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ईसाई धर्मांतरण के खिलाफ स्वधर्म रक्षक तालिम रुकबो

ईसाई धर्मांतरण के खिलाफ स्वधर्म रक्षक तालिम रुकबो

by हिंदी विवेक
in अध्यात्म, ट्रेंडींग, देश-विदेश, पर्यावरण, मीडिया, युवा, राजनीति, विशेष, संघ, संस्कृति, सामाजिक, साहित्य
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पूर्वोत्तर भारत का सुदूर अरुणाचल प्रदेश चीन से लगा होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। पहले उसे नेफा कहा जाता था। वहाँ हजारों वर्ष से रह रही जनजातियाँ सूर्य और चन्द्रमा की पूजा करती हैं; पर वे उनके मन्दिर नहीं बनातीं। इस कारण पूजा का कोई व्यवस्थित स्वरूप भी नहीं है। इसका लाभ उठाकर ईसाई मिशनरियों ने उन्हें हिन्दुओं से अलग करने का षड्यन्त्र किया। उन्होंने निर्धन एवं अशिक्षित वनवासियों की मजबूरी का लाभ उठाया और लालच देकर हजारों लोगों को ईसाई बना लिया। अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट जिले में एक दिसम्बर, 1938 को जन्मे श्री तालिम रुकबो ने शीघ्र ही इस खतरे को पहचान लिया। वे समझते थे कि ईसाइयत के विस्तार का अर्थ देशविरोधी तत्वों का विस्तार है। इसलिए उन्होंने आह्वान किया कि अपने परम्परागत त्योहार सब मिलकर मनायें। उन्होंने विदेशी षड्यन्त्रकारियों द्वारा जनजातीय आस्था पर हो रहे कुठाराघात को रोकने के लिए पूजा की एक नई पद्धति विकसित की। उनके प्रयासों का बहुत अच्छा फल निकला। राज्य शासन ने भी स्थानीय त्योहार ‘सोलुंग’ को सरकारी गजट में मान्यता देकर उस दिन छुट्टी घोषित की।

श्री तालिम रुकबो ने 1976 में सरकारी नौकरी छोड़कर पूरा समय समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने कालबाह्य हो चुके अपने प्राचीन रीति-रिवाजों को समयानुकूल बनाया। वे एक श्रेष्ठ साहित्यकार भी थे। उन्होंने अंग्रेजी तथा अपनी जनजातीय भाषा में अनेक पुस्तकें लिखीं। उन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी परम्परा से चले आ रहे लोकगीतों तथा कथाओं को संकलित कर उन्हें लोकप्रिय बनाया। इससे अंग्रेजी और ईसाई गीतों से प्रभावित हो रही नयी पीढ़ी फिर से अपनी परम्परा की ओर लौट आई।

विश्व भर के जनजातीय समाजों में पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-तालाब अर्थात प्रकृति पूजा का बड़ा महत्व है। श्री रुकबो की जनजाति में दोनी पोलो (सूर्य और चन्द्रमा) की पूजा विशेष रूप से होती है। श्री रुकबो ने ‘दोनी पोलो येलाम केबांग’ नामक संगठन की स्थापना कर लोगों को जागरूक किया। उन्होंने सैकड़ों गावों में ‘दोनी पोलो गांगीन’ अर्थात सामूहिक प्रार्थना मंदिर बनवाये तथा साप्ताहिक पूजा पद्धति प्रचलित की। पूजागृह बनने के बाद स्थानीय युवक-युवतियाँ परम्परागत ढंग से उनकी सज्जा भी करते हैं।

इस प्रकार श्री रुकबो के प्रयासों से नयी पीढ़ी फिर धर्म से जुड़ने लगी। वनवासी कल्याण आश्रम तथा विश्व हिन्दू परिषद के सम्पर्क में आने से उनके कार्य को देश भर के लोगों ने जाना और उन्हें सम्मानित किया। लखनऊ के ‘भाऊराव देवरस सेवा न्यास’ ने उन्हें पुरस्कृत कर उनके सामाजिक कार्य के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। इससे उत्साहित होकर और भी कई लोग इस कार्य में पूरा समय लगाने लगे। इस प्रकार वह अभियान क्रमशः विदेशी व विधर्मी तत्वों के विरुद्ध एक सशक्त आंदोलन बन गया।

भारत के सीमान्त प्रदेश में भारत भक्ति और स्वधर्म रक्षा की अलख जगाने वाले, जनजातीय समाज की सेवा और सुधार हेतु अपना जीवन समर्पित करने वाले श्री तालिम रुकबो का 30 दिसम्बर, 2001 को देहान्त हुआ। उनके द्वारा धर्मरक्षा के लिए चलाया गया आन्दोलन अब भी जारी है। जनजातियों में पूजा-पद्धतियों का विकास हो रहा है। वनवासी गाँवों में पूजास्थल के माध्यम से सामाजिक समरसता एवं संगठन का भाव बढ़ रहा है।

(संदर्भ : भाऊराव देवरस सेवा न्यास का पत्रक तथा पांचजन्य)

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