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फंडिंग एजेन्सी के हाथों में आंदोलन

फंडिंग एजेन्सी के हाथों में आंदोलन

by आशीष अंशू
in जनवरी- २०२२, राजनीति, विशेष, सामाजिक
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इस तरह एनजीओ में धीरे-धीरे फंडिंग एजेन्सी का दबाव अधिक बढ़ने लगा और आंदोलन समाज के हाथ से निकल गया। वर्ना देश में कोई भी आंदोलन समाज से कट कर कैसे चल सकता है? जैसे दिल्ली में हाल में ही सीएए और एनआरसी के खिलाफ आंदोलन चला। जिसकी वजह से लाखों लोगों की जिन्दगी प्रभावित हुई। स्कूल बस, एम्बुलेन्स तक को शाहीन बाग आंदोलन में बाधित किया गया। क्या महीनों ऐसे रास्ता बंद करके बैठे लोगों के समूह को आंदोलन कह सकते हैं, जिस आंदोलन में कोई मानवीय पक्ष दिखाई ना देता हो। 

स्वयंसेवी संगठन का नाम बदलकर जब एनजीओ हुआ तब अपने देश में इस परिवर्तन का विरोध होना चाहिए था लेकिन इसे हम सबने स्वीकार किया। जबकि किसी संगठन की वह पहचान कैसे हो सकती है जो वह नहीं है। गैर सरकारी संगठन का अर्थ यही होता है ना कि जो संगठन सरकारी नहीं है। मतलब देश को दो तरह के संगठनों में बांटने का प्रयास किया गया। एक सरकारी और दूसरा गैर सरकारी। तीसरे के लिए यहां कोई विकल्प बचा ही नहीं। आप सरकार के साथ हैं या फिर सरकार के खिलाफ हैं।

बात जब तक स्वयंसेवी संगठनों तक थी, उस जमाने में चंदा का अर्थ समाज से थोड़ा-थोड़ा पैसा इकट्ठा करना और फिर समाज के काम में लगा देना ही होता था। उस जमाने में फंडिंग एजेन्सी की अवधारणा नहीं थी। इतने कानून और आडिट का झंझट नहीं था लेकिन सारे काम चकाचक चल रहे थे। पंचायत से लेकर गांव का मंदिर, स्कूल, तालाब की चिन्ता तक समाज करता था। जब एनजीओ काल आया, फिर घर के बाहर के नाले से तालाब की सफाई तक के लिए हम शासन के मोहताज हो गए। एनजीओ काल में आंदोलन फैशन बन गया। आंदोलन के लिए समाज की भागीदारी से अधिक फंडिंग महत्वपूर्ण हो गई। यदि आपके एनजीओ के पास पैसा है तो आपका आंदोलन टिक जाएगा और आपके एनजीओ के पास पैसा नहीं है तो मुद्दा कितना भी महत्वपूर्ण हो आप आंदोलन को जारी नहीं रख पाएंगे।

आज किसी भी गैर राजनीतिक आंदोलन की कल्पना एनजीओ की भागीदारी के बिना नहीं कर सकते। आंदोलन तो छोड़ दीजिए, आज अस्पताल, स्कूल, धर्मशाला की कल्पना तक बिना एनजीओ के नहीं की जा सकती। दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक सभी बड़े स्कूल से लेकर अस्पताल तक एनजीओ ही तो हैंं। आज हमें मुड़कर पीछे देखना चाहिए कि इन 75 सालों में हम कहां से कहा आ गए?

28 दिसम्बर 2013 को पहली बार दिल्ली में एनजीओवालों की सरकार बनी थी। जिसका नेतृत्व अरविन्द केजरीवाल कर रहे थे। जो वर्तमान में दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। एनजीओ वाले पहले भी एनएपीएम (नेशनल अलायंस फार पीपुल्स मूवमेंट) के नाम से मेधा पाटकर के नेतृत्व में राजनीति में सीधा हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन उसमें उन्हें विशेष सफलता नहीं मिल पाई थी।

भारत में कांग्रेस के शासन में प्रत्येक 600 लोगों पर एक एनजीओ चल रहा था। यह कांग्रेस सरकार का सोशल वर्क का एनजीओ मॉडल था। जिसमें आंदोलन तक एनजीओ के हवाले कर दिया गया था और एनजीओ वालों की नकेल कांग्रेस ने अपने हाथ में पकड़ रखी थी। बड़ी संख्या में वामपंथी रूझान वाले एनजीओकर्मी कांग्रेस के समर्थन में या कांग्रेस की देखरेख में सक्रिय थे। शबनम हाशमी गुजरात में जब सामाजिक कार्यकर्ता बनकर 2002  के दंगों के दौरान भारतीय मीडिया के लिए ‘मानवीय चेहरा’ बनी हुई थी, किसी मीडियाकर्मी में यह साहस नहीं था कि वह बता पाए या लिख पाए कि शबनम कांग्रेस की ’आन द रिकॉर्ड’ कार्यकर्ता हैंं। तीस्ता सितलवार को कांग्रेस ने 2007 में पद्मश्री से सम्मानित किया। तीस्ता को जमानत दिलाने के लिए कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल देर रात भागे-भागे सर्वोच्च न्यायालय गए। तीस्ता ने गुजरात में कांग्रेस के लिए यात्राएं निकाली लेकिन उसकी पहचान मीडिया में एक कांग्रेसी की नहीं बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता की थी।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एनजीओ वालों की अपनी एक टीम बनाई थी। जिसे उन्होंने एनएसी का नाम दिया हुआ था। इस समूह में शामिल लोगों के पास या तो अपना एनजीओ था या फिर वे एनजीओ-नेटवर्क में सक्रिय लोग थे।

इस समूह में हर्ष मंदर (उम्मीद अमन), माधव गाडगिल, अरुणा राय, जीन द्रेज, मिहिर शाह (समाज, प्रगति, सहयोग), नरेन्द्र जाधव, आशीष मंडल, प्रो प्रमोद टंडन, दीप जोशी (प्रदान), फराह नकवी, डॉ. एनसी सक्सेना, अनु आगा, एके शिवकुमार, मृणाल चटर्जी (सेवा, अहमदाबाद) जैसे दिग्गजों के नाम शामिल थे।

कांग्रेस शासन के 50 से अधिक सालों में उदारवादी एनजीओ वालों के लिए एक अनकहा दिशानिर्देश था कि आप चाहे आवश्यकता पड़ने पर कांग्रेस की थोड़ी आलोचना भी कर दें लेकिन भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम पर आपके अंदर घृणा और नफरत ना सिर्फ भरी हो बल्कि आपके कार्यक्रमों में यह प्रदर्शित भी होना चाहिए।

इस तरह एनजीओ में धीरे-धीरे फंडिंग एजेन्सी का दबाव अधिक बढ़ने लगा और आंदोलन समाज के हाथ से निकल गया। वर्ना देश में कोई भी आंदोलन समाज से कट कर कैसे चल सकता है? जैसे दिल्ली में हाल में ही सीएए और एनआरसी के खिलाफ आंदोलन चला। जिसकी वजह से लाखों लोगों की जिन्दगी प्रभावित हुई। स्कूल बस, एम्बुलेन्स तक को शाहीन बाग आंदोलन में बाधित किया गया। क्या महीनों ऐसे रास्ता बंद करके बैठे लोगों के समूह को आंदोलन कह सकते हैं, जिस आंदोलन में कोई मानवीय पक्ष दिखाई ना देता हो।

दिल्ली के सिंधु बोर्डर पर एक दलित व्यक्ति का आंदोलन की टेंट के बाहर हाथ काट दिया गया, एक आदमी को जला दिया गया, एक लड़की के साथ बलात्कार होता है। उसके बाद भी सड़क पर टेंट लगाकर बैठे लोगों को हम आंदोलनकर्मी कैसे कहें?

एक अनुमान के अनुसार इस आंदोलन की वजह से 7000 के आस-पास उद्योग प्रभावित हुए। वास्तव में किसानों का आंदोलन गरीब विरोधी ही साबित हुआ क्योंकि इस आंदोलन ने सबसे अधिक निम्न मध्यम वर्गीय लोगों को प्रभावित किया है। एसोचैम के अनुमान पर विश्वास करें तो कुछ महीने पहले पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में चल रहे किसान आंदोलन की वजह से हर दिन करीब 3,500 करोड़ रुपये के नुकसान की बात कही गई थी। पंजाब हरियाणा दिल्ली से लगे जितने भी राज्य हैं, उन्होंने आंदोलन की सबसे अधिक कीमत दी है। एक साल में इस आंदोलन ने देश की इकोनॉमी को अरबों रुपये का नुकसान पहुंचाया है।

किसान आंदोलन तो स्थगित हो गया है लेकिन बहुत जल्द यही बहुरुपिए लोग पुन: किसी मुद्दे पर किसी न किसी भेष में फिर सामने आएंगे। जब तक मोदी सरकार है तब तक एजेंडे के तहत आंदोलन का खेल चलता ही रहेगा।

 

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Tags: anti india protestfunding agencieshate politicshindi vivekhindi vivek magazinepseudo-secularradicalism

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