वैकल्पिक विमर्श को बढ़ाती फिल्म : द केरल स्टोरी

यह फिल्म मात्र नहीं, एक सोच है। एक ऐसी सोच जो हमें अपनी आने वाली पीढ़ी के प्रति जिम्मेदारी का भाव जगाने का प्रयास करती है। जाहिर सी बात है कि, तथाकथित सेक्युलर विरोध करेंगे ही।

फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ इन दिनों चर्चा में बनी हुई है। इस फिल्म की चर्चा के कई कारण हैं। एक तो इस फिल्म ने एक सप्ताह में सौ करोड़ की कमाई कर ली और कमाई का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। पूरी दुनिया में इस फिल्म की मांग बनी हुई है। दूसरे इस फिल्म के पक्ष-विपक्ष में लगातार दलीलें दी जा रही हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर देशभर में एक बार फिर से बहस हो रही है। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र मिलने के बाद भी इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया गया। केरल हाईकोर्ट में फिल्म के रिलीज होने वाले दिन तक सुनवाई हुई। अदालतों ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। आश्चर्य की बात है कि कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर किसी भी तरह की सामग्री दिखाने के पक्षधर और स्वयं को लिबरल कहनेवाले लोग भी इस फिल्म के प्रदर्शन के विरुद्ध थे। बंगाल की धरती पर इस फिल्म पर पाबंदी लगा दी गई। उस बंगाल में जहां कला और संस्कृति लगातार फलती-फूलती रही है।

बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने राज्य में द केरल स्टोरी के प्रदर्शन को प्रतिबंधित किया। ये मामला भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और कोर्ट ने सरकार के इस फैसले पर नाखुशी जताई। इस शोरगुल के बीच केरल हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों की टिप्पणियां अलक्षित रह गईं। न्यायमूर्ति एन नागरेश और न्यायमूर्ति एस थामस की पीठ ने इस फिल्म के प्रदर्शन को रुकवाने की याचिका की सुनवाई के दौरान कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। कोर्ट की कार्यवाही की लाइव रिपोर्टिंग करनेवाली वेबसाइट लाइव ला के अनुसार पीठ ने स्पष्ट किया इस फिल्म को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र मिल चुका है। ऐसे में इसको रोकना उचित नहीं होगा। न्यायपीठ ने इस बात को भी रेखांकित किया कि याचिकाकर्ताओं में से किसी ने भी फिल्म देखी नहीं है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि अगर किसी ने फिल्म देखी नहीं थी तो इसको रुकवाने की याचिका लेकर अदालत के सामने क्यों उपस्थित हो गए। कुछ लोगों का आरोप है कि ये फिल्म एजेंडा फिल्म है लेकिन क्या फिल्म को बगैर देखे उसके प्रदर्शन को रुकवाने के लिए उच्च न्यायालय पहुंच जाना एजेंडा नहीं है। असल एजेंडा तो यही प्रतीत होता है कि आपने फिल्म देखी नहीं लेकिन कथित आसन्न खतरे को लेकर अदालत पहुंच गए। इस एजेंडे की चर्चा कहीं नहीं हो रही है, न ही याचिकाकर्ताओं की मंशा पर प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं।

सुनवाई के दौरान न्यायपीठ ने कहा कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और कलात्मक स्वतंत्रता को संतुलित तरीके से देखा जाना चाहिए। इस टिप्पणी के गहरे निहितार्थ हैं। अगर हम कोर्ट की इस टिप्पणी के आलोक में देखें तो स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर वर्ग और समुदाय के लिए एक समान है। संविधान में इसकी ही व्यवस्था है। सुनवाई के दौरान कोर्ट की ये टिप्पणी भी उल्लेखनीय है जिसमें कहा गया कि इस फिल्म में इस्लाम के विरुद्ध कुछ नहीं है, इस्लाम पर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया गया है। इस फिल्म में आतंकवादी संगठन आइएसआइएस की करतूतों को दिखाया गया है। इस टिप्पणी के बाद ये सवाल उठता है कि किसी फिल्म में अगर फिल्मकार आतंकवादी संगठन के खिलाफ दिखाता है तो उस फिल्म को बिना देखे इस्लाम के खिलाफ या मुसलमानों के खिलाफ कैसे मान लिया जाता है।

सिर्फ मान ही नहीं लिया जाता है बल्कि उनकी रक्षा के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं। वो भी ऐसे लोग जो खुद को लिबरल या सेक्युलर मानते हैं। क्या इस देश में किसी आतंकवादी संगठन के खिलाफ फिल्म बनाना अपराध है। अबतक इस देश में कई ऐसी फिल्में बनीं जिसमें स्पष्ट रूप से आतंकवादियों को लेकर फिल्मकार साफ्ट रहे हैं। अधिकतर फिल्मों में आतंकवादी के बनने के लिए परिस्थितियों को जिम्मेदार दिखाया गया है। फिल्म मिशन कश्मीर में ऋतिक रोशन ने जिस अल्ताफ खान का चरित्र निभाया है, उसको याद करिए या फिर फिल्म फना में आमिर खान ने जिस आतंकी रेहान का रोल किया। आतंकी रेहान की कब्र पर जब उसका बेटा अपनी मां से पूछता है कि, क्या रेहान ने गलत किया था तो उसकी मां कहती है कि, रेहान ने वही किया जो उसको ठीक लगता था। इस तरह के संवाद आतंकवाद का परोक्ष समर्थन न भी हो लेकिन आतंकवाद को लेकर एक रोमांटिसिज्म तो है ही। इस तरह के कई प्रसंग हिंदी फिल्मों में देखे जा सकते हैं।

केरल हाईकोर्ट की न्यायपीठ की एक और टिप्पणी थी। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के साथ फिल्म के ट्रेलर को कोर्ट में ही देखा और कहा कि ये काल्पनिक है। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस फिक्शनल फिल्म का उद्देश्य मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश करना है। कोर्ट ने इससे भी असहमति जताई और कहा कि फिल्मों में कई तरह की चीजें दिखाई जाती हैं। भूत और पिशाच भी नहीं होते हैं लेकिन फिल्मों में काल्पनिक रूप से उनको भी दिखाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी न्यायमूर्ति नागरेश ने की वो ये कि कई फिल्मों में हिंदू संन्यासियों को तस्कर और बलात्कारी दिखाया गया है लेकिन कभी भी किसी ने उसपर आपत्ति नहीं जताई। आपने हिंदी और मलयालम में इस तरह की कई फिल्में देखी होगी। मलयालम में तो एक फिल्म में पुजारी को मूर्ति पर थूकते दिखाया गया था लेकिन उससे भी किसी प्रकार की कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि वो फिल्म पुरस्कृत भी हुई थी। इस टिप्पणी ने भारतीय फिल्म जगत के उस एजेंडे को बेनकाब कर दिया जो अबतक निर्बाध रूप से चल रहा था।

आईआईएम रोहतक के निदेशक धीरज शर्मा ने अपनी पुस्तक फिल्में और संस्कृति में लिखा है कि ऐसी फिल्में हमारे मूल्यों, परम्परा, हिंदुत्व की विचारधारा और भारतीय संस्कृति की जड़ें कमजोर कर रही हैं। बालीवुड व्यवस्थित तरीके से हिंदू धर्म को नीचा दिखाने में लगा हुआ है। धर्म के खिलाफ नकारात्मक धारणा, भावना या गतिविधि को बढ़ा रहा है। उदाहरण के लिए फिल्म वास्तव, संजू, सिंघम, सरकार में जितने भी नकारात्मक पात्र दिखाए गए हैं, उन सबने हिंदुओं के प्रतीक चिह्न धारण कर रखे हैं और वे साफ नजर भी आते हैं। सम्भवत: यह दर्शाने के लिए हिंदू धर्म के प्रतीक जिन्होंने धारण कर रखे हैं, वे बुरे इंसान हैं। इसके उलट अगर किसी ने अन्य धर्म के प्रतीक धारण कर रखे हैं तो उसको पवित्र व्यक्ति के तौर पर पेश किया जाता है। फिल्म दीवार के नायक को भी इस संदर्भ में याद किया जाना चाहिए। अमिताभ बच्चन ने फिल्म दीवार में जिस विजय वर्मा का किरदार निभाया है वो हिंदू मंदिरों में जाने का इच्छुक नहीं होता है, लेकिन हमेशा अपनी जेब में 786 नम्बर का बिल्ला रखता है। पुलिस से बचकर भागते समय उसका बिल्ला कहीं खो जाता है और उसको जान गंवानी पड़ती है। इससे परोक्ष रूप से क्या संदेश दिया जाता है।

‘द केरल स्टोरी’ को लेकर जिस तरह की बातें इन दिनों हो रही हैं लगभग उसी तरह की बातें पिछले वर्ष ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर हो रही थीं। उसको भी एजेंडा फिल्म से लेकर समाज को बांटनेवाली फिल्म तक करार दिया गया था। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद ‘द केरल स्टोरी’ में आतंकवादियों की करतूतों को दिखाया गया है। कुछ लोग इसको बेवजह इस्लाम से जोड़ कर अपना एजेंडा चलाना चाह रहे हैं। इन दोनों फिल्मों में किसी धर्म के खिलाफ कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिखाया गया है। अगर ऐसा होता तो देश की अदालतें इसका संज्ञान अवश्य लेतीं। जो लोग इन फिल्मों को इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध बता रहे हैं उनको गम्भीरता से इस बारे में सोचना चाहिए कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं। कश्मीर में हिंदू पंडितों का नरसंहार करनेवाले आतंकवादी या आइएसआइएस के आतंकवादियों को मुसलमानों या इस्लाम से जोड़ना अनुचित है। फिल्म इंडस्ट्री में कुछ ऐसे निर्माता हैं जिनकी आस्था न तो भारत में है न ही भारतीयता में। उनका लक्ष्य है किसी तरह से कला की आड़ में अपना एजेंडा चलाना। लेकिन इस बार अदालत ने उसे नाकाम कर दिया।

द केरल स्टोरी की कहानी आतंक और आतंकवाद के विरुद्ध तो है ही, इसमें हिंदुओं के लिए भी सीख है कि वो अपनी संतानों को अपने धर्म और अपनी संस्कृति के बारे में नहीं या कम बताते हैं। हिंदू धर्म परम्पराओं या रीति रिवाजों को जब दूसरे दकियानूसी कहते हैं तो घर के बड़े उसका प्रतिकार नहीं करते हैं या अपने बच्चों को इस तरह से संस्कारित नहीं करते हैं कि वो प्रतिकार कर सकें। टीका लगाना, जनेऊ पहनना या अन्य हिंदू धर्म प्रतीकों को धारण करने से लेकर मंदिरों में जाना, पूजा पाठ करने को भी वामपंथी बुद्धीजीवियों ने पिछड़ेपन की निशानी करार दिया। इस फिल्म में एक संवाद है। जब एक लड़की अपने पिता से कहती है कि, आपने भी तो हमें अपने धर्म और संस्कृति के बारे में नहीं बताया। इस फिल्म को इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए। अगर समग्रता में विचार करें तो ये फिल्म वैकल्पिक विमर्श को आगे बढ़ाती है और मजबूती प्रदान करती है। दूसरी तरफ हिंदू अभिभावकों को सलाह भी देती है कि वो अपने बच्चों को अपनी संस्कृति और धर्म से जोड़कर रखें।

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