” मैं पांचाल नरेश महाराज द्रुपद की पुत्री द्रौपदी आज भगवान सूर्य के सहित दसों दिशाओं की सौगंध खाकर संपूर्ण कुरु वंश को यह श्राप देती हूँ………..
“न…..नहीं पुत्री नहीं….! श्राप मत देना पुत्री! श्राप मत देना!”महारानी गांधारी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर द्रौपदी से याचना की!
हे महारानी! यद्यपि आप जानती हैं कि मेरे साथ इस कुरु राजसभा में क्या करने का प्रयास किया गया है? फिर भी आप…..? द्रौपदी ने अपने आंसुओं को अपने आंचल से पोछते हुए बड़े आर्द्र स्वर में पूछा !
“हे पुत्री! नपुंसकों की इस राजसभा में नारी मर्यादा का मान भला कौन समझ सकता है ?
इन्हें कहाँ पता कि जिस भूभाग पर नारी मर्यादा का मानमर्दन होता है वो भूमि सदा-सदा के लिए पुरुष जनना बंद कर देती है !
और जिन पुरुषों के सामने नारी का अपमान होता है उन्हें कापुरुष ही कहा जाता है पुत्री! उन्हें नपुंसक ही तो कहा जाता है!”
हस्तिनापुर राजदरबार में अजीब सी स्तब्धता छाई हुई थी! सभी सर झुकाये बैठे हुए थे!
“परन्तु द्यूत नियमों से अब यह केवल एक दासी है माता श्री!” दुर्योधन ने नजरें नीची किये हुए अपनी मूर्खता व्यक्त की!
महारानी गांधारी के चेहरे से होकर एक कुटिल मुस्कान निकल गई उन्होंने व्यंग्यात्मक हंसी हंसते हुए कहा,” मुझे तो यहाँ सभी दास ही दिखाई दे रहे हैं दुर्योधन !
महाराज पुत्रमोह के दास हैं,पितामह भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के ,गुरु द्रोणाचार्य कृतज्ञता के दास है तो तुम अपनी महत्वाकांक्षा के , अंग राज कर्ण राजपद के लोभ का दास है तो भ्राता शकुनि अपने कुटिलता के पाशों के और महामंत्री विदुर राजनीति की किताब के दास हैं!
पुत्र राजनीति के किताब के ! दासता मनुष्य से मनुष्यता छीन लेती है वह बस पशु रह जाता है पशु!”
महारानी गांधारी ने संपूर्ण कुरु सभा को संबोधित करते हुए दुर्योधन से पुनः कहा,” नारी प्रकृति का ही एक रूप है मूर्ख! और प्रकृति को प्रताड़ित करने का प्रयास प्रलय को आमंत्रित करने जैसा ही है!
सच भी यही है जब -जब भी सभ्य समाज ने नारी वर्ग की प्रताड़ना को मूकदर्शक की भांति देखते रहने का महा पाप किया है विनाश की ऐसी लीला का प्रारम्भ हुआ है कि मनुष्यता भी त्राहि- त्राहि कर उठी है!
वसुंधरा ने शोणित स्नान किया है!और वंश में कोई चिराग तक जलाने वाला शेष नहीं बचा है!
किंतु दुर्भाग्य!
आज सैकड़ों वर्षों से उसी पवित्र भारत भूमि पर कुछ नरपिशाचों ने निरंतर असहाय सनातनी अबलाओं की मर्यादाओं का हरण किया है! उनके प्राण लिए हैं
किंतु उन्हें बचाने कोई नहीं आया!
नहीं जगा किसी का भी जमीर !
नहीं उठी किसी विकर्ण के विद्रोह की आवाज!
समूचे आर्यावर्त की मानव सभ्यता मूक दर्शक बनी रही! नहीं फड़की किसी अर्जुन की भुजा! नहीं ली किसी भीम ने इन नरपिशाचों के वध की प्रतिज्ञा!
नहीं हुआ कोई देवासुर संग्राम !
शायद इसीलिये उनकी अतृप्त आत्मायें हर क्षण ललकार रही है समस्त सनातनी पुरुष जाति को और धिक्कार रही हैं मानवीय संवेदनाओं को!
हे भारत के सभी सनातनियों आज इन असहाय अबलाओं की कराहती रूहों का अभिशाप एक दिन तुम सबको निगल जायेगा!
इनकी इन चीखों को नजरअंदाज कर सोने वाले नपुंसको याद रखना अपराध तुम्हारा भी इन शाहरुख जैसे दरिंदों के बराबर ही है!
क्यों कि जब निर्णय प्रारब्ध के हाथ होता है तो मौन रहकर अपराध देखने वाले भी कलंकित नामों के साथ बाणों की मृत्यु शैय्या पर ही पाये जाते हैं! अपराधियों का तो नामों निशान मिट ही जाता है!
और हाँ शासन सत्ता में बैठे अंधे बहरे धृतराष्ट्र से न्याय की उम्मीद तो कदापि मत करना!
क्षमा करना अंकिता