याय में मिलता है जिसमें दुर्गा का अवतार भविष्य में नंद राजा के घर में जन्म लेने के कारण नन्दा भगवती नाम से पहचानी जाती है। यह वही शक्ति है जो नंद के घर में जन्मी थी और जिसे कंस ने अपना बैरी समझ कर पत्थर पर पटकने की कोशिश की थी। वहां से आसमान में उड़ते हुए इस दैवीय कन्या ने कंस की मृत्यु की भविष्यवाणी की थी और खुद हिमालय की स्वर्णिम आभा सी चमकते हुए सुमेरु की चोटी पर स्थापित हो गई थी। वहीं से अपने रहस्यमय रूपों के साथ नन्दा ने मध्य हिमालय के अलग-अलग पवित्र स्थानों पर अवतार लिया और उसी दिन से सुमेरु पर्वत का नाम नंदादेवी पर्वत हो गया।
नंदादेवी की लोकप्रियता मूलतः नन्दा के स्त्री विमर्श से जुड़ी है। सामान्य लोगों के लिए नन्दा उनकी कैलाश शिव को ब्याही हुई लाडली कन्या है, जिसे अपने ससुराल औघड़ शिव के यहां असह्य कष्टों और अभावों का सामना करना पड़ता है। बारह वर्ष बीत चुके हैं लेकिन उसके मायके वालों ने कोई सुधि नहीं ली है। मायके की याद में दुखी नन्दा कैलाश में रोती-बिलखती कहती है ’मेरी सभी बहनों में से मैं अप्रिय हूं तुम्हारे लिए। किसी बहिन को बिवाया समतल श्रीनगर में, किसी को बिवाया खूबसूरत कुमाऊं में, किसी को बिवाया नौ लाख कर योग्य बधाण में और किसी को बिवाया सौ लाख कर योग्य सलाण में। किन्तु मैं ही अप्रिय हुई अपने माता-पिता के लिए और मुझे बिवाया गया इस वीरान कैलाश में। वह भी भांग फूंकने वाले जोगी को, जिसके लिए भांग घोटते-घोटते मेरे हाथों पर छाले पड़ गए हैं। जहां बर्फ का ओढ़ना और बर्फ का ही बिछौना है। जहां सैकड़ों मील तक पेड़ नाम की वस्तु नहीं दिखाई देती, जहां पहनने के लिए खुरदरा ऊन का कपड़ा और खाने के लिए स्वादहीन फाफर की रोटियां हैं। मेरा अभिशाप लगे ऋषासों के मायके वालों को जो बारह वर्ष से मेरी सुध भूल गए हैं। नन्दा के प्रति लोक मानस का यही भाव संसार इसे लोकप्रियता की ऊंचाइयों तक लेे जाता है।