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भारतीय संगीत पर विदेशी संगीत का प्रभाव

भारतीय संगीत पर विदेशी संगीत का प्रभाव

by केशव तलेगांवकर
in नवम्बर २०१४, संस्कृति
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तरह -तरह के प्रभाव हमारी संस्कृति ने झेले हैं और आज भी उसी दौर से गुजर रही है। इस समय हमारा परम कर्तव्य हो जाता है कि हम इसकी शुचिता को पवित्र रूप में अनुभव करें। सांगीतिक सांस्कृतिक तत्व को सबल बनाएं तभी हम इसको बचा पाएंगे।

भा रतीय संगीत विश् व के उस चिरंतन, शाश् वत, सार्वभौविक संगीत का प्रतीक है जिसने अपने अंदर बहु आयामी तत्वों को समाहित किया है और उन बहु आयामी तत्वों में जहां हमारे संगीत के पुरातन स्वरूप के अंतर्गत आध्यात्मिकता का सर्वाधिक स्वरूप इसके माध्यम से अंतर्निहित है और उसे परम शाश् वत तत्व की प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया गया है। हमारे ऋषियों, मुनियों की साधना इस बात की ओर इंगित करती है कि उन्होंने अपनी रचना धर्मिता और मौलिक सोच को उसकी अस्मिता के साथ जीवित रखने का भागीरथी प्रयास किया। संगीत का नाद शुद्ध स्वरूप में जीवित रखकर उसे पोषित किया। यही कारण है जब हमारे संगीत की बात होती है तो उसमें सहजता, सौम्यता, सरलता, तादात्म्य का रूप परिलक्षित होता है।

भारतीय संगीत को संपूर्ण विश् व में उसके वैज्ञानिकता के आधार पर सम्मान प्रदान किया जाता है। मेरे विगत २ वर्ष पूर्व चीन प्रवास के दौरान वहां चायना म्यूज़िक कन्जरवेटरी के प्रोफेसर ज़ाओ ने स्पष्ट रूप से कहा कि ‘आपका संगीत पूर्णरूपेण वैज्ञानिकता को कसौटी पर खरा है। भारतीय संगीत ने विश् व संगीत को रचनात्मक दिशा दी है। ‘इसलिए आज हमारा संगीत हमारे देश से ज्यादा बाहर लोकप्रिय हो रहा है। रसिकजन उसको आत्मसात कर रहे हैं, और अत्यधिक रूप से पसंद कर रहे हैं।

वैदिक काल से वर्तमान समय तक यदि भारतीय संगीत के कालगत विकास क्रम पर दृष्टिपात करें तो रह स्पष्ट होगा कि देश -काल -परिस्थिति और तत्कालीन संगीतज्ञों ने इसमें सापेक्ष रूप से परिवर्तन किया। वैदिक काल में जहां संगीत के शास्त्रीय पक्ष को सम्पुष्ट किया गया, वहीं उसके प्रायोगिक पक्ष को यथावत् रखने का भी प्रयास किया गया। लेकिन विकास की इस धारा में संगीत के पारंपरिक तत्वों और उसकी अस्मिता में बहुत कुछ परिवर्तन हुआ, जिसके कारण मूलभूत संगीत के स्वरूप में अंतर आया। इसका मुख्य कारण तत्कालीन परिवेश और उसके अनुसार सामाजिक सोच रहा होगा।

धीरे -धीरे यह विकास क्रम की माला मध्यकालीन युग की ओर अग्रसर हुई। भारतीय वैदिक संगीत के स्वरूप में स्पष्ट रूप से परिवर्तन की धारा इस समय में दिखाई पड़ती है। तेरहवीं शती के उत्तरार्द्ध में अलाउद्दीन खिलजी के समय अमीर खुसरो खिलजी के प्रमुख थे तथा संगीत के विशेष ज्ञाता थे। उन्होंने भारतीय संगीत के वैदिक स्वरूप को धीरे -धीरे परिवर्तित कर ईरानी संगीत के प्रभाव को समाहित किया। यहीं से भारतीय संगीत को परिवर्तन को दिशा मिलती है। अमीर खुसरो ने, जो कि कुशल राजनीतिज्ञ थे, अपनी बौद्धिक क्षमता से ख्याल, तराना शैली वाद्यों में हमारे ही वाद्य वीणा का स्वरूप बदल कर उसे सहतार (सितार ) बना दिया।

कहने का तात्पर्य यह कि विदेशी संगीत का प्रभाव यहीं से सय्यद रूप से देखा जा सकता है। हमारे वैदिक संगीत में निहित आध्यात्मिकता का स्वरूप यहां से परिवर्तित होता है। धीरे -धीरे यह प्रभाव भारतीय संगीत की मूल आत्मा पर पकड़ बनाता गया जिसका फल आज के संगीत में हमें दिखाई देता है। जो परम्परा गुरुकुल के रूप में थी वह घराना परम्परा के रूप में विकसित हुईं और उसका परिणाम यह हुआ कि मध्यकालीन समय में संगीत के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिलता है। मध्यकालीन समय में विकसित संगीत शैलियों पर तत्कालीन समय की राजशाही का प्रभाव समूल रूप से देखने को मिलता है। ख्याल, तराना, ठुमरी, दादरा आदि अनेकानेक गायन शैलियां तत्कालीन समय में परिवर्धित हुईं। यह वह समय था जब संगीत को राजशाही में राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ और संगीत का स्वरूप धीरे -धीरे बदल कर मनोरंजनात्मक हो गया। बादशाह को प्रसन्न करना संगीतज्ञों का एकमात्र उद्देश्य था। उत्तर भारत में इस परम्परा ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। आज संगीत का जो स्वरूप देखने को मिल रहा है, वह मध्यकाल की ही देन है।

कालचक्र की विकासात्मक गति कहें या तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार इसमें परिवर्तन कहें, यह सभी ने आत्मसात किया। अमीर खुसरो ने गायन, तेल, तबला आदि सभी में अपने विचारों के माध्यम से परिवर्तन किया। मेरा यह मानना है कि भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आत्मसात करने का माद्दा बहुत जबरदस्त है। हम सहजता से उस रंग में मिल जाते हैं। यही कारण है कि हमारे कलात्मक क्षेत्र का विस्तार सकारात्मक दिशा की ओर मिलता है।

२० वीं शती में संगीत का स्वरूप और बदला। इसमें हमारे वाद्ययंत्रों में परिवर्तन देखने को मिलता है। विद्युतीय वाद्य (इलैक्ट्रोनिक ) तानपूरा, तबला, नगमा पेटी, की बोर्ड (सिन्थेसाइजर ) आदि अनेकानेक वाद्यों ने अपना स्वरूप बदला। इससे सबसे बडी हानि वाद्य निर्माताओं और उसके बजाने वाले कलाकारों को हुई। इलैक्ट्रोनिक वाद्य बनने से इसकी मांग बहुत घट गई। यह सब विदेशी संगीत और उसमें प्रयुक्त वाद्यों का ही परिणाम है। जहां तक सिनेमा संगीत का प्रश् न है उस पर संगीत के परिवर्तित स्वरूप का पूर्ण प्रभाव देखने को मिलता है। पहले का संगीत फिर भी आनंददायी था, वर्तमान संगीत पर टीका करना ही अपराध है। इससे हमारे संगीत की मूल आत्मा का हनन होता है। वैश् विक युग की मांग ने इसे पोषित किया। आज का हमारा संगीत पूर्ण रूप से पाश् चात्य संगीत में रंगा है। मेरा ऐसा मानना है कि प्रयोग हों लेकिन उसमें हमारी संगीत की मूल आत्मा का हनन न हो, तभी हम अपने संगीत की वास्तविकता को कायम रख सकेंगे।

वर्तमान समय में भारतीय संगीत की अस्मिता को स्थापित रखना और उसे सांस्कृतिक, वैश् विक प्रदूषण से बचाना हमारा पुनीत कर्तव्य है। भारतीय संगीत की अविरल धारा पुनीत और पावन है। उसमें आध्यात्मिकता के द्वारा अंतरंग संवेदनाओं की अनुभूति सहज हो और उसके वैज्ञानिक पक्ष को सबल रखते हुए हम इसके स्वरूप का संवर्द्धन संरक्षण कर सकें, यह बहुत बडी बात होगी।

वर्तमान समय सांस्कृतिक संक्रमण का है। तरह -तरह के प्रभाव हमारी संस्कृति ने झेले हैं और आज भी उसी दौर से गुजर रही है। इस समय हमारा परम कर्तव्य हो जाता है कि हम इसकी शुचिता को पवित्र रूप में अनुभव करें। सांगीतिक सांस्कृतिक तत्व को सबल बनाएं तभी हम इसको बचा पाएंगे। हमारे संगीत, कला, संस्कृति ने परिवर्तन का बहुत बडा युग देखा है लेकिन इतने पर भी हमने अन्य सार्थक परिवर्तनों सहज सरल भाव से अपनाया है, यह हमारी बृहद् मानसिकता का परिचायक है।

अंत में, मै कहना चाहूंगा कि जहां एक ओर संपूर्ण विश् व हमारे संगीत को मूल परम्परागत रूप में आत्मसात कर रहा है, वहां हमारे देश में इसकी स्थिति और परिवेश पर सार्थक चिंतन की आवश्यकता है। कहीं भौतिकतावादी संस्कृति की अंधी दौड़ में हम अपने आपको ही न भूल जाऐं, तब स्थिति और भी अधिक विचिला बनेगी। सावधान रहकर, अपने को इन स्थितियों से बचाना है तभी हम अपने सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक संगीत को पोषित कर पाएंगे तथा उसके अस्तित्व की रक्षा कर सकेंगे।

 

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