राम की अयोध्या वापसी

कौशल्या ने सादगी का जो चोला पति के जाने के बाद ओढा, वह नहीं बदला। अब वह दुकान शहर में ‘कौशल्या रेस्टोरेन्ट’ के नाम से जानी जाने लगी। अपनी आमदनी से वह कुछ दान-पुण्य करती, बचत से भावी बहू के लिए जेवर बनवाती, मन में बेटे की गृहस्थी बसाने का सपना जो आकार लेने लगा था।

ताई आप रंगोली नहीं सजातीं दरवाजे पर? अपने दरवाजे पर रंगोली सजा रही रानो ने अपनी वृद्ध पड़ोसन कौशल्या से पूछा। रंग मुझसे नाराज है रानू। कभी टिकते ही नहीं मेरी जिंदगी में.. खंबे का सहारा लेकर बैठी कौशल्या ने जवाब दिया।

ऐसा क्यों कह रही हैं ताई? लाइए मैं आपके दरवाजे पर रंगोली सजा देती हूं। कहते हुए रानू ने कौशल्या के दरवाजे पर पानी छिटक कर छोटी सी रंगोली बना उसमें रंग भर दिए। देखिए ताई कितने अच्छे लग रहे हैं रंग। सज गया है न दरवाजा, अब मुस्कुराइए जरा।

सन्नाटे भरे घर में मुस्कान भी आने से डरती है रानू!-कौशल्या

ताई, आप भी ना वही पुरानी बातें लेकर बैठ जाती हो। दिवाली है, थोड़ा उत्साह मनाइए। दुखी रहने से खुशियां भी दरवाजे से लौट जाती हैं। आप खुश रहने का प्रयास तो कीजिए फिर देखिए कैसे खुशियां आपके द्वार खटखटाकर भीतर आने को बेताब हो जाएंगी। चलिए मैं गूंजे बना रही हूं। आप मुझे बताइए क्योंकि आपके हाथों के बने गूंजे इन्हें बहुत पसंद हैं।-रानू

अब तो बरसों से कुछ नहीं बनाया री।-कौशल्या

रानू सुन चुकी है कौशल्या ताई की पीड़ा। डेढ़ बरस का था राघव जब कौशल्या ताई के पति उन्हें छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। ससुराल वाले धीरे-धीरे इस भय से कि कहीं कोई सहायता न मांगने लगे मुख मोड़ते चले गए। मायके वालों ने बहुत जोर दिया कि बेटा छोड़ दो ससुराल वालों के भरोसे। आखिर उनका खून है, पाल लेंगे। जवान हो देखने में ठीक-ठाक हो दूसरा ब्याह हो जाएगा मगर कौशल्या अपनी बात पर अड़ी रही। मां-बाबा, सुहागन होने का जितना सुख भोगना था भोग लिया। अब तो मैं यह उम्र बेटे की परवरिश में खर्च करुंगी। मेरे राघव का अधिकार इस जिंदगी पर है। मां-बाप थे तब तक कौशल्या की खोज खबर होती रही। उनके बाद इस महंगाई के दौर में भाई-भोजाई ने भी अपना दामन खींच लिया। कौशल्या स्वाभिमानी थी। नाम राशि में ही अद्भुत धैर्य समाया है, तभी तो एक वह कौशल्या थी, जिसने अपनी दोनों सौत को छोटी बहन की तरह स्वीकार किया। इकलौते बेटे को वनवास मिलने पर धैर्य पूर्वक उसके लौटने का इंतजार किया फिर कलयुग कौशल्या भला कैसे पीछे रह सकती थी। पति जो हमेशा उसके हाथों से बने खाने की तारीफ करते हुए कहते थे- ‘कौशल्या, तुम्हारे हाथों में जादू है, जो भी बनाती हो उस पर अमृत बरस जाता है।’ कौशल्या ने पति के इन्हीं उद्गार को जीवन में रोजी-रोटी का माध्यम बना लिया। रोज सुबह जल्दी उठती, उड़द की दाल पीसती, ताजा मावा लाती फिर बेटे को तैयार कर स्कूल भेजती। दिनभर गुलाब जामुन, उड़द की कचौड़ी, दही बड़े बनाकर शाम को घर के बाहर ओटले पर दुकान सजाकर बैठ जाती। देखते ही देखते उसके पकवान हाथों-हाथ बिक जाते। धीरे-धीरे उसने एक हाथ से खींचने वाला ठेला खरीद लिया। बेटा भी धीरे-धीरे बढ़ रहा था। स्कूल से आकर मां का हाथ बंटाता। अब कौशल्या को लगने लगा था कि वह अकेली नहीं है। धीरे-धीरे उसने अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया। एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली। दुकान में कई तरह के पकवान बनने लगे। जैसे- आलू की चाट, दही भल्ले और कांजी बड़े। कहने को तो कौशल्या ने काम के लिए आदमी रखे थे मगर सारी चीजें वह अपनी देखरेख में खुद बनवाती इसलिए इतने बरसों में उसके बनाए व्यंजनों के स्वाद में कोई अंतर नहीं आया। ग्राहक का विश्वास ही कौशल्या की पूंजी थी। ऊपर से उसका मिलनसार व्यवहार भी। आज भले ही कौशल्या के दिन बदल गए मगर कौशल्या ने सादगी का जो चोला पति के जाने के बाद ओढा, वह नहीं बदला। अब वह दुकान शहर में ‘कौशल्या रेस्टोरेन्ट’ के नाम से जानी जाने लगी। अपनी आमदनी से वह कुछ दान-पुण्य करती, बचत से भावी बहू के लिए जेवर बनवाती, मन में बेटे की गृहस्थी बसाने का सपना जो आकार लेने लगा था। दिन फिरते और बेटे के जवान होते ही जो रिश्तेदार बुरे दिनों में छिटक गए थे आज फिर गले लगने को आतुर थे। उदारमना कौशल्या सब समझ रही थी किंतु उसने कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की बस चाहती थी कि कोई सुशील कन्या मिल जाए तो बेटे की गृहस्थी बस जाए।

आखिर विमलेश घर की बहू बनकर आई। कुछ दिनों सब ठीक चलता रहा फिर विमलेश ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। छोटी-छोटी बातों पर तुनक मिजाजी। ऊपर से उसका पूरा परिवार ही आकर यहां बसने लगा। धीरे-धीरे कौशल्या को एहसास होने लगा कि वह अपने ही घर में मेहमान बनती जा रही है। समधी-समधन और उनका बेटा हक के साथ उस घर पर अपना अधिकार जमाए हुए है। हद तो उस रोज हो गई जब विमलेश ने कौशल्या से कहा, ‘माताजी आप अपना बिस्तर बैठक में लगा लीजिए। अकेली तो हो, आप कमरे में सो या बैठक में सोएं, इससे क्या फर्क पड़ता है? पापा-मम्मी बाहर सोते अच्छे नहीं लगेंगे।’ इस पर कौशल्या से रहा नहीं गया। वह बोल पड़ी, समधन जी, बेटियों के घर मां-बाप मेहमान के रूप में ही अच्छे लगते हैं। आखिर बड़े बूढ़ों ने कुछ सोच समझकर ही रिवाज बनाए हैं। बस यहीं उससे गलती हो गई। मान-पान वाली समधन को बात सीने में तीर की तरह चुभ गई और अपने मां-बाप का अपमान विमलेश को खल गया, जिससे घर में तांडव मच गया। उसने खुलकर त्रिया चरित्र दिखाया और राघव के आते ही शर्त रख दी कि वह इस घर में नहीं रहेगी। कौशल्या ने दोषी न होते हुए भी बहु और समधन से बहुत क्षमा याचना की मगर विमलेश तो मानो इसी अवसर की तलाश में थी। कभी राम को वनवास मिला था। आज राम ने खुद कौशल्या को उम्र के इस पड़ाव में अकेला छोड़ दिया। जन्मदात्री की सारी तपस्या को पल में भुला दिया।

कौशल्या पति के जाने पर इतनी नहीं टूटी थी, जितनी अब; क्योंकि उस समय उसके सामने जीने का एक मकसद था। इसके लिए ही उसने दूसरे विवाह का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया था। जवानी में वैधव्य स्वीकार कर अपना तन-मन भगवान को अर्पण कर दिया मगर आज वह किसके लिए जिए? उसके सामने कोई मकसद नहीं था। उधर राघव का व्यापार शीर्ष पर था। वह अहंकार में खोया मां के श्रम को भूल गया। अहंकार की ही तो लड़ाई थी राम-रावण की वरना राशि तो एक ही थी दोनों की। धीरे-धीरे दुकान नौकरों के हवाले हो गई। अब ‘कौशल्या रेस्टोरेंट’ की वह ख्याति नहीं रह गई शहर में। अहंकार की ध्वजा गिरने में अधिक समय नहीं लेती। कौशल्या रेस्टोरेन्ट से सामने ही कचरू हलवाई ने अपनी दुकान खोल ली। अब ग्राहकों को राघव की दुकान पर बनी चीजों में वह स्वाद नहीं लगता, जो कचरू हलवाई के बनाए कचरी, समोसे में था। कौशल्या की बीस बरस की तपस्या को महज दो बरस में राघव ने पटरी पर ला दिया। उसे तो खुद कुछ आता न था कि कोई और काम शुरू करता। बुरा वक्त देख उसके सास-ससुर और साले भी धीरे-धीरे साथ छोड़ गए। सब दूर से हारा राघव और विमलेश के पास अब कौशल्या की शरण के अतिरिक्त और कोई चारा न था।

शाम को लक्ष्मी पूजन की तैयारियां चल रही थीं। पूरा मोहल्ला दीपक की रोशनी से जगमगा रहा था। अगर कहीं अंधेरा था, तो कौशल्या के घर पर। अपने दरवाजे पर दीपक लगाते हुए रानू दो दीपक कौशल्या के दरवाजे पर भी रख आई।

ताई, लक्ष्मी पूजन करें? बच्चे पटाखे छोड़ने की जिद कर रहे हैं। चलिए पहले आपके यहां आरती कर लें फिर मेरे यहां करेंगे।-रानू

कौशल्या सोच रही थी,‘भगवान की क्या लीला है। रानू जैसी बहू चाही थी। कुछ बहुत अधिक तो नहीं मांगा था भगवान से? बहु दी नहीं अब रानू को भेजकर क्या चमत्कार दिखाना चाहते हैं?’ दोनों अभी आरती की तैयारी कर ही रही थीं कि तभी दरवाजे पर आहट हुई।

‘मां! मैं लौट आया।‘-राघव

कौशल्या और रानू ने पलटकर देखा। दरवाजे पर राघव, विमलेश और उनका दो साल का बेटा खड़ा था। कौशल्या को ईश्वर की लीला समझ नहीं आई। वह सोच रही थी कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही। ‘मां, हमें माफ कर दीजिए। हम भूल गए थे कि हमारे जीवन में जो भी सुख-सुविधाएं हैं, आप ही की बदौलत हैं। आपको नींव बनाकर हम शिखर पर तो पहुंच गए मगर हमें नींव की अनदेखी करने की सजा मिली। इसलिए ईश्वर ने हमें अर्श से फर्श पर ला दिया है।’-राघव

कौशल्या बुत बनी खड़ी थी, तभी रानू आरती का थाल लेकर कौशल्या की ओर बढ़ी। ताई, देख क्या रही हैं? आज राम वापस अपनी अयोध्या नगरी लौटे हैं। आरती नहीं करोगी?

 

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