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२१ साल ११ मुख्यमंत्री

२१ साल ११ मुख्यमंत्री

by देवेंद्र भसीन
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, राजनीति, विशेष
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नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मंत्री काल में जब तत्कालीन प्रधान मंत्री वाजपेयी नैनीताल आए तो उनसे मुख्य मंत्री ने राज्य के विकास के लिए मदद मांगी। बावजूद इसके कि राज्य सरकार कांग्रेस की थी, वाजपेयी ने बड़े हृदय का परिचय दिया और उत्तराखंड को विशेष राज्य का दर्जा और आर्थिक पैकेज प्रदान करने की घोषणा की।

देश का 27 वां राज्य उत्तराखंड अपनी स्थापना के 21वें वर्ष में चल रहा है। 9 नवंबर 2000 को गठित उत्तराखंड, जनता के लंबे संघर्ष और बलिदानों के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आया। उत्तराखंड का निर्माण केंद्र में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व की एनडीए सरकार द्वारा किया गया और भाजपा ने जनता के साथ किया अपना वायदा पूरा किया।

राज्य निर्माण के बाद उत्तराखंड की राजनीतिक स्थिति की चर्चा करने से पूर्व उत्तराखंड के निर्माण से पूर्व की स्थिति पर नजर डालते हैं। सीमांत प्रदेश उत्तराखंड जो उत्तर प्रदेश का अंग था, को राज्य बनाने की मांग आजादी से पूर्व की है। आजादी के बाद यह मांग फिर उठी। उस समय जिन लोगों ने पृथक पर्वतीय राज्य की  मांग को पुनः उठाया उनमें टिहरी के पूर्व महाराजा मानवेंद्र शाह शामिल हैं। उसके बाद विभिन्न मंचों पर उत्तराखंड राज्य को लेकर स्वर उठते रहे। राज्य निर्माण की मांग के बीच हेमवती नंदन बहुगुणा जब उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने तो उन्होंने पर्वतीय विकास विभाग का गठन किया, इसकी जिम्मेदारी एक मंत्री को दी व अलग से बजट का भी प्रावधान किया। उस समय इस क्षेत्र में कांग्रेस व भाजपा मुख्य राजनीतिक दल थे। सपा, बसपा, वाम दल व कुछ घोर वामपंथी भी अपनी जमीन बनाने की कोशिश में थे। इसी बीच राज्य की मांग को लेकर उत्तराखंड क्रांति दल की स्थापना हुई।

राज्य आंदोलन को उस समय नई दिशा मिली जब भाऊराव देवरस की प्रेरणा से भाजपा इस आंदोलन में सक्रिय हुई। दूसरी ओर कांग्रेस, सपा, बसपा के नेता इसके विरोध में थे।

आंदोलन का एक महत्वपूर्ण मोड़ उस समय आया जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व की समाजवादी पार्टी सरकार ने पिछड़ा वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण घोषित कर दिया। इससे पर्वतीय क्षेत्र में बहुत तेज प्रक्रिया हुई और यहां जनमानस को लगा कि 27% आरक्षण की आड़ में पहले से बेरोजगारी की समस्या का सामना कर रहे उत्तराखंड के युवकों के अवसर और कम हो जाएंगे। इस बात का असर हर घर पर हुआ और राज्य की मातृशक्ति व युवक इसके विरोध पर सड़कों पर उतर आये। प्रारंभ में यह विरोध मुख्यत: आरक्षण के खिलाफ था लेकिन धीरे-धीरे यह विरोध राज्य की मांग की ओर मुड़ गया। पूरे प्रदेश के अधिकांश वर्ग इस आंदोलन में कूद गये।

इस आंदोलन की एक विशेषता यह थी कि इसमें जनता आगे थी और आंदोलन समर्थक राजनीतिक दलों के नेता जनता का अनुसरण कर रहे थे। एक लंबे समय तक जनता के दबाव में राजनीतिक दलों ने अपने बैनर व झंडे इस आंदोलन से अलग रखे थे।

यह आंदोलन जो जनता द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से किया जा रहा था, को दबाने के लिए तत्कालीन उत्तर प्रदेश की सपा सरकार द्वारा पूरे प्रयास किए गए और इसी दौरान खटीमा गोलीकांड, मसूरी गोलीकांड, देहरादून गोलीकांड और मुजफ्फरनगर गोलीकांड जैसी लोमहर्षक घटनाएं हुई जिनमें दर्जनों आंदोलनकारी शहीद हुए। केन्द्र की कांग्रेस सरकार राज्य सरकार की सपा सरकार का मौन समर्थन करती रही। इस मध्य भारतीय जनता पार्टी आंदोलन के समर्थन में पूरी तरह सक्रिय हो चुकी थी और पार्टी द्वारा कहा गया कि केंद्र में भाजपा की सरकार के आने पर उत्तराखंड राज्य का निर्माण कर दिया जाएगा। इसका उसे राजनीतिक लाभ भी मिला। लेकिन यह भी तथ्य है कि जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में भाजपानीत एनडीए सरकार का गठन हुआ तो केंद्र सरकार ने उत्तरांचल नाम से राज्य का निर्माण किया। लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने पर राज्य का नाम उत्तराखंड कर दिया। उस समय भाजपा ने इस परिवर्तन का विरोध नहीं किया। उत्तरांचल (बाद में उत्तराखंड) बनने के साथ देश में दो अन्य राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ भी बनाए गए।

राज्य बनने के बाद उत्तराखंड का राजनीतिक समीकरण नया रूप लेता रहा और यह आज तक चल रहा है। सन 2000 में राज्य का निर्माण होने पर राज्य में पहली अंतरिम सरकार बनी और उत्तराखंड से उत्तरप्रदेश विधानसभा में विधायकों की संख्या के आधर पर नए राज्य में भाजपा की अंतरिम सरकार बनी। उस समय सुरजीत सिंह बरनाला उत्तराखंड के पहले राज्यपाल और श्री नित्यानंद स्वामी पहले मुख्य मंत्री बने। निर्धारित फार्मूले के अनुसार उस समय उत्तराखंड के हिस्से में उत्तर प्रदेश विधानसभा के 19 सदस्य आए थे और इसी प्रकार पांच लोकसभा व तीन राज्यसभा सांसद भी उत्तराखंड को आवंटित हुए। राज्य बनने के बाद राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अनुरूप प्रदेश की विधानसभाओं का परिसीमन किया गया और यहां विधानसभा की 70 सीटों का प्रावधान हुआ। लेकिन विधान परिषद नहीं बनाई गई।

स्वामी के नेतृत्व में गठित की गई सरकार प्रदेश की प्रथम सरकार थी, जो अंतरिम थी। राज्य विधानसभा के चुनाव 2002 में होने वाले थे। लेकिन भाजपा में बदलते समीकरणों के चलते स्वामी को विधानसभा चुनाव से 3 माह पूर्व ही पद त्याग देना पड़ा और भगत सिंह कोश्यारी प्रदेश के मुख्य मंत्री बने। वर्ष 2002 में हुए उत्तराखंड विधानसभा के प्रथम चुनाव में आशा के विपरीत भारतीय जनता पार्टी को पराजय का सामना करना पड़ा और कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही। इस दौरान रोचक बात यह रही कि उत्तराखंड राज्य का हमेशा विरोध करने वाले नारायण दत्त तिवारी को कांग्रेस नेतृत्व ने राज्य का मुख्य मंत्री बनाया। उत्तराखंड क्रांति दल जो राज्य आंदोलन को लेकर ही बना था को जनता का कुछ अधिक समर्थन नहीं मिल पाया और वह कुछ सीटों पर ही सिमट गया। वैसे उक्रांद के बारे में रोचक बात यह भी है कि वह राज्य की मांग को लेकर गठित होकर अपने दम पर तो सत्ता में नहीं आया किन्तु प्रदेश में भाजपा व कांग्रेस की सरकारों में इस दल के नेता सरकारों का हिस्सा जरूर रहे।

नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मंत्री काल में प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उत्तराखंड को विकास की दृष्टि से एक बड़ा तोहफा दिया। उस समय जब वाजपेयी नैनीताल आए तो उनसे मुख्य मंत्री  और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने मुलाकात की और राज्य के विकास के लिए मदद मांगी। बावजूद इसके कि राज्य सरकार कांग्रेस की थी,  वाजपेयी ने बड़े हृदय का परिचय दिया और उत्तराखंड को विशेष राज्य का दर्जा और आर्थिक पैकेज प्रदान करने की घोषणा की। यह घोषणा आने वाले वर्षों में उत्तराखंड के विकास के लिए बड़ी मददगार सिद्ध हुई और इससे राज्य में औद्योगिक विकास हो सका। यह बात अलग है कि केंद्र में कांग्रेस सरकार आने के बाद यह पैकेज व विशेष दर्जा दोनों ही समाप्त हो गए।

नारायण दत्त तिवारी का कार्यकाल कांग्रेस के अंदर के समीकरणों से ग्रस्त रहा और उन्हें अपने ही लोगों से विरोध का भी सामना करना पड़ा।  सन 2007 में हुए चुनाव में स्थिति बदली और प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। मेजर जनरल(सेनि) भुवन चंद्र खंडूरी जो राज्य आंदोलन के समय भाजपा के द्वारा गठित संघर्ष समिति के संयोजक थे, मुख्य मंत्री बनाए गए। उन्होंने सही तरीके से राज्य को आगे बढ़ाया लेकिन भाजपा के अंदर की स्थितियां कुछ इस प्रकार से चल रही थी कि वे अपना  कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और करीब ढाई वर्ष के बाद प्रदेश के मुख्य मंत्री बदल गए। अब डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ नए मुख्य मंत्री बने। भाजपा का अंदरूनी संकट यहीं समाप्त नहीं हुआ और चुनाव आते-आते ‘खंडूरी है जरूरी’ के नारे के साथ जनरल खंडूरी को दोबारा मुख्य मंत्री बना दिया गया। लेकिन खंडूरी चुनाव में पार्टी को विजय के द्वार तक पहुंचा कर खुद अपना चुनाव हार गए और राजनीतिक उठापटक के बीच कांग्रेस की सरकार बनी, जिसमें विजय बहुगुणा मुख्य मंत्री बनाए गए। लेकिन हालात कांग्रेस के अंदर पहले जैसे ही थे। अंदरुनी खींचतान के चलते और सन 2013 में आई केदारनाथ आपदा के बाद बहुगुणा को भी पद से हटा दिया गया और हरीश रावत जो लंबे समय से मुख्य मंत्री बनने के लिए प्रयास कर रहे थे, को यह पद मिला। लेकिन उनका कार्यकाल भी विवादों से भरा रहा।

इस दौरान जहां राज्य सरकार पर कई प्रकार के आरोप लगे वहीं कांग्रेस के अंदर भी बड़ी टूटन हुई। कांग्रेस के कई मंत्रियों सहित 10 विधायक कांग्रेस छोड़ गए। (बाद में ये सभी भाजपा में शामिल हो गए और भाजपा ने इन्हें टिकट भी दिए।) यद्यपि रावत विधानसभा अध्यक्ष व उच्च न्यायालय के निर्णयों के आधार पर सरकार बचाने में सफल रहे।

इस घटनाक्रम के बाद 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा और भारतीय जनता पार्टी 70 में से 57 सीटें जीतकर भारी बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफल रही। कांग्रेस के खाते में केवल 11 सीटें आईं जबकि दो अन्य निर्दलीय विजयी रहे। इस  चुनाव में विजय के बाद भाजपा ने त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में सरकार बनाई। लेकिन 4 साल बीते ही थे कि कतिपय कारणों से त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटना पड़ा और उनके स्थान पर सांसद तीरथ सिंह रावत मुख्य मंत्री बने। लेकिन तीरथ सिंह रावत का कार्यकाल भी करीब 4 माह रहा और फिर एक बार उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और पुष्कर सिंह धामी को मुख्य मंत्री बनाया गया जो अद्यतन कार्यरत हैं। अब उत्तराखंड में अगले विधानसभा  चुनाव 2022 के प्रारंभ में होंगे। भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में ‘एक बार भाजपा, एक बार कांग्रेस’ के मिथक को तोड़ कर दोबारा सरकार बनाने की कोशिश में है। जबकि कांग्रेस सत्ता में आने की इच्छुक है। इस मध्य आम आदमी पार्टी ने भी उत्तराखंड में दस्तक दी है। अन्य दल जिनमें उत्तराखंड क्रांति दल, सपा, बसपा शामिल हैं भी अपना भाग्य आजमाने की कोशिश में हैं। अब सबकी निगाहें 2022 के विधानसभा चुनाव पर है।

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