हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result

कश्मीरी पंडित : कश्मीर के आदि निवासी

by डॉ. सतीश गंजू
in मार्च २०१७, संस्कृति, सामाजिक
1

कश्मीर की मनोरम घाटी इस समय तन्हा हो गई है; मानो अच्छाइयां वहां से विदा हो चुकी हो। बर्बर आतंकवादियों ने पौराणिक काल से यहां बसे कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से भगा दिया है, हजारों लोगों का क्रूरता से संहार किया है और कश्मीर के ५००० साल पुराने इतिहास और संस्कृति को बेदखल करने की कोशिश की है। आतंकवादियों की शैतानी क्रूरताओं ने सारी सीमाएं पार कर दी हैं- यहां तक कि मूर्तिभंजक सिकंदर, कट्टरपंथी अली शाह, अडियल हैदर शाह, साम्प्रदायिक चक, असहिष्ष्णु औरंगजेब और निष्ठुर अफगान भी अपनी कब्रों में कश्मीर के लोगों के लिए सिहर उठे होंगे। लेकिन, तथाकथित विश्व संगठनों, प्रदूषित मानव अधिकार संगठनों, स्यूडो सेक्युलरिस्टों, स्वयंभू नेताओं, तथाकथित नीति-निर्धारकों, दागी राजनीतिक दलों एवं सुस्त नौकरशाही नरसंहार इस बड़ी त्रासदी और भीषणता के प्रति कतई चिंतित नहीं है।

कश्मीर में हिंदुत्व का अस्तित्व उतना ही पुराना है जितनी कि यह भूमि। हिंदू अपने समाज, अपनी संस्कृति, सभ्यता, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, कल्पनाओं और वास्तविकताओं के प्रति जुड़े हैं। बौद्धत्व के विकास एवं ब्राह्मणों की उस पर प्रतिक्रिया से दो प्रतिद्वंद्वी विचार धाराओं में दीर्घ संघर्ष चलता रहा। ईसवी पूर्व चौथी और तीसरी सदी में नागपूजा प्रभावी धर्म रहा। बहरहाल, दुर्णदेव, सिंहदेव, सुंदरसेन, अशोक एवं कनिष्क के शासनकाल में बौद्धत्व अधिक फला-फूला। कनिष्क के शासन काल में कश्मीर के कनिषपुर में विशाल बौद्ध धर्मसभा का आयोजन किया गया। उसकी अध्यक्षता अश्वघोष एवं वसुमित्र जैसे विद्वानों ने की। प्रायद्वीप के लगभग ५०० बौद्ध भिक्ष्ज्ञु इसमें आए थे। बोधिसत्व एवं बौद्धत्व के महान दार्शनिक नागार्जुन कश्मीर में ही रहे। अभिमन्यु के शासन के दौरान कई लोग बौद्ध बन गए। कश्मीरी ब्राह्मणों का अपने अस्तित्व के लिए यह प्रथम संघर्ष था। कुमारजीव (३४८-४१७), शाक्यश्री भद्र (४०५), रत्नवीर, शामा भट्ट (पांचवीं सदी) तथा अन्य कश्मीरी विद्वान बौद्धत्व की शिक्षा देने के लिए चीन व तिब्बत गए। लेकिन, नर-१ के शासन के दौरान ब्राह्मणों ने फिर से अपना श्रेष्ठत्व प्राप्त कर लिया। बौद्धत्व एवं ब्राह्मणत्व के बीच संघर्ष आधुनिक हिंदुत्व के साथ खत्म हो गया। सन ६२७ में करकूत शासन के दौरान इसकी ऐतिहासिक पुष्टि हो गई। अवंतीवर्मन (सन ८५५) को कश्मीर का प्रथम वैष्णव शासक माना जाता है। उसके शासन के दौरान घाटी में भारी सांस्कृतिक विकास हुआ। इस अवधि के महान शैव दार्शनिकों में कैयताचार्य, सोमनानंद, मुक्तकांता, स्वामीन, शिव स्वामीन, आनंद वर्धन एवं कल्लता थे। ब्राह्मणों का कायस्थ जैसी अन्य जातियों के साथ संघर्ष शंकर वर्मन के राज के दौरान हुआ। ब्राह्मणों के अधिकारों का क्षरण हुआ और उनके पवित्र कार्य में हस्तक्षेप होने लगा। फिर भी, शैव विचार एवं चिंतन बढ़ता रहा। प्रद्युम्न भट्ट, उत्पलाचार्य, रमाकांत, प्रज्ञानार्जुल, लक्ष्मण गुप्त तथा महादेव भट्ट का इस दर्शन के विकास में बहुत योगदान है। लोहारा वंश के शासन के दौरान कश्मीर मुस्लिम आक्रांताओं के सम्पर्क में आया। मेहमूद गजनी ने जब पंजाब को अपने अधिकार में ले लिया तब कश्मीर की सीमा पर बसे अधिकांश लोगों एवं कबाइलियों ने इस्लाम को कबूल कर लिया। उस समय घाटी में संग्राम राजा (सन १००३-१०२८) का शासन था। उनके इस्लाम कबूल करने के बावजूद ये लोग व्यापारी के रूप में कश्मीर, घुमन्तू एवं प्रचारकों के रूप में घाटी में आते रहे और अपने नए धर्म का प्रचार करने का कार्य करने लगे।

कश्मीर के इतिहास में पहली बार राजा हर्ष (सन १०८९-११०१) ने मुस्लिम सेनाधिकारियों को काम पर रखा। कल्हन ने (राजतरंगिनी में) इन्हें तुरुष्कस कहा है। इस तरह मुस्लिम राजनीतिक वर्ग के रूप में स्थापित हुए और वे अपने पैर जमाने लगा। हर्ष के एक उत्तराधिकारी भीकाषाचार्य ने ऐसी अश्वारोही पलटन बनाई, जिसमें मुस्लिम ही अधिक थे। गोपदेव (सन ११७१-११८०) के शासन के दौरान ब्राह्मणों ने अपनी स्थिति सम्हालने की कोशिश की। उनकी वरिष्ठता को काटने के लिए कश्मीर के राजाओं ने घाटी में मुस्लिमों को बसने के लिए प्रोत्साहन दिया। सुहादेव (सन १३०१-१३२०) के शासन के दौरान कई साहसिक योद्धा कश्मीर में आए। उनमें बुलबुल शाह नामक मुस्लिम प्रचारक प्रमुख है। दो अन्य थे स्वात घाटी के शाहमीर और तिब्बत के रिंचाना। शाहमीर सन १३१३ में अपने लोगों के साथ आया। सुहादेव ने उसे बारामुल्ला के निकट एक गांव की जागीर दी। कश्मीर के प्रधान मंत्री एवं सेनापति रामचंद्र ने रिंचाना को तैनात किया और लार घाटी में उसे एक गांव की जागीर दी। इन दो साहसी योद्धाओं ने ही कश्मीर में इस्लामी राज की स्थापना में योगदान दिया।

मध्य एशिया का तार्तार प्रमुख दुलुछा ६०,००० घुड़सवारों की फौज लेकर कश्मीर में घुसा। सुहादेव किश्तवार भाग गया और राज्य को क्रूर आक्रांताओं के जिम्मे छोड़ दिया। दुलुछा घाटी से चला गया, लेकिन उसका भय बना रहा। प्रजा का अपने राजा पर से विश्वास उठ गया। इस अफरातफरी का लाभ उठाते हुए तिब्बत से शरणार्थी के रूप में आए रिंचाना ने कुछ सरदारों से मिल कर गद्दी हथिया ली। उसने अपने आंका रामचंद्र को लार के किले में घोखे से मार डाला और उसकी पुत्री कोटा रानी से विवाह कर लिया।

रिंचाना बौद्ध था। वह अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने के लिए ब्राह्मणत्व में आना चाहता था। उस समय घाटी में शैवों को बोलबाला था। अतः उसने शैवों के प्रमुख गुरु देवस्वामी को बुलाया और हिंदू धर्म का उसने अंगीकार कर लिया। देवस्वामी ने प्रमुख पंडितों की गुप्त सभा आमंत्रित की, लेकिन उन्होंने रिंचाना के निम्न जाति का होने से हिंदू धर्म में शामिल करने से इनकार कर दिया। लेकिन शाहमीर एवं बुलबुल शाह उसे इस्लाम में लाने में सफल रहे। इस तरह कश्मीर में मुस्लिम शासक वर्ग तैयार हो गया, उसने धीरे-धीरे अपने पैर जमाए और अपने धर्म का प्रचार करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए। इसके बाद अछाला नामक तुर्क ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। महारानी कोटा रानी ने हमलावर का सामना किया, उसे मार डाला और अपने राज्य को बचा लिया। इस लड़ाई में शाहमीर ने बड़ी भूमिका निभाई और उसका प्रभाव बेहद बढ़ गया।

सन १३३९ में शाहमीर ने सुलतान शम्स-उद-दीन (इस्लाम के रक्षक) के रूप में गद्दी हथिया ली और इस तरह कश्मीर में इस्लामी शासन का शिल्पकार बन गया। नया शासन आने के साथ ही मुस्लिम प्रचारकों, सैयदों एवं फकीरों का घाटी में आना आरंभ हुआ। सैयद जलालुद्दीन, सैयद ताजुद्दीन, सैयद हुसैन सिमनानी, सैयद मसूद और सैयद युसूफ तैमूर के नरसंहार से बचने के लिए कश्मीर में आए। मीर सैयद अली हमदानी (शाह हमदान) ७०० सैयदों के साथ कश्मीर में आया और उसका पुत्र मीर मुहम्मद हमदानी और ३०० सैयदों के साथ कश्मीर में आया। ये लोग शाही संरक्षण के साथ कश्मीर में आए और इस्लाम का प्रचार करते रहे।

सिकंदर- बुतशिकन- पर तो सम्पूर्ण घाटी में इस्लाम फैलाने का भूत सवार था। इतिहासकार हसन (कश्मीर का इतिहास) के अनुसार, ‘‘इस प्रदेश में हिंदू राजाओं के जमाने से ही बहुत मंदिर थे, जो दुनिया के आश्चर्य जैसे थे। उसकी कलाकारी और शिल्प अद्भुत था और उसे देख कर लोग चमत्कृत हो जाते थे। इस्लाम के प्रति हठी सिकंदर ने उन्हें तुड़वा कर जमींदोज करवा दिया और उनकी सामग्री से कई मस्जिदें एवं खानख्वाह बनवा दिए। सब से पहले उसने रामदेव द्वारा मत्तन करेवा में स्थापित मार्तंड मंदिर (इस मंदिर को सन ७२४-७६० के दौरान महाराजा ललितादित्य ने बनवाया) को निशाना बनाया। एक वर्ष तक वह इसे तुड़वाने की कोशिश करता रहा, लेकिन सफल नहीं हुआ। आखिर परेशान होकर उसने नींव से पत्थर खोद कर हटाने शुरू कर दिए, काफी जलावन इकट्ठा किया और उसमें आग लगा दी। मंदिरों की दीवारों पर सोने से की गई नक्काशी गल गई। मंदिर का परकोटा गिरा दिया गया। उसके अवशेष आज भी लोगों को चमत्कृत कर देते हैं। बाजबेहरा में तीन सौ मंदिर थे। इनमें प्रसिद्ध विजवेश्वर मंदिर भी था। सिहाबुद्दीन ने इन्हें ध्वस्त करा दिया। विजवेश्वर मंदिर की सामग्री से उसने मस्जिद बनवाई और मंदिर की जगह पर खानख्वाह बनवाया, जिसे आज भी विजवेश्वर खानख्वाह कहा जाता है। ’’

हसन आगे लिखते हैं, ‘‘सिकंदर ने हिंदुओं पर बहुत जुल्म किए। घाटी में यह घोषणा की गई कि जो हिंदू मुसलमान नहीं बनेगा उसे देश छोड़ना होगा या उसे मार दिया जाएगा। इससे कुछ हिंदू भाग गए, कुछ ने इस्लाम कबूल किया, कुछ ने अपने धर्म के लिए जान दे दी। कहा जाता है कि सिंकंदर ने इस तरह धर्मांतरित हिंदुओं से ६ मन जनेऊ इकट्ठे किए और उनकी सार्वजनिक होली की। मीर मोहम्मद इन क्रूरताओं, बर्बरताओं और गुंडागर्दी का गवाह था। अंत में उसने ब्राह्मणों के इस नरसंहार को रोकने और उन्हें मारने के बजाय उन पर ‘जिजिया कर’ (धार्मिक कर) लगाने की सलाह दी। हिंदुओं की धार्मिक किताबें इकट्ठी की गईं और उन्हें डल झील में फेंक दिया गया या गड्ढे खोद कर दफना दिया गया। ’’ सिकंदर का हुक्म था कि कोई माथे पर तिलक नहीं लगाएगा और कोई महिला सती नहीं जाएगी। उसने मंदिरों की सोने और चांदी की सभी मूर्तियों को गलाने और उनके सिक्के बनाने का आदेश दिया। आर्य सारस्वत जमात को ही मिटा देने की उसने कोशिश की और इसका जिसने विरोध किया उस पर भारी जुर्माना लगाया गया।

अन्य इतिहासकार फरिश्ता कहते हैं, ‘‘कई ब्राह्मणों ने अपना देश एवं धर्म त्यागने के बजाय मौत को गले लगा लिया, कुछ अपने घरबार छोड़ कर चले गए, कुछ मुसलमान बन गए। ’’ डब्लू.आर. लारेन्स के अनुसार, कश्मीर के आर्य सारस्वत ब्राह्मणों को तीन विकल्प दिए गए थे- मौत, धर्मांतरण या देशनिकाला। ‘‘कई भाग गए, कई मुसलमान बनाए गए और कइयों को मार डाला गया। कहा जाता है कि इस क्रूर राजा ने मारे गए पंडितों के ७ मन जनेऊ जला दिए। ’’ हसन और लारेन्स के कथन से स्पष्ट होता है कि कुल १३ मन जनेऊ जलाए गए। इससे इस नरसंहार की भीषणता का पता चलता है। इसके अलावा भारी संख्या में सारस्वत पंडित निर्वासित बन कर भाग गए। पंडितों का यह पहला विशाल सामूहिक निर्वासन था।

सिकंदर- बुतशिकन का पुत्र अली शाह (सन १४१३-१४३०) तो अत्यंत निर्दयी था। उसने भी अपने वालिद की हिंदुओं के प्रति क्रूर नीति जारी रखी। लगभग सभी मुस्लिम इतिहासकारों ने धर्मांतरण की क्रूरता का जिक्र किया है। हसन, फारुक एवं निजामुद्दीन ने इन जुल्मों की साफ-साफ शब्दों में भर्त्सना की है। यह तो आतंक एवं संहार का दौर था। अधिसंख्य हिंदुओं को जबरन मुसलमान बनाया गया तथा भारी मात्रा में हिंदू घाटी छोड़ कर चले गए।

सुलतान जैनुल अबीदीन को बुदशाह अर्थात महान बादशाह कहा जाता है। उसका कश्मीर में शासन १४२० से लेकर १४६० तक रहा। वह बुतशिकन- सिकंदर का पुत्र व क्रूर सुलतान अली शाह का भाई था। उसने सहिष्णुता, संयम, सद्भावना और सब को साथ ले चलने की नीति अपनाई। कश्मीरी पंडित फिर से आने लगे और कायम होने लगे। फर्ग्युसन का कहना है कि पिता की नीतियों को पुत्र द्वारा पूरी तरह उलट देने के उदाहरण इतिहास में बहुत कम मिलते हैं।

लेकिन कश्मीरी पंडितों के साथ सुलह-सफाई का यह काल अल्प रहा। हैदर शाह (१४७०-१४७२) के शासन के दौरान स्थिति बदल गई। वह जैनुल अबीदीन का पुत्र था। कश्मीरी पंडितों को बहुत जुल्मों का सामना करना पड़ा। श्रीवर ने मूल निवासी कश्मीरी पंडितों के साथ किए गए अमानवीय अत्याचारों का वर्णन करते हुए कहा है, ‘‘कई पंडितों ने वितस्ता नदी में जल समाधि ले ली। कई लोगों के नाक व हाथ काट दिए गए। बादशाह के हिंदू मुलाजिमों के साथ भी ऐसा ही बर्ताव किया गया। ’’ हसन खान (१४७६-१४८७) के राज में पवित्र धार्मिक स्थलों को ध्वस्त कराना जारी रहा। इसके लिए तीन लोगों का गिरोह जिम्मेदार था- शम्स चाक, श्रृंगार राइना एवं मूसा राइना। कश्मीरी पंडितों पर इतना प्रचंड दबाव बनाया गया कि वे अपनी जाति और धर्म छोड़ने के लिए मजबूर हो गए।

कश्मीरी पंडितों पर बेहद जुल्म ढहाने शुरू कर दिए। लगभग २४,००० पंडितों को जबरन शिया मुसलमान बनाया गया। इराकी का यह भी हुक्म था कि १५०० से २००० ब्राह्मण रोज पकड़ कर उसके दरबार में लाए जाए, उनके जनेऊ उतारे जाए और उन्हें कलमा दिया जाए, खत्ना किया जाए और गोमांस खिलाया जाए। हिंदू धर्म को खत्म करने का यह जबरदस्त अभियान था।

अकबर सहिष्णु था। जहांगिर एवं शाहजहां वैसे नहीं थे, लेकिन वे इतनी कड़ाई नहीं बरतते थे। ब्राह्मण अपने धार्मिक समारोह कर सकते थे। लेकिन औरंगजेब के आने के बाद पूरा चित्र ही बदल गया। उसके धार्मिक पागलपन ने कश्मीरी पंडितों को और संकट में डाल दिया। औरंगजेब के शासन के दौरान उसके कश्मीर के सूबेदार इफ्तिखार खान ने ब्राह्मणों पर इतने जुल्म ढहाए कि वे सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर से पंजाब के आनंदपुर में मिले और सम्राट से हस्तक्षेप करवाने की उनसे गुहार लगाई। अंत में गुरु को हौतात्म्य प्राप्त हुआ और गुरु गोबिंद सिंह को जुल्मों को रोकने के लिए खालसा की स्थापना करनी पड़ी। मुजफ्फर खान, नास्सर खान तथा इब्राहिम खान नामक औरंगजेब के सूबेदारों ने भी कश्मीरी पंडितों को बहुत आतंकित किया। वे अपनी भूमि से फिर बेदखल किए गए। मुगलों के बाद के शासन के दौरान कश्मीर में धार्मिक असहिष्णुता ने तो हद कर दी।

कश्मीर में अफगानी शासन (१७५३-१८१९) तो क्रूरता, नरसंहार एवं अफरातफरी का दौर था। डब्लू.आर.लारेन्स इसे ‘‘क्रूरता का कहर’’ कहते हैं। कश्मीरी ब्राह्मणों को दबाने के लिए उन्होंने हर तरह की बर्बरता का इस्तेमाल किया। ब्राह्मणों के सिर पर विष्टा का घड़ा रखा जाता था और उस पर पत्थर मारे जाते थे। वह फूटने पर सारी विष्टा से ब्राह्मण सन जाता था। उनकी बर्बरता तो यहां तक थी कि घास के गट्ठड़ों में पंडितों को बांध कर डल झील में डूबो दिया जाता था। आतंकित हिंदू देश छोड़ कर भागने के लिए मजबूर हो जाते थे, इस्लाम कबूल करते थे या मार दिए जाते थे। कश्मीरी पंडितों को दूर दूर तक पलायन करना पड़ा। कई लोग पैदल चल कर दिल्ली, इलाहाबाद जैसे शहरों में आ गए।
हिंदू अभिभावक तो अपनी बच्चियों को बाल, कान एवं नाक काट कर कुरूप बना देते थे ताकि उन पर जुल्म न हो। कोई भी मुस्लिम पंडित की पीठ पर सवार हो सकता था। अफगान सूबेदार मीर हज़र ने तो घास के गट्ठड़ों के बजाय चमड़े की बड़ी थैलियों का ब्राह्मणों को डुबोने के लिए इस्तेमाल किया। वे पगड़ी या जूतें पहन नहीं सकते थे। कश्मीर के सारस्वत ब्राह्मणों को दाढ़ी रखने और तिलक न लगाने का हुक्म दिया गया। अफगानों को तो उनकी बर्बरता, क्रूरता, जबरदस्ती के लिए ही जाना जाता है। फूलों से अधिक तो उन्होंने सिर काटे हैं।

शाहमीरों, चकों, मुगलों एवं अफगानों ने कश्मीर के तानेबाने को न केवल तार-तार किया है, बल्कि गहरी जख्में भी छोड़ दी हैं। अफगानों के जुल्म जब बहुत असह्य हो गए तब पंडितों ने महाराजा रणजीत सिंह से सहायता की गुहार की।

कश्मीर में सिख शासन (१८१९-१८४६) के दौरान कश्मीर में पंडितों को उनका पुराना गौरव प्राप्त हुआ। उन्हें पुनः सम्मानित स्थान व पद दिए जाने लगे। गोहत्या बंद कर दी गई। मंदिरों का जीर्णोद्धार किया गया और पहले की गलतियों को सुधारा गया। सदियों की बर्बरता के बाद पंडितों के लिए सुहाना अवसर आया था। लेकिन जब तक सिख कश्मीर को जीतते तब तक राज्य की ९० फीसदी जनता मुसलमान हो चुकी थी। शेष बची १० फीसदी आबादी देश के अन्य स्थानों पर चली गई थी।

जम्मू-कश्मीर राज्य के गठन एवं १८४६ में डोगरा शासन की स्थापना के साथ कश्मीरी पंडित फिर से पार्श्वभूमि में चले गए। जम्मू क्षेत्र के ही लोग प्रशासक एवं अधिकारी बनने लगे। यद्यपि उन्हें व्यापक धार्मिक व सामाजिक स्वतंत्रता थी, परंतु राजनीतिक अधिकार सीमित हो गए। कभी-कभी तो उन्हें संदेह की नजरों से देखा जाता था। उनका साम्प्रदायिक द्वेष भी किया जाता था। जुलाई १९३१ में हुए साम्प्रदायिक दंगे के दौरान कश्मीरी ब्राह्मणों की दुकानें एवं घर न केवल लूटे गए, बल्कि जला भी दिए गए। स्वाधीनता एवं जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद पुनः कश्मीरी पंडितों को अफगान काल की तरह जुल्मों का शिकार होना पड़ा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३७० के कारण वे पुनः गौण हो गए और उनकी आबादी सिमट गई। आर्थिक सुधारों के नाम पर उनकी जागीरें छीन ली गईं और मुस्लिमों में बांट दी गईं। शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के सारस्वत ब्राह्मणों के प्रति दुष्टता की नीति चलाई। किसी न किसी बात पर उनका मजाक उड़ाया जाता था। हिंदू मंदिरों को अपवित्र किया जाता था और लूटपाट की जाती थी। पंडितों की अवयस्क लड़कियों से जबरदस्ती इस्लाम कबूल करवा कर उनकी शादी मुस्लिम युवकों से कर दी जाती थी।

शेख अब्दुल्ला कश्मीर को अपनी जागीर की तरह मानते थे। लेकिन १९५३ में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के कारण गिरफ्तार किए जाने से उनके सपने धूल में मिल गए। लिहाजा, १९५४ में राजनीतिक कारणों से उन पर दायर मामला वापस ले लिया गया। लेकिन, १९६५ में उन्हें फिर गिरफ्तार किया गया और जनवरी १९६८ में रिहा किया गया। जनवरी १९७१ में उनके कश्मीर में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई, जिसे १९७२ में उठाया गया।

१९५३ से १९७४ के दौरान शेख अब्दुल्ला ने भारत पर कश्मीरियों के साथ अन्याय करने के आरोप लगाए और कहा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय सब से बड़ी भूल थी। इसके लिए इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। उन्होंने कश्मीर के लोगों के लिए स्वयंनिर्णय के अधिकार की मांग की, लेकिन जम्मू व लद्दाख के लोगों को वे भूल गए। उन्होंने कश्मीर के लिए जनमत संग्रह एवं भारत की फौज हटाने की मांग की। उन्होंने भारत से अनाज आयात करने का विरोध करते हुए लोगों से केवल आलू ही खाने के लिए कहा। शेख अब्दुल्ला पंडितों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने पंडितों को हर तरह से परेशान किया। फारुख अब्दुल्ला ने भी पंडितों के प्रति यही नीति अपनाई। कश्मीरी पंडितों को राजनीति की शतरंज पर हमेशा मात दी जाती रही।

लेकिन, १९७४ में इंदिरा-शेख समझौते के कारण कश्मीर की राजनीति में चमत्कारिक परिवर्तन आया। इस समझौते के तहत शेख पुनः २२ साल बाद मुखमंत्री बने। अपनी पहली बातें छोड़ कर वे राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता की बातें करने लगे। जनमत संग्रह, स्वयंनिर्णय एवं स्वतंत्र कश्मीर के नारे हवा हो गए। लेकिन कश्मीर के युवकों के दिलों में भारत-द्वेष का बीज उन्होंने जो बोया उसकी फसल बाद के स्वार्थी नेता काट रहे हैं। कश्मीरी पंडितों की प्रताड़ना का क्रम जारी ही है। यहां तक कि मुफ्ती सईद को भी १९८६ के हिंदू विरोधी दंगों के लिए जिम्मेदार माना जाता है। दंगों के दौरान अनंतनाग जिले में गोहत्याएं की गईं और मंदिरों को तहस-नहस किया गया।

१९४७ से १९८६ के दौरान चार लाख कश्मीरी पंडितों का कश्मीर से पलायन हुआ। राजनीतिक नेताओं की अनदेखी इसके लिए जिम्मेदार है। बांग्लादेश में पराजय का पाकिस्तान बदला लेना चाहता है इसलिए घाटी में आतंक व हिंसा को बढ़ावा देता है। इसी कारण १९८९-९० के दौरान भारी उपद्रव हुए। राष्ट्रविरोधी नारों के साथ पंडितों पर हमले किए जाने लगे। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्की, सूडान एवं सऊदी के बर्बर आतंकी केशर की इस घाटी में घुस आए हैं। आर्य सारस्वत ब्राह्मणों को उत्पीड़ित करने एवं उन्हें मारने के लिए बर्बर, जंगली एवं क्रूर तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। असहाय महिलाओं को भी छोड़ा नहीं जाता। कश्मीरी पंडितों पर जो शैतानी जुल्म किए जा रहे हैं उससे तो अफगानी आतंकी तक अपनी कब्र में सहम गए होंगे!

कश्मीर के सैंकड़ों निर्दोष ब्राह्मणों की बर्बर हत्याओं के कारण उनका घाटी से पलायन हो रहा है। कश्मीरी पंडितों की जमात को ही खत्म करने की यह अंतिम कोशिश है। संग्रामपुरा (१९९७), ऊधमपुर (१९९७), प्राणकोट (१९९८), वंधामा (१९९८) तथा मंदीमार्ग (२००५) का नरसंहार पंडितों के घाटी से सफाई का अभियान है। कश्मीर में पंडित १९४७ में १० प्रतिशत रह गए थे, जो १९८९ में ५ प्रतिशत से भी कम और अब तो ०.२ प्रतिशत से भी कम रह गए हैं। सरकार तो उग्रवादियों, आतंकवादियों एवं स्वयंभू अलगाववादी नेताओं को ही समझाने-बुझाने में लगी है। कश्मीर के आदि निवासी पंडित घाटी से लगभग खत्म ही कर दिए गए हैं और अपने ही देश में विस्थापित अवस्था में रह रहे हैं। उनकी आरक्षण या सब्सिडी की भी कोई मांग नहीं है। वे जीवन की सफलता को छूने के लिए केवल उचित माहौल चाहते हैं।

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: cultureheritagehindi vivekhindi vivek magazinehindu culturehindu traditiontraditiontraditionaltraditional art

डॉ. सतीश गंजू

Next Post
लाल आतंक -अप्रैल २०१७

लाल आतंक -अप्रैल २०१७

Comments 1

  1. Prof Satish Ganjoo says:
    2 years ago

    Every Nationalist should read this article and do some brainstorming

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0