रोजगार से स्वावलम्बन की ओर

स्वरोजगार हेतु सरकारी सहायता पा लेना चक्रव्यूह तोड़ने से कम उपलब्धि नहीं कही जाएगी, वैसे भी हमारे प्रवासी युवा सामान्य पृष्ठभूमि से वास्ता रखते हैं। स्वरोजगार की सभी कार्यवाहियां स्वीकृति एवं प्रशिक्षण आदि न्याय पंचायत स्तर पर होनी चाहिए। कुछ कर्मचारी/अधिकारियों को ही आने-जाने का कष्ट उठाना पड़ेगा पर बेरोजगारों को दर-दर की ठोकरें नहीं खानी पड़ेंगी, ऐसा व्यावहारिक विचार करना होगा।

असंभव सा दिखने वाला वो काम अर्थात ’गांव में घर वापसी’ का कार्य सरकारें अथवा सामाजिक संस्थायें न कर पाईं, संयोग से वह कार्य कोविड-19 ने कर दिखाया। मार्च 2020 के बाद जैसे-जैसे इस महामारी का प्रकोप बढ़ता गया, वैसे-वैसे कामगारों की अपने गांव लौटने की इच्छा प्रबल होती चली गई और एकाएक पूरे देश के नगरों-महानगरों में फैले प्रवासी अपने गांव लौटने के लिए, सड़कों पर आ गए। लॉकडाउन के कारण यातायात व्यवस्था ठप्प होने से प्रवासी मजदूर पैदल ही अपने गांवों को चल दिए। कल्पना करना भी कठिन है कि कैसे पूना से चार युवक पैदल ही अपने गांव डुण्डा, उत्तरकाशी पहुंचे होंगे। ऐसे हजारों उदाहरण हैं, जब गांव की महत्ता, याने ’संकट के समय गांव ही एक मात्र सुरक्षित विकल्प है’ तथा ’मेरा गांव मेरा तीर्थ’ जैसे ध्येय वाक्यों को देशवासियों ने चरितार्थ किया।

देवभूमि उत्तराखण्ड का चित्र इस मामले में थोड़ा सा अलग है। अनेक मानवीय आवश्यक सुविधाओं के अभाव में उत्तराखण्ड के गांवों से पलायन की दर शेष देश से भिन्न है। उत्तराखण्ड से पलायन के कारण पुराने आंकड़ों के अनुसार 980 ग्राम भूतहा हो गए थे। राज्य गठन के बाद जैसी अपेक्षा थी कि पलायन रुकेगा, उल्टा बढ़ता चला गया, गांव की वास्तविक आबादी 20 से 40 प्रतिशत तक सिमट कर रह गई।

उत्तराखण्ड में यद्यपि पलायन की समस्या शताब्दियों से है, किन्तु वह फसली पलायन, अथवा यों कहें कि रोजगार के लिए अस्थाई आवागमन होता था। साल में कम से कम दो बार यहां का कमाऊ सदस्य रोजगार हेतु बाहर जाता था और कुछ धन अर्जित कर धान की रोपाई अथवा गेहूं की कटाई के लिए अनिवार्यतः गांव में लौट आता था, किन्तु 09 नवम्बर 2000 के बाद अप्रत्याशित रूप से स्थाई प्रकृति का पलायन देखने को मिला। यह पलायन गांव से निकट के कस्बों, नगरों, जनपद केन्द्रों अथवा नैनीताल, उधम सिंह नगर, देहरादून, ऋषिकेश अथवा हरिद्वार जैसे स्थानों पर अधिक हुआ है। एक जानकारी के अनुसार प्रदेश की 52 प्रतिशत आबादी तराई के चारों जनपदों देहरादून, हरिद्वार, उधम सिंह नगर तथा नैनीताल में रह रही है तथा शेष 48 प्रतिशत आबादी 9 पर्वतीय जनपदों में रह रही है। जो जनसंख्या गांव में थी, वह भी अवसर पाते ही गांव से निकलने की सोचती थी।

कोविड-19 ने मजबूरी में ही सही पलायनवादी विचार पर रोक लगाई है। उल्टे प्रवासियों के गांव में पुनर्वापसी के उत्साहजनक आंकड़े दिखाई पड़े। लगभग 06 लाख प्रवासी युवा जो छोटे-छोटे रोजगार हेतु गांव से बाहर गए थे, वे अपने गांव लौट आए। कोविड की बढ़ती गति के कारण लौटने वालों की संख्या में विराम लगा है किन्तु स्थिति सामान्य होते ही शहरों में स्थाई घर बना कर रह रहे प्रवासी उत्तराखण्डी भी अपनी मातृभूमि में लौट आएंगे, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। यही उचित अवसर है कि जिन कारणों से पलायन हुआ था, उनका समाधान किया जाए। उत्तराखण्ड की तीन भौगोलिक इकाइयां उच्च, मध्य एवं तराई भू-भाग है। तराई में आबादी बढ़ी है जबकि उच्च एवं मध्य हिमालयी गांवों से आबादी का पलायन अविश्वसनीय गति से बढ़ा।

उत्तराखण्ड कोई सामान्य राज्य नहीं है, इसकी सामरिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर ही संघ विचार परिवार के घटक संगठनों ने इसे अलग राज्य के रूप में स्थापित करने के संकल्पों का समर्थन किया और यह राज्य अस्तित्व में आया। अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं से सटा होने के कारण इसका सामरिक महत्व जग-जाहिर है, इसी आलोक में यहां के पलायन को देखा जाना चाहिए।

उत्तराखण्ड की समृद्धि, खुशहाली भारत की समृद्धि एवं सम्पन्नता को ही पोषित करेगी। यह हिमालयी राज्य सम्पूर्ण विश्व की मानवता की आस्था का केन्द्र है। अनेक तीर्थों, सरोवरों, पवित्र नदियों एवं हिमानियों को समेटे इस राज्य को प्रकृति ने सब कुछ दिया है किन्तु स्वतंत्रता के बाद जैसा व्यापक विचार हिमाचल को ले कर किया गया वैसा उत्तराखण्ड को लेकर नहीं हुआ। परिणामस्वरूप निरन्तर होते पलायन से यह पर्वतीय राज्य जनशून्यता की ओर बढ़ रहा है। सरकारी उपेक्षाओं का यह आलम है कि उच्च एवं मध्य हिमालयी क्षेत्र की जनता के मनों में यह भावना घर कर गई कि आधुनिक मानवीय सुविधाएं तो शहरी लोगों के लिए आवश्यक हैं। हम तो जैसे दोयम दर्जे के नागरिक हैं, कुछ बचेगा तभी तो हमें मिलेगा। शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, बिजली, पानी, संचार एवं उद्योग जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति यहां गौण है जिस पर अभी भी गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाना चाहिए।

कोविड-19 की वजह से जो प्रवासी युवा शक्ति अपने गांवों में लौटी है वह विकल्प की तलाश में स्वरोजगार हेतु प्रयत्नशील है। पहले की मानसिकता और अब की मानसिकता में अन्तर दिखाई देता है। पलायन से पूर्व इनकी धारणा यह थी कि उत्तराखण्ड में रोजगार के कोई अवसर नहीं है, पलायन हमारी मजबूरी है किन्तु अब यही युवा शक्ति सोचती है कि हम यहीं रहकर इतनी आय कर सकते हैं कि जितना हमारा होटल मालिक 18-18 घण्टे काम करा कर देता था, अपने परिवार के साथ रहते हुए उससे भी अधिक यहीं कमाया जा सकता है, किन्तु यह लक्ष्य समाज एवं सरकार के सहयोग के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

समाज में इस युवा शक्ति को अवसर प्रदान करने की भावना होनी चाहिए जबकि सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों में लाल फीताशाही को सरल करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। ‘मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना’ जैसी महत्वाकांक्षी योजना पर प्रदेश में अच्छा प्रयास हो रहा है किन्तु कागजी कार्यवाहियां अपनी जटिलताओं को छोड़ने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। देहरादून या हल्द्वानी में रह कर इस राज्य की जटिलताओं का अनुभव नहीं किया जा सकता। एक तरफ लॉक डाउन के कारण यातायात कार्यालय आदि बन्द थे, दूसरी ओर आदेश आया कि प्रवासी युवा ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कर अपना पंजीकरण कराएंगे। दुर्गम ग्रामों में कनेक्टविटी की सातत्यता का भी विचार शायद नहीं किया, जबकि ऑनलाइन/ऑफलाइन दोनों प्रकारों पर विचार होना चाहिए था। जो मोबाइल नंबर समस्या समाधान हेतु सार्वजनिक किए गए हैं उन पर बात हो पाना किसी की लाटरी लगने जैसी ही कही जा सकती है। कोर्ट के अनेक प्रमाण पत्र ऐसी परिस्थिति में मांगना जब कहीं निकलना संभव न हो, उचित प्रतीत नहीं होता। नौकरशाही का यह स्वभाव है कि वह यदि किसी काम को कठिन नहीं बनाएगी/मुश्किल से समझ में आने वाली अंग्रेजी में नहीं बनाएगी तो वे विद्वान कैसे साबित होगी? इसलिए इन जटिलताओं में स्वरोजगार हेतु सरकारी सहायता पा लेना चक्रव्यूह तोड़ने से कम उपलब्धि नहीं कही जाएगी, वैसे भी हमारे प्रवासी युवा सामान्य पृष्ठभूमि से वास्ता रखते हैं। स्वरोजगार की सभी कार्यवाहियां स्वीकृति एवं प्रशिक्षण आदि न्याय पंचायत स्तर पर होनी चाहिए। कुछ कर्मचारी/अधिकारियों को ही आने-जाने का कष्ट उठाना पड़ेगा पर बेरोजगारों को दर-दर की ठोकरें नहीं खानी पड़ेंगी, ऐसा व्यावहारिक विचार करना होगा। सरकार को न्याय पंचायत स्तर पर स्वरोजगार समन्वयक का पद सृजित करना होगा, जो स्थाई रूप से स्वरोजगार के मामलों का निस्तारण करेगा। छोटे राज्य की हर गतिविधियां यदि यू.पी. के अनुसार ब्लॉक से ही चलेंगी तो यह सरकार आपके द्वार वाले मिशन के विपरीत होगा।

संघ विचार परिवार की संस्था उत्तरांचल उत्थान परिषद मार्च 2020 से ही अपने गांव लौटे प्रवासी उत्तराखण्डी युवाओं के मध्य संवाद बनाए हुए है। प्रथम चरण में इन लोगों को अपने गांव पहुंचने में सहायता की गई, राहत एवं सेवा कार्य चला कर उन्हें गन्तव्य तक भेजने में सहयोग किया गया। स्वरोजगार की ओर प्रोत्साहित करने हेतु एक ऑनलाइन सर्वे किया गया जिस में 2731 प्रवासियों ने अपनी जानकारी से अवगत कराया। विषय को गम्भीरता को समझते हुए रा.स्व. संघ ने इस अभियान को अपने हाथ में लेते हुए 24 सदस्यीय राज्यस्तरीय ’स्वरोजगार समन्वय समिति उत्तराखण्ड’ का गठन किया। उत्तराखण्ड प्रान्त के प्रान्तप्रचारक युद्धवीर सिंह की उपस्थिति में समिति की गतिविधियां निरन्तर चल रहीं हैं। शासकीय 13 जिलों में स्वरोजगार समन्वय समिति उत्तराखण्ड की इकाइयां गठित की जा चुकी हैं। अब समिति को ब्लॉक स्तर तक गठित करने की योजना है। सर्वे में प्रवासी युवाओं ने 43 ट्रेड्स में से जिन 10 प्राथमिक ट्रेड्स में अपनी रुचि दिखाई है, वे इस प्रकार हैं-

  1. होटल-ढाबे, 2. मुर्गी पालन, 3. जरनल स्टोर, 4. डेरी, गौपालन, 5. भेड़-बकरी पालन, 6. कोचिंग सेन्टर, 7. ट्रैवल ऐजेंसी, ड्राइविंग, 8. सब्जी-फल का उत्पादन एवं व्यापार, 9. मसाले-जड़ी बूटी का कृषिकरण, 10. कम्प्यूटर सेंटर

वरीयता के इन व्यवसायों से सरकार स्वरोजगार की दिशा एवं दशा का निर्धारण कर सकती है। सरकार को कुछ उल्लेखनीय कार्यवाही करनी होगी। प्रवासी बेरोजगार युवाओं का विश्वास अर्जित करना होगा। न्यायपंचायत स्तर पर स्वरोजगार के मेले लगाकर जटिलताओं का निस्तारण करना होगा। अधिकारियों के साथ-साथ मंत्रियों एवं जनप्रतिनिधियों को भी स्वरोजगार के प्रति उत्तरदाई बनाना होगा। विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि उत्तराखण्ड में अनेक व्यक्ति एवं सामाजिक संस्थाएं अच्छे रचनात्मक सेवा कार्य कर रही हैं, उनका सहयोग लेकर इस चुनौतिपूर्ण समय में पलायन के तमस को स्वरोजगार की ज्योति से समाप्त कर सकते हैं।

 

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