किसी भी नवयौवना का श्रृंगार काजल के बिना अधूरा होता है। बिना काजल लगाए अगर वह आइने के सामने भी खड़ी हो जाती है तो आईना ही उससे पूछता है “आज आंखें बीमार सी क्यों हैं?” और यह वैश्विक सत्य है कि कोई भी नवयौवना आइने की बात नहीं टालती।
खूबसूरत हैं आंखें तेरी रात को जागना छोड दे।
खुद-ब-खुद नींद आ जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे।
ये और इस जैसे कई कसीदे पढ़े गए हैं आंखों की खूबसूरती को बयां करने के लिए। किसी ने झील कहा, किसी ने समंदर तो किसी ने मयखाना। किसी का चेहरा देखने पर भी अगर सबसे पहले किसी चीज पर नजर जाती है तो वह हैं आंखें। आंखों में उतरे भावों को देखकर ही हम अंदाजा लगा लेते हैं कि “बंदे का मूड कैसा है।” कहा भी जाता है कि कुछ लोग ऐसे देखते हैं जैसे हमारे दिल में उतर कर सब कुछ पढ़ना चाह रहे हों। सुंदर, सजीव और ‘बोलने वाली’ खूबसूरत आंखें मिलना खुशकिस्मती ही है। जिसे ये मिल जाए उसकी खूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं। और अगर न मिले तो… अजी न मिले तो आज का मार्केट आंखों की खूबसूरती बढ़ाने वाले ढ़ेरों सामानों से पटा पड़ा है।
आंखों की खूबसूरती बढ़ाने का काम सदियों से काजल करता आ रहा है। पहले तो बच्चे के पहले स्नान के बाद ही दादी-नानी उसकी आंखों में काजल भरना शुरू कर देती थीं। जी हां, भरना शब्द इसलिए प्रयोग कर रही हूं क्योंकि बच्चे की आंख और काजल की मात्रा में बहुत अंतर होता था। अधखुली सी आंखों की दोनों पलकों को फैलाकर अपनी तुलनात्मक मोटी उंगली से काजल लगाना और केवल लगाना ही नहीं बकायदा घिसा जाता था। उस नन्ही सी जान की चींखें सुनकर अगर किसी ने चूं भी की तो दादी की झिड़की मिलती थी “अभी अगर ज्यादा लाड़ किए तो आंखें बड़ी ही नहीं होंगी। फिर जवान होने पर तुम्हें ही कोसेंगे कि हमारी आंख मिचमिची सी क्यों है।” इसके बाद मजाल थी किसी की जो एक शब्द मुंह से निकालता क्योंकि हर कोई चाहता था कि उसका बच्चा सुंदर दिखे।
उस जमाने में न किसी को हाइजीन की इतनी परवाह थी न एलर्जी की। काजल ताजा-ताजा तैयार किया जाता था। देसी घी के दिये की लौ पर साफ चांदी का चम्मच पकड़कर कालिख बनाई जाती थी। फिर उसी घी में दादी-नानी अपनी उंगली डुबोकर काजल पर घिसती और बच्चे की आंख में मल देती थी। जितना काजल आंख के अंदर जाता उतना ही बाहर भी आता था और अपने अनियंत्रित हाथों के कारण बच्चा उसे मुंह पर फैला लेता था। परंतु इस उम्र से गाय का शुद्ध घी नियमित रूप से आंखों में जाने के कारण आंखों की रोशनी काफी तेज रहती थी और अन्य बीमारियां भी बहुत कम होती थीं।
कुछ पुरुष बड़ी उम्र तक आंखों में काजल या सूरमें का प्रयोग करते रहते हैं। आंखों को गहराई देने, चेहरे पर उसे विशेष रूप से उभारने के लिए यह सूरमा बड़ा काम आता है। निश्चित रूप से यह पुरुषों की आंखों में भी अलग चमक उत्पन्न करता है। लेकिन महिलाओं की तुलना में बहुत कम पुरुष काजल या सूरमे का प्रयोग करते हैं।
सामान्यत: एक उम्र के बाद लड़कों की आंखों में काजल लगाना बंद हो जाता है, परंतु लड़कियां उस निरंतरता को बनाए रखती हैं क्योंकि तब तक काजल दवा से श्रृंगार सामग्री का रूप ले चुका होता है। किसी भी नवयौवना का श्रृंगार काजल के बिना अधूरा होता है। बिना काजल लगाए अगर वह आइने के सामने भी खड़ी हो जाती है तो आईना ही उससे पूछता है “आज आंखें बीमार सी क्यों हैं?” और यह वैश्विक सत्य है कि कोई भी नवयौवना आइने की बात नहीं टालती।
इसी सुंदर सजीधजी बिटिया को जब मां देखती है तो अपनी आंख के काजल का टीका लगाकर कहती है, “भगवान तुझे बुरी नजर से बचाए।”
मां का यह काला टीका लगाए बेटी जब घर से निकलती है तो उसकी कजरारी आंखें और रूप को देखकर तो सभी उस पर फिदा हो जाते हैं। उसकी आंखों को देखकर जाने कितने लोगों की धड़कनें तेज हो जाती हैं और अगर कोई हमउम्र उसे कह दें कि “तुम्हारी आंखें बहुत खूबसूरत हैं” तो उस दिन के बाद से काजल पर होने वाले प्रयोग और आईने के सामने लगने वाला वक्त दोनों ही बढ़ जाते हैं।
काजल कभी तो प्रेमी को गहरी काली रात सा लगता है जो उसकी प्रेमिका के चांद से चहरे पर लकीर की तरह है और कभी उसका सबसे बड़ा बैरी क्योंकि वह प्रेमिका के ज्यादा करीब है। काजल लगी हुई इन्हीं आंखों के लिए वह कभी कहता है ‘तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है‘ या कभी ‘काली तेरी अखिंयों से जिंद मेरी लागे’। मृगनयनी, कमलनयना आदि अलंकारिक शब्दों से होने वाली तारीफ का असली हकदार तो काजल ही होता है जो प्रेमिका की आंखों को खूबसूरत बना देता है।
काजल का यह प्रवास तब तक चलता रहता है जब तक वही बच्ची दादी या नानी बनकर अपने नवासे की आंखों में काजल नहीं भरती जैसा कि उसकी आंखों में भरा गया था।
जिस तरह काजल ने मनुष्य की पीढ़ियों में प्रवास किया है, उसी तरह उसका स्वयं का प्रवास भी रोचक है। चांदी के चम्मच से सीधा आंखों में जाने वाला काजल धीरे-धीरे काजल की डिबिया में बंद होने लगा। चांदी जब तक आम लोगों की जेब पर भारी नहीं थी तब तक काजल के नसीब में रही। चांदी का गुण आंखों के लिए हमेशा ही स्वास्थ्यवर्धक रहा है। फिर धीरे-धीरे चांदी का स्थान स्टील ने लिया और स्टील का प्लास्टिक की डिबिया ने। इस स्थान परिवर्तन का कारण समय बचाने के साथ-साथ काजल को अपने साथ रखना भी था क्योंकि दादी-नानी वाला संयुक्त परिवार अब धीरे-धीरे एकल परिवार में बदल रहा था।
यहीं से शुरू हुआ काजल का व्यवसाय। बाजार का एक नियम है कि आप अगर मांग के अनुसार आपूर्ति करते हैं तो आपका उत्पाद बिकता ही बिकता है। बाजार में काजल की मांग जोरों पर थी और दादी-नानी की फैक्ट्रियां कम थीं। इसलिए कुछ कम्पनियों ने काजल बनाने का व्यवसाय शुरू किया। प्लास्टिक की छोटी सी चपटी डिबिया में काजल सुंदर पैकिंग के साथ मिलने लगा। इसे उंगली से घिसकर लगाना भी आसान था और साथ में रखना भी। हांलाकि अब चांदी के गुण उसमें नहीं रह गए थे फिर भी वह सुंदरता में चार चांद लगाने का काम तो कर ही रहा था।
जिन महिलाओं की आंखें नैसर्गिक रूप से सुंदर थीं, उन्होंने काजल को हमेशा की तरह ही लगाना जारी रखा परंतु जिनकी छोटी थीं या जिनका आकार ऐसा नहीं था कि उन्हें कोई मृगनयनी कहे, उन्होंने काजल से उसे वैसा बनाना शुरू कर दिया। माचिस की तीली, या नीम के पतले डंठल से काजल की सहायता से आंखों को आकार दिया जाने लगा। इसमें समय तो लगता था पर श्रृंगार और सुंदर दिखने के लिए तो सब कुछ मान्य था। बाजार को समझने वाले लोग इस मौके को अपने हाथ से कैसे जाने देते। उन्हें फिर इसमें ‘स्कोप’ नजर आया और काजल की स्टिक बाजार में उतारी गई। फिर क्या था महिलाओं की बल्ले-बल्ले और निर्माताओं की भी। अब महिलाएं कम समय में अपनी आंखों को सुंदर और आकर्षक बनाने लगीं।
अब तक फिल्मी दुनिया ने लोगों के घरों में अपने पांव पसार लिए थे। फिल्मी तारिकाओं की तरह श्रृंगार करने का क्रेज बढ़ने लगा था। इस क्रेज में जहां परिधान शामिल थे, वहीं मेकअप भी शामिल था। तरह-तरह के फाउंडेशन, फेस पाउडर जहां चेहरे को गोरा बना रहे थे वहीं काजल आंखों को सुंदरता बढ़ा रहा था। परंतु अब काजल केवल स्टिक तक सीमित नहीं था। उसके साथ पेंसिल और लिक्विड काजल भी उसकी सहायता कर रहे थे।
आजकल तो आंखों की पुतलियों तक का रंग बदलने वाले लेंस बाजार में आ चुके हैं। आप जिस रंग के कपडे पहनते हों उस रंग की आंखें बना सकते हैं। आंखों को सजाने वाले लाइनर, पेंसिल स्टिक, मस्कारा यहां तक कि प्लास्टिक से बनी पलकें भी बाजार में उपलब्ध हैं। अब काजल काला हो यह भी आवश्यक नहीं है। कपड़ों के, गहनों के, या स्किन टोन के हिसाब से काजल का रंग बदला जाता है।
वैश्वीकरण के कारण कई मल्टिनेशनल कम्पनियां भी आज आ चुकी हैं जो आंखों को सुंदर बनाने के हर उत्पाद बाजार में ला रही हैं। परंतु जैसे-जैसे परिवर्तन हो रहे हैं इन उत्पादों में रसायनों का प्रयोग बढ़ रहा है, जो कि आंखों की सुंदरता तो बढ़ाते है परंतु उसे नुकसान भी पहुंचाते हैं। इसलिए कभी कभार तीज त्यौहार पर या शादी ब्याह में इनका उपयोग करना ठीक है परंतु निरंतर प्रयोग करना घातक भी हो सकता है।
वैसे नैसर्गिक सुंदरता में जो चार चांद काजल लगाता है उसका मेल कहीं नहीं। इसलिए श्रृंगार से सराबोर गानों में भी काजल का ही जिक्र होता है फिर चाहे वो कजरा मोहब्बतवाला हो या कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना हो।
वाह, आपने तो इस लेख में कोई भी पहलू अनछुआ नहीं छोड़ा।
हार्दिक बधाई इस सुन्दर आलेख के लिए।
डॉ दिनेश पाठक शशि मथुरा।
बहुत ही उत्तम विचार
आंखे सबकुछ कहने की क्षमता रखती है।। एक गाना भी आया था इशारों को अगर समझो राज को राज रहने दो।।
जुबान जो कह नहीं सकतीं वह आंखें अक्सर बयान करती हैं । बोहत सुंदर प्रस्तुति है ।