व्यापक बुराइयों की अधिक चर्चा करने से कुछ लाभ नहीं नहीं । वस्तुस्थिति को हम सब जानते ही हैं । इस चर्चा से चित्त में क्षोभ और संताप ही उत्पन्न होता है । यों भले मनुष्यों का भी अभाव नहीं है वे प्रत्येक क्षेत्र में, बदनाम क्षेत्रों में भी मौजूद रहते हैं, पर उनकी संख्या नगण्य है । असुरता का व्यापक विस्तार अपने कैसे कड़वे और विषैले प्रतिफल उत्पन्न कर रहा है, सो सामने प्रस्तुत ही है । सर्वत्र अशांति, असंतोष, विक्षोभ, संताप, द्वेष क्लेश, रोग, शोक, दैन्य, अभाव,एवं संघर्ष का उद्वेग भरा वातावरण मौजूद है । कहीं भी शांति नहीं, किधर भी चैन नहीं, जो प्रगति हम करते जाते हैं, वही विपत्ति बनकर गले में फाँसी के फंदे की तरह जकड़ती चली जाती है । विज्ञान की उन्नति ने एटम युग लाकर हमें खड़ा कर दिया है । जहाँ मानव सभ्यता सर्वनाश के कगार पर खड़ी-खड़ी त्राहि-त्राहि पुकार रही है ।
प्रश्न यह है कि क्या इस बढ़ती हुई असुरता को इसी रूप में बढ़ने दिया जाये और सर्वनाश की घड़ी के लिए निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करते रहा जाए ? अथवा स्थिति को सुधारने के लिए कुछ प्रयत्न किया जाए ? विवेक, कर्तव्य, धर्म और पुरुषार्थ की चुनौती यह है कि निष्क्रियता उचित नहीं । शांति का संतुलन बनाए रखने के लिए धर्म और कल्याण की रक्षा के लिए हमें कुछ करना ही चाहिए । जिस दिशा में अपने कदम अब तक तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं, उसी सर्वनाश की ओर अब इस दौड़ को बंद किया ही जाना चाहिए । असुरता के विरुद्ध विवेक की इसी प्रतिक्रिया का नाम है -“युग निर्माण योजना” ।
प्रस्तुत योजना के अंतर्गत हमें मानव जीवन का उद्देश्य, आदर्श, तत्वज्ञान और व्यवहार सीखना पड़ेगा । फूहड़पन से जिंदगी जीना कोई बुद्धिमानी नहीं । चौरासी लाख योनियों में, करोड़ों वर्षों बाद मिले हुए इस अवसर को यूँ ही गंदे-संदे ढंग से जी डालना, यह भी कोई समझदारी की बात है । जब थोड़ी भी उपयोगी और कीमती चीजों को संभाल कर रखने और ठीक उपयोग करने की बात सोची जाती है, तो “मानव जीवन” जैसे सुर दुर्लभ अवसर को ऐसी उपेक्षा अस्त-व्यस्तता के साथ क्यों जिया जाना चाहिए ? उचित यही है कि हम “जीवन विद्या” को सीखें और जिंदगी का स्वरूप समझने और उसके सदुपयोग का प्रयत्न करें ।