मुश्किल हालात में कुछ ठोस करने की चुनौती

महीनों से कश्मीर घाटी में पत्थर चल रहे थे। विद्यालय जलाए जा रहे थे। पाकिस्तान घाटी की मीडिया फुटेज को लेकर आसमान सर पर उठाने की कोशिश कर रहा था। आतंकी बुरहान बानी के लिए मर्सिया गाया जा रहा था। फिर नोटबंदी का फैसला आया और घाटी में अचानक पत्थर चलने बंद हो गए और कश्मीर में दिहाड़ी के हुड़दंगियों के भरोसे चल रहे इत्तिफ़ादा का पर्दाफ़ाश हो गया। भाड़े के इन टट्टुओं ने सारी घाटी को अपना बंधक बना रखा था।

भारत की सुरक्षा एजेंसियां सालों से कह रही थीं कि कश्मीर में चल रहा ‘जिहाद’ या ‘तहरीक’ पांच सौ से हज़ार रूपए दिन के हिसाब से संचालित होता है। नोटबंदी के बाद उनके दावे पर मुहर लग गई। नोटबंदी के बाद एटीएम और बैंकों पर टूट पड़े मीडिया के कैमरे यदि घाटी की तरफ मुड़ते तो देश का भला कर सकते थे, लेकिन राजनैतिक बयानबाज़ी और रोज़ाना की उठापटक पर फ्लैश चमकाने की लालसा पर काबू पाना शायद बहुत कठिन काम है।

दिखाने को बहुत कुछ हो सकता था। घाटी के मौकापरस्त मुस्लिम नेतृत्व को नज़रअंदाज़ करें तो आज घाटी के मुट्ठी भर अलगाववादी खुद को हाशिए पर पाकर परेशान हैं्। उन्होंने राज्य के विधान सभा चुनावों के बहिष्कार की अपील की थी। लेकिन जनता ने बढ़-चढ़ कर वोट डाले। भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार यदि अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम को सफलतापूर्वक पूरा करती है तो अधमरी हो चुकी अलगाववादी मुहिम को घातक झटका लगना तय है। ‘आज़ादी’ के नाम पर किए जा रहे इनके फसादों से कश्मीर बेहाल है। शिक्षा व्यवस्था अस्त-व्यस्त हैं। उद्योग-धंधे पनप नहीं पा रहे हैं। घाटी के दो चार मुहल्लों में जो नौटंकियों की महफिलें सजाई जाती हैं और मीडिया उन्हें जिस प्रकार कवरेज देता है उससे पर्यटन चौपट हो गया है। ‘शिकारे वाले’, होटल- पर्यटन व्यवसायी और दुकानदार पर्यटकों की राह देखते सालों से बैठे हैं। अचरज क्या है कि ज्यादातर लोग इनसे हलाकान हो चुके हैं्।

वैसे भी अपने उभार के दिनों में अलगाववाद कश्मीर घाटी के मात्र पांच जिलों तक ही अपनी उपस्थिति दर्ज करवा सका था। राज्य के तीन में से दो हिस्सों- जम्मू और लद्दाख में राष्ट्रवाद प्रबल है। राज्य के ८५ प्रतिशत भू-भाग में आज तक कोई भारत-विरोधी प्रदर्शन नहीं हुआ। जम्मू हिन्दू बहुल है। लद्दाख में बौद्ध-पंथियों की बहुसंख्या है। राज्य की मुस्लिम आबादी में १२ प्रतिशत शिया, लगभग इतने ही गुज्जर मुस्लिम और करीब ८ प्रतिशत पहाड़ी राजपूत मुस्लिम हैं। इनमें से किसी भी समुदाय में अलगाववाद का असर नहीं है। पुंछ में ९० प्रतिशत मुसलमान हैं। कारगिल में ९९ प्रतिशत मुसलमान हैं। यहां पर कभी कोई भारत विरोधी आवाज नहीं उठी। जम्मू के सभी दस जिले और लद्दाख के दोनों जिले पूरी तरह शांत हैं। केवल कश्मीर घाटी के १० में से ५ जिलों में कुछ दर्जन अलगाववादी नेता हैं। ये सभी कश्मीरी बोलने वाले सुन्नी मुस्लिम हैं। जिनकी नेतागिरी इनके गली-मुहल्लों तक सीमित है, और जो एक विधान सभा सीट जीतने तक की हैसियत नहीं रखते। कश्मीर घाटी में चल रहे अलगाववाद के यही आंकड़े हैं, और इतनी ही सच्चाई है। ये सारे के सारे प्रचार के हथकंड़ों से पैदा हुए शेर हैं।
मौजूदा दौर में इनकी बची-खुची जमीन भी हाथ से फिसलने की कगार पर हैं और ये तेजी से समर्थन खो रहे हैं। समर्थकों का भरोसा उठ ही गया है। जब कश्मीर में भयंकर बाढ़ आई और सेना के जवान युद्धस्तर पर राहत कार्यों में जुट गए तब कश्मीरियों ने इन ‘रहनुमाओं’ को मैदान से नदारद पाया। पीड़ितों को राहत पहुंचाना तो दूर कश्मीरी अलगाववादी बाढ़ राहत कार्यों में बाधा पहुंचा रहे थे।

भाजपा-पीडीपी सरकार बनने के बाद से ये लोग लगातार कश्मीरी पंडितों की वापसी, आफ्स्पा, नागरिक सुरक्षा कानून आदि को लेकर जनभावनाएं भड़काने का काम कर रहे हैं। इस्लाम के नाम पर अलगाववाद की मुहिम को ज़िंदा रखने की कोशिशें जारी हैं। अलगाववादियों ने अमरनाथ यात्रा के दौरान घोड़ेवालों और भण्डारे वालों के मामूली विवाद को मजहबी रंग देने का प्रयास किया। अगस्त २०१४ में सैयद अली शाह गिलानी और शब्बीर शाह ने कौसरनाथ यात्रा के समय सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का प्रयास किया। इसी प्रकार गिलानी ने जुलाई २०१४ में हुए एक सड़क हादसे में, जिसमें ६ नागरिक मारे गए थे, को ‘कश्मीरियों की हत्या की सोची समझी कोशिश’ बताकर दो दिन के बंद का आवाहन किया था। २३ मार्च २०१५ को सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारुक और यासीन मलिक पाकिस्तानी उच्चायोग गए और पाकिस्तान के राष्ट्रीय दिवस में शामिल हुए। गृह मंत्रालय ने इन नेताओं के जिन कारनामों के खुलासे किए हैं वे भी अब इन्हें ऑक्सीजन दिला पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं, और इसलिए उनकी छटपटाहट साफ देखी जा सकती है।

अपने को अवाम का मसीहा बताने वाले नेताओं की शाहखर्ची भी चर्चा का विषय है। वे महंगे होटलों में रुकते हैं, जिसका खर्च राज्य सरकार उठाती आ रही है। जम्मू कश्मीर सरकार सालों से चौदह सौ से अधिक राजनैतिक एक्टिविस्ट्स को सुरक्षा मुहैया करवा रही है। ऑल पार्टीज हुर्रियत कान्फ्रेन्स दर्जनों अलगाववादी नेताओं और पार्टियों का जमावड़ा है। इसमें मीरवाइज उमर फारुक की अवामी एक्शन कमेटी, लोन की जम्मू-कश्मीर पीपल्स कान्फ्रेन्स, यासीन मलिक का जेकेएलएफ, आसिया अंद्राबी की दुखतरन-ए- मिल्लत, मसरत आलम की जम्मू-कश्मीर मुस्लिम लीग, सैय्यद कासिम बुखारी की अन्जमान-ए-तबजीग-उल -इस्लाम, बिलाल गनी लोन इत्यादि आते हैं।

ऐसे राजनैतिक एक्टिविस्टों की संख्या ४४० है जो जनता के खर्चे पर भव्य आरामगाहों में आराम फरमाते हैं्। ७०८ चौपहिया वाहन इनकी सेवा में नियुक्त हैं। २०१० से २०१५ तक इनकी सुरक्षा पर ३०९ करोड़ खर्च हो चुके हैं। इनकी सुरक्षा में लगे पीएसओ की पिछले पांच सालों की तनख्वाह ही १५० करोड़ के करीब बैठती है। कुल मिला कर सारा खर्चा ५०६ करोड़ तक जा पहुंचता है। (गौरतलब है कि पिछले वर्ष का राज्य का सर्वशिक्षा अभियान का बजट ४८४.४ करोड़ था।)

ये लोग कश्मीरी युवकों को जिहाद के नाम पर भड़काते हैं। बड़े मकसद के लिए उनसे किताबें छुड़वा कर दिहाड़ी पर पत्थर फिंकवाते हैं, जबकि खुद उनके बच्चे शेष भारत और दुनिया के दूसरे हिस्सों में महंगी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। सैयद अली शाह गिलानी के साहबजादे नईम गिलानी पाकिस्तान के रावलपिंडी में पेशेवर चिकित्सक के तौर पर काम कर रहे हैं। नईम की पत्नी भी चिकित्सक हैं। गिलानी के दूसरे बेटे जहूर गिलानी नई दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहते हैं। उनका पोता एक निजी एयरलाइन्स में नौकरी करता है। उनकी बेटी जेद्दाह में अपने इंजीनियर पति के साथ रहती है। आसिया अंद्राबी का लड़का मुहम्मद बिन कासिम मलेशिया में रह रहा है। आसिया के ज्यादातर रिश्तेदार पाकिस्तान, सउदी अरब, इंग्लैंड और मलेशिया में रह रहे हैं। उसका भतीजा पाकिस्तानी फौज में कैप्टन है। दूसरा भतीजा इस्लामाबाद की इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में पढ़ाता है। ये सारी बातें कश्मीरियों के ध्यान में आ रही हैं, और इसलिए आजादी के इन दीवानों की बची-खुची जमीन भी सरक रही है। इनमें से कई पर आईएसआई के लिए भाड़े पर काम करने के आरोप भी लग चुके हैं।

जम्मू – कश्मीर का २०१४ विधान सभा चुनाव एक बड़ा मील का पत्थर है। जहां एक ओर ये पाकिस्तान के लिए बड़ी कूटनीतिक पराजय थी वहीं कश्मीरी अलगाववादियों के लिए एक बड़ा आघात था। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन जम्मू कश्मीर की राजनीति में एक नया मोड़ है। राज्य में तुलनात्मक रूप से मुस्लिमों का प्रतिशत अधिक होने के कारण ये आम धारणा रही है कि वहां भाजपा के लिए कोई चुनावी संभावना नहीं है। कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस राज्य के पुराने चुनावी खिलाड़ी रहे हैं। इन दोनों की गहरी दोस्ती और कट्टर दुश्मनी के बीच जम्मू-कश्मीर की राजनीति भी थपेड़े खाती रही है।

नेहरू और शेख की मित्रता, फिर शत्रुता (जब शेख ने कांग्रेस को नाली का कीड़ा कह डाला था), शेख -इंदिरा समझौता और फारुख – राजीव समझौते के बाद वर्तमान सरकार राज्य के लोगों के लिए एक नया अनुभव है। इस समय ये दोनों दल अलगाववाद की आग पर राजनीति की रोटियां सेंक कर महबूबा मुफ्ती को धूल चटाने की कोशिश कर रहे हैं। कश्मीर को लेकर फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला के उत्तेजक बयान इसी सियासत का हिस्सा है। कॉंटों का ताज पहने महबूबा मुफ़्ती दम साध कर चल रही हैं। भारतीय जनता पार्टी ने कश्मीर में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित टीकालाल टपलू जैसे नेताओं सहित अनेक कार्यकर्ताओं को खोया है; लेकिन इसके पूर्व वह राज्य में किसी निर्णायक भूमिका में नहीं पहुंच सकी थी। भाजपा की राज्य सरकार में भागीदारी पाकिस्तान के दुष्प्रचार ‘हिन्दू भारत द्वारा मुस्लिम कश्मीर पर अत्याचार’ को भी भोथरा करती है। भाजपा से जम्मू के नागरिकों को उम्मीद है कि अब उन्हें भी राजनैतिक प्रतिनिधित्व का अहसास होगा; अन्यथा बरसों से कश्मीर घाटी के नेता जम्मू और लद्दाख के हक़ पर डाका डालते आए हैं।

गठबंधन सदा चुनौतीपूर्ण काम होता है। निस्संदेह, कई मुद्दों पर भाजपा और पीडीपी विपरीत ध्रुव हैं। फिर चाहे वह पाकिस्तान से बातचीत की सीमा और संदर्भ का मामला हो, अथवा धारा ३७० के भविष्य पर बहस हो या आर्म्ड फ़ोर्स स्पेशल पावर एक्ट को लेकर दोनों दलों का दृष्टिकोण हो। दोनों के अपने-अपने मतदाताओं की अपेक्षाएं भी हैं। लेकिन दोनों दल न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत सरकार चलने के लिए सहमत हुए हैं। दोनों को कुछ न कुछ छोड़ना पड़ा है। इस न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुसार भाजपा धारा ३७० को छूने की स्थिति में नहीं है, तो पीडीपी को ‘राज्य को अधिक स्वायत्ता’ देने की टेक पर लगाम लगानी पड़ी है। राज्य में संवैधानिक संशोधनों से जुड़े मुद्दों पर दोनों दलों की संयुक्त शक्ति (कुल ४५ ) कम पड़ती है, क्योंकि वांछित आंकड़ा ६० है। पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों को राज्य में उनके अधिकार दिलाने के मामले पर दोनों पार्टियों में सैद्धांतिक सहमति है, लेकिन यहां भी संविधान संशोधन का रोड़ा राह में अटका है। लिहाज़ा अंकों की कमी दोनों साझेदारों को गठबंधन की कुशलता से कहीं आगे जाने के लिए बाध्य करेगी। राज्य की मुश्किल राजनीति को साधते हुए सुशासन और विकास की राह पर चलना बेहद चुनौतीपूर्ण है, जबकि समय तेज़ी से भाग रहा है।
लेकिन एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि कश्मीर प्रश्न के राजनैतिक समाधान के लिए पहली बार कुछ ठोस होने की संभावना बनी है।

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