हर गांव बने ‘धर्मज’

गांव को गोकुल बनाने का आसान तरीका है- गोचर को पुनर्जीवित करें। गोचर से पशुओं को चारा मिलेगा, पशुओं से दूध और गोबर मिलेगा, गोबर से ईंधन के रूप में कंडे मिलेंगे, खाद भी मिलेगी। पानी के लिए तालाबों को सफाई करें तो उसकी मिट्टी खेतों में काम आ जाएगी। इस तरह पानी, चारा, दूध, खाद सबकुछ गांव में ही मिल जाएगा। इसका नमूना देखना हो तो धर्मज आइये….

आदर्श गांव का मतलब है गोकुल। पहले गांव की हर जरूरत गांव में ही पूरी होती थी। ऐसा नहीं था कि एक जगह पर तैयार सामान किसी अन्य स्थान पर बिकता था। गांव की हर जिम्मेदारी-हर जरूरत गांव में ही पूरी होती थी; क्योंकि गांव में सभी कौम के लोग एकसाथ रहते थे। वे किसान भी थे, पशुपालक भी थे। हर गांव में गोचर होता था। उस गोचर के आधार पर पशुपालन चलता था और पशुपालन के आधार पर खेती चलती थी। इस प्रकार सभी एक दूसरे के पूरक थे।

उदाहरण के तौर पर धरमज गांव की बात करें। 1972 में बंजर पड़ी गांव की 140 एकड़ गोचर जमीन की गांव के लोगों ने साफ-सफाई की तथा उसे पुनः गोचर बनाने के लिए मेहनत की। गांव का बह जानेवाला पानी पाइप द्वारा 4 किलोमीटर से लाकर उस जमीन की सिंचाई की। उसी पानी से वहां चारा उगता है।

गांव ने ऐसी सुंदर व्यवस्था बनाई है कि उस चारे सेे हर घर में पशुपालन हो रहा है। उस जमीन से हर पशु के लिए उन्हें प्रति दिन दस किलो चारा मिलता है। वह भी मूल लागत पर, कोई मुनाफा नहीं। परिवहन का खर्च भी ज्यादा नहीं लगता, क्योंकि पूरा चारा लोगों तक बैलगाड़ी से भेजा जाता है। गांव का चारा गांव में उग रहा है। गांव के पशुओं को मिल रहा है। उसका फायदा यह हुआ कि वर्तमान में प्रति दिन 6 हजार लीटर दूध का उत्पादन हो रहा है।

गांव में लगभग पांच से छह हजार पशु हैं। इस दूध के कारण गांव की प्रति दिन की आमदनी लगभग ढाई लाख रुपए की हो चुकी है। लोगों में आर्थिक सम्पन्नता आई है। चारे की कीमत काफी कम है। लोगों को एक ताकत मिल गई। बहुत कम खर्च में पशुपालन हो रहा है। उस गांव में उन्होंने उस समय 17000 पौधें लगाए। जिसमें आम, इमली, आवला ये तीन मुख्य प्रकार हैं। उससे बहुत सारी आय होती है। वह चारे में भी तब्दील हो जाता है। गांव का हर व्यक्ति सुखी है। हर व्यक्ति सुखी होने से चोरी-चपाटी नहीं है। धर्मज आज भारत का ऐसा एकमात्र  गांव है जहां पुलिस चौकी नहीं है।

अपने यहां पचास-सौ साल पहले देखें तो सारे गांव धर्मज ही थे। हर गांव में पशुपालन था। हर गांव में गोचर था। उसी पशुपालन के आधार पर खेती होती थी। चूंकि उस समय प्लास्टिक नहीं था इसलिए अनआर्गेनिक कूड़ा-कचरा नहीं था। गाय पूरे दिन गोचर में ही रहती थी। उसका जो गोबर आता था उससे ऑर्गेनिक खेती होती थी। कंडे मिलते थे तो रसोई भी हो जाती थी। कंडों के धुएं से आक्सीजन मिल जाता था। आज हम हर धुएं को प्रदूषण मान लेते हैं जबकि गोबर का धुआं प्रदूषण नहीं होता।

ये बहुत समन्वित कार्य था। गांव के अंदर ही गांव की हर व्यवस्था हो जाती थी। गांव में ही व्यवस्था होने से लोग एक दूसरे को संभाल लेते थे। गांव का पानी गांव में रहता था क्योंकिगांव के आठों दिशा में तालाब हुआ करते थे। इन तालाबों से दो प्रकार की पानी निकासी की व्यवस्था थी। एक से खेतों में जाता था, दूसरे से तालाब के पूरा भर जाने पर दूसरे गांव के तालाबों में। हर बैसाखी को तालाब की सफाई की जाती थी। उसकी वजह से तालाब में जो मिट्टी जमा होती थी उसे दोबारा खेतों में डाल दिया जाता था। इससेे खेत भी सदृढ़ हो जाते थे और तालाब भी साफ व गहरे हो जाते थे।

पानी साफ हो गया, साफसुथरा चारा हो गया, गांव में बरगद, पीपल, आंवला, अर्जुन, जामुन ऐसे सोलह प्रकार के अच्छे देसी वृक्ष होते थे। इनके कारण गांव प्रदूषण मुक्त रहता था। गांव के लोग अपनी आवश्यकता के अनुरूप फसल उगाते थे। जैसे चावल, बाजरा, ज्वार, मक्का इत्यादि। इन फसलों से निकला चारा भी पशुओं को मिल जाता था जो कि बहुत पौष्टिक होता था। इससे पशुओं को बहुत ताकत मिलती थी। इसी प्रकार के स्वावलम्बी गांव बनाने की आज आवश्यकता है।

सब काम सरकार करे और हम देखते रहे ऐसा नहीं होता है। धर्मज गांव को स्वावलम्बी बनाने का निर्णय 1972 में गांव की पंचायत ने किया। उसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि 1972 से आज तक गांव में कोई चोरी नहीं हुई। धर्मज गांव में कोई चुनाव नहीं होते। वहां के लोग प्यार से रहते है। मैं यह मानता हूं और चाहता भी हूं कि इसकी शुरूआत हर गांव स्वयं करें। आज अगर किसी भी गांव से गोचर भूमि के बारे में पूछते हैं तो जवाब मिलता है कि बेच दी। हर बार ऐसा नहीं होता। कुछ बिकी होगी तो कुछ बची भी होगी। जो बची है उसी से शुरूआत करें। उस गोचर की सफाई करें। उसके चारों ओर पौधें लगाएं। तालाब की फिर से सफाई करें जिससे बारिश का पानी उसमें जमा हो सके। इस पूरे मॉडल को बनाने के लिए गांव को ही आगे आना होगा।

इसका सबसे पहला फायदा किसान को होगा। किसान गरीब है यह धारणा ही गलत है। हर चीज में किसान को सब्सिडी देने की, सहायता करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ सीमित किसान ही हैं, जो गरीब हैं, क्योंकि उन्होंने बहुत सारा कर्ज लेकर रखा है। हमारे देश का किसान कभी गरीब नहीं था। उसको तो मां-बाप कहते थे और मां-बाप कभी गरीब नहीं होते। अगर खेती की लागत शून्य हो जाए तो किसान को अपने-आप फायदा हो जाएगा।

यह लागत कैसे कम होगी? अगर उसको गोबर मिल जाए तो रासायनिक खाद नहीं लेना पड़ेगा। इस साल जो उग गया है उसमें से अगले साल के लिए बीज रख लिए जाएं, तो बीज की दुकान से उसे बीज खरीदने नहीं पड़ेंगे। पशुपालन से जो दूध मिलेगा उससे रोज का खर्च चल जाएगा। चारे की जरूरत गांव के गोचर से पूरी हो जाएगी और पानी की जरूरत गांव के तालाब से पूरी हो जाएगी। यह पूरा चक्र अपने-आप चलेगा। इसको किसी के आधार पर चलाने की जरूरत नहीं है। इसे प्रयोगात्मक रूप से करने के लिए किसी भी गांव के 25 लोग आगे आएं। मैं उनको मॉडल के तौर पर धर्मज दिखाना चाहता हूं। देश में धर्मज की तरह या उससे भी अच्छे लाखों गांव बन सकते हैं। मैं चाहता हूं कि हर गांव अपने गांव का काम खुद करें। स्वावलंबन के लिए पैसे की जरूरत नहीं होती। तालाब की मिट्टी निकाले, उसे खेत में डाले, पशुओं का गोबर खेत में डाले। फिर रासायनिक खाद की जरूरत नहीं होती।

भारत के सभी राज्य की सरकारों से समस्त महाजन संस्था के अध्यक्ष गिरीषभाई शहा निवेदन करना चाहते हैं कि रासायनिक खाद का इस्तेमाल कम करने पर जोर दें। हमारा देश सक्षम है। रासायनिक खाद की जगह पशुखाद पर भी चल सकता है। गोमूत्र से जंतु निवारण हो जाएगा तो कीटनाशक की जरूरत नहीं पड़ेगी। हर गांव का गोचर समृद्ध बना दो।

2011 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश है कि आप गोचर का दूसरे किसी काम के लिए उपयोग नहीं कर सकते। आप गोचर की सफाई कर लें। अच्छे देसी पौधें लगाएं तो हमें जंगल जाने की जरूरत नहीं है। हर गांव का व्यक्ति यह तय करें कि मैं अपने जीवन में कम से कम 16 पौधें लगाकर उनका संवर्धन करूंगा। इससे निश्चित ही गांव में समृद्धि आएगी।

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